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एआईएसएफ का विस्फोट प्रभाव, प. बंगाव चुनाव में शून्य पर अटकी कांग्रेस व वाम मोर्चा

कई वर्षों तक वाम पार्टी पोलित ब्यूरो ने ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने अपनी पार्टी के फैसले को ऐतिहासिक भूल करार दिया था. इतना ही नहीं जब 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले माकपा के तत्कालीन महासचिव प्रकाश करात ने यूपीए-एक सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया तो पार्टी के कई लोगों ने इसे अभी तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल बताया. इसका नजीजा आज सामने है.

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Published : May 4, 2021, 2:02 AM IST

कोलकाता : 2021 में पश्चिम बंगाल के चुनावों में वाम मोर्चा और कांग्रेस ने अब्बास सिद्दीकी की भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (एआईएसएफ) को संयुक्त मोर्चा गठबंधन में शामिल करने का फैसला किया. कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों ने यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया लेकिन परिणाम सिफर निकला.

रविवार को नतीजे आने के बाद कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट दोनों को ही शून्य सीटें मिलीं. इतना ही नहीं संयुक्त मोर्चे का एकमात्र प्रतिनिधि एआईएसएफ का नौसाद सिद्दीक हैं, जो दक्षिण 24 परगना जिले में भांगर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुना गए हैं.

भारतीय स्वतंत्रता के बाद यह पहली बार है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में कांग्रेस या वाम मोर्चा का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा. 1972 के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस की बड़ी जीत के बीच भी वाम मोर्चे ने राज्य विधानसभा में कुछ उपस्थिति दर्ज की थी. 1977 में जब चीजें वाम मोर्चे के पक्ष में बदल गईं तो पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा शासन हुआ तो भी कांग्रेस उस विधानसभा अवधि में शून्य पर नहीं पहुंची थी. लेकिन इस बार मुर्शिदाबाद और मालदा के अपने गढ़ में भी कांग्रेस को एक बड़ा शून्य हासिल हुआ है.

प्रारंभ में जब गठबंधन में AISF को लेने का निर्णय लिया गया तो कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों वर्गों ने निर्णय पर आपत्ति जताई थी. उनकी मुख्य आपत्ति अब्बास सिद्दीकी के पिछले सार्वजनिक बयान से संबंधित थी जो अत्यधिक सांप्रदायिक था. हालांकि चुनाव अभियान के दौरान सिद्दीकी साम्प्रदायिक बयान देने से बचते रहे. वे वास्तव में अपने पिछले बयानों की छाया को मिटाते दिखे.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यह स्पष्ट है कि एक तरफ AISF ने अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन को रोकने के लिए तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होने के लिए 2019 में भी कांग्रेस व वाम मोर्चा के मतदाताओं को झकझोरा था. उसी समय कांग्रेस और वाम मोर्चा के समर्पित धर्मनिरपेक्ष हिंदू वोट बैंक एआईएसएफ से नाराज हो गए और उन्होंने भाजपा का विरोध करने के लिए तृणमूल को वोट देने के पक्ष में एकजुट हो गए.

शुद्ध परिणाम यह है कि एआईएसएफ कांग्रेस और वाम मोर्चे की कीमत पर बंगाल विधानसभा में प्रवेश करने में सफल रही. वाम मोर्चे के लिए वही त्रासदी 2016 के चुनावों में हुई, जब उसका कांग्रेस के साथ गठबंधन था. 2011 में परिवर्तन के वर्ष वाम मोर्चे ने कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंधन का सामना किया और 64 सीटें हथियाने में सफल रहे और पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल बने थे.

लेकिन 2016 में कांग्रेस गठबंधन के बैकअप के साथ वाम मोर्चा तीसरे स्थान पर सिमट गया और कांग्रेस राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी. 2016 के परिणामों से यह स्पष्ट था कि यद्यपि वाम मोर्चा के मतदाताओं ने कांग्रेस को भारी मत दिया था लेकिन इसकी उल्टा नहीं हुआ.

यह भी पढ़ें-दिल्ली हाई कोर्ट का केंद्र से सवाल- कितने ऑक्सीजन कंसंट्रेटर कस्टम विभाग में अटके हैं

2019 के लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल लेफ्ट फ्रंट की उपस्थिति शून्य हो गई थी. राज्य सभा में माकपा की बंगाल इकाई का एकमात्र प्रतिनिधित्व बिकाश भट्टाचार्य हैं. अब बंगाल विधानसभा में एक भी वामपंथी आवाज नहीं है. अब इस पुरानी एनीमिया से कैसे निकला जाए यह वाम मोर्चा नेतृत्व के लिए चिंता का विषय है.

कोलकाता : 2021 में पश्चिम बंगाल के चुनावों में वाम मोर्चा और कांग्रेस ने अब्बास सिद्दीकी की भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (एआईएसएफ) को संयुक्त मोर्चा गठबंधन में शामिल करने का फैसला किया. कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों ने यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया लेकिन परिणाम सिफर निकला.

रविवार को नतीजे आने के बाद कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट दोनों को ही शून्य सीटें मिलीं. इतना ही नहीं संयुक्त मोर्चे का एकमात्र प्रतिनिधि एआईएसएफ का नौसाद सिद्दीक हैं, जो दक्षिण 24 परगना जिले में भांगर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुना गए हैं.

भारतीय स्वतंत्रता के बाद यह पहली बार है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा में कांग्रेस या वाम मोर्चा का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा. 1972 के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस की बड़ी जीत के बीच भी वाम मोर्चे ने राज्य विधानसभा में कुछ उपस्थिति दर्ज की थी. 1977 में जब चीजें वाम मोर्चे के पक्ष में बदल गईं तो पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा शासन हुआ तो भी कांग्रेस उस विधानसभा अवधि में शून्य पर नहीं पहुंची थी. लेकिन इस बार मुर्शिदाबाद और मालदा के अपने गढ़ में भी कांग्रेस को एक बड़ा शून्य हासिल हुआ है.

प्रारंभ में जब गठबंधन में AISF को लेने का निर्णय लिया गया तो कांग्रेस और वाम मोर्चा दोनों वर्गों ने निर्णय पर आपत्ति जताई थी. उनकी मुख्य आपत्ति अब्बास सिद्दीकी के पिछले सार्वजनिक बयान से संबंधित थी जो अत्यधिक सांप्रदायिक था. हालांकि चुनाव अभियान के दौरान सिद्दीकी साम्प्रदायिक बयान देने से बचते रहे. वे वास्तव में अपने पिछले बयानों की छाया को मिटाते दिखे.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यह स्पष्ट है कि एक तरफ AISF ने अल्पसंख्यक वोटों में विभाजन को रोकने के लिए तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में एकजुट होने के लिए 2019 में भी कांग्रेस व वाम मोर्चा के मतदाताओं को झकझोरा था. उसी समय कांग्रेस और वाम मोर्चा के समर्पित धर्मनिरपेक्ष हिंदू वोट बैंक एआईएसएफ से नाराज हो गए और उन्होंने भाजपा का विरोध करने के लिए तृणमूल को वोट देने के पक्ष में एकजुट हो गए.

शुद्ध परिणाम यह है कि एआईएसएफ कांग्रेस और वाम मोर्चे की कीमत पर बंगाल विधानसभा में प्रवेश करने में सफल रही. वाम मोर्चे के लिए वही त्रासदी 2016 के चुनावों में हुई, जब उसका कांग्रेस के साथ गठबंधन था. 2011 में परिवर्तन के वर्ष वाम मोर्चे ने कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस गठबंधन का सामना किया और 64 सीटें हथियाने में सफल रहे और पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल बने थे.

लेकिन 2016 में कांग्रेस गठबंधन के बैकअप के साथ वाम मोर्चा तीसरे स्थान पर सिमट गया और कांग्रेस राज्य में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी. 2016 के परिणामों से यह स्पष्ट था कि यद्यपि वाम मोर्चा के मतदाताओं ने कांग्रेस को भारी मत दिया था लेकिन इसकी उल्टा नहीं हुआ.

यह भी पढ़ें-दिल्ली हाई कोर्ट का केंद्र से सवाल- कितने ऑक्सीजन कंसंट्रेटर कस्टम विभाग में अटके हैं

2019 के लोकसभा चुनावों के बाद बंगाल लेफ्ट फ्रंट की उपस्थिति शून्य हो गई थी. राज्य सभा में माकपा की बंगाल इकाई का एकमात्र प्रतिनिधित्व बिकाश भट्टाचार्य हैं. अब बंगाल विधानसभा में एक भी वामपंथी आवाज नहीं है. अब इस पुरानी एनीमिया से कैसे निकला जाए यह वाम मोर्चा नेतृत्व के लिए चिंता का विषय है.

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