लखनऊ : उत्तर प्रदेश की घोसी विधानसभा सीट के लिए हो रहे उप चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी दारा सिंह चौहान को करारी हार का सामना करना पड़ा है. समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह ने मतदान की शुरुआत से ही बढ़त बना ली थी और वह अंत तक आगे ही रहे. इस जीत ने जहां समाजवादी पार्टी को संजीवनी देने का काम किया है, तो वहीं भाजपा को आत्ममंथन का संदेश भी दिया है. 2022 के विधानसभा चुनावों में इस सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर दारा सिंह चौहान ही जीतकर आए थे, किंतु एक साल बाद ही उन्होंने समाजवादी पार्टी और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देते हुए घर वापसी यानी भाजपा में लौटने का फैसला कर लिया. दारा सिंह चौहान 2017 से 2022 तक योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्यरत थे और ऐन चुनाव के मौके पर टिकट कटने की आशंका में भाजपा छोड़ सपा में चले गए थे. स्वाभाविक बात है कि मतदाताओं को चौहान का यह अवसरवाद नहीं भाया और इन्होंने सबक सिखाने का काम किया.
पार्टी प्रत्याशी की जीत के बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि 'यह एक ऐसा अनोखा चुनाव है, जिसमें जीते तो एक विधायक हैं, पर हारे कई दलों के भावी मंत्री हैं. 'इंडिया' टीम है और PDA रणनीति, जीत का हमारा यह नया फॉर्मूला सफल साबित हुआ है.' दरअसल, यह उम्मीद जताई जा रही थी कि यदि दारा सिंह चौहान चुनाव जीतते हैं, तो भाजपा उन्हें दोबारा मंत्री बनाएगी. अखिलेश का तंज इसी बात को लेकर था. असल में यदि देखा जाए, तो इस उप चुनाव में मतदाताओं ने अवसरवाद की राजनीति को सिरे से खारिज कर दिया है. अपनी सुविधा से पार्टियां बदलकर आप मतदाताओं को नहीं बदल सकते. यह माना जा रहा है कि इस सीट पर दारा कि खिलाफ लोगों का जो सहज आक्रोश था, चुनाव परिणामों में उसकी झलक देखी जा सकती है. गौरतलब है कि दारा सिंह चौहान की राजनीतिक पारी बहुजन समाज पार्टी से शुरू हुई थी. चौहान 1996 में पहली बार राज्यसभा के सदस्य बनाए गए थे. 2000 में उन्हें दोबारा राज्यसभा जाने का अवसर मिला. 2009 के लोकसभा चुनाव में दारा सिंह चौहान बसपा उम्मीदवार के तौर पर घोसी संसदीय सीट से चुने गए. फरवरी 2015 में उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की उपस्थिति में दिल्ली में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 2017 के विधानसभा चुनावों में वह मधुबन सीट से चुनाव लड़े और जीते भी.
यदि सपा प्रत्याशी सुधाकर सिंह की बात करें, तो वह इस सीट से 2017 में भी चुनाव लड़ चुके हैं, किंतु तब उन्हें भाजपा उम्मीदवार फागू चौहान से हार का सामना करना पड़ा था. 2019 के उप चुनाव में भी सुधाकर सिंह इसी सीट पर भाजपा के खिलाफ मैदान में उतरे थे, लेकिन तब उन्हें भाजपा के विजय राजभर से पराजय का सामना करना पड़ा था. सुधाकर सिंह को इस क्षेत्र का जमीनी नेता माना जाता है. उन्हें हार पर हार का सामना भले ही क्यों न करना पड़ा हो, लेकिन सुधाकर सिंह ने कभी क्षेत्र नहीं छोड़ा और जनता के बीच लगातार बने रहे. माना जाता है कि उनकी लोगों में पैठ दिनोदिन बढ़ती गई. वह स्थानीय प्रत्याशी भी थे, जबकि दारा सिंह चौहान स्थानीय प्रत्याशी नहीं थे. साथ ही इस सीट पर जातीय समीकरण भी उनके साथ नहीं थे. यही कारण है कि सुधाकर सिंह को दारा को हराने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी. वैसे भी यदि देखा जाए तो दोनों ही दलों ने अपने प्रत्याशी को जिताने के लिए कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी. भाजपा के दोनों उपमुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, कई कैबिनेट मंत्री आदि लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहकर प्रचार प्रसार करते रहे. वहीं इस उप चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी प्रचार करने उतरे. अमूमन अखिलेश यादव उप चुनाव में प्रचार के लिए जाना पसंद नहीं करते हैं. प्रार्टी को महासचिव शिवपाल सिंह यादव सहित अन्य नेता भी लागतार क्षेत्र में सक्रिय रहे. जिसका नतीजा समाने है.
यदि जातीय समीकरणों की बात करें, तो यहां डेढ़ लाख से ज्यादा पिछड़ी जाति के मतदाता हैं, वहीं लगभग सत्तर हजार सवर्ण और साठ हजार मुस्लिम मतदाता हैं. घोसी सीट पर साठ हजार से ज्यादा दलित मतदाता भी अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि अन्य जातियों के लगभग सत्तर हजार मतदाता चुनावों पर अपना प्रभाव डालते हैं. बहुजन समाज पार्टी के चुनाव मैदान में न उतरने से लड़ाई सीधी हो गई थी, हालांकि प्रचार के अंतिम दौर में मायावती ने अपने समर्थकों से मतदान न करने अथवा नोटा का बटन दबाने की अपील की थी. जिसका असर भी दिखाई दिया. नोट पर बड़ी संख्या में वोट पड़े, तो यह भी माना जा रहा है कि बसपा के तमाम समर्थकों ने मतदान नहीं किया होगा. यदि यह बसपा के यह समर्थक वोट डालते तो शायद भाजपा का ही फायदा होता.
इस विषय में राजनीतिक विश्लेषक डॉ आलोक कुमार कहते हैं कि 'बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में भी पिछड़ों में अति पिछड़ों की राजनीति का प्रयोग किया जा रहा है, उसमें स्थानीयता का विषय सबसे प्रमुख होता है. बड़ी राजनीतिक पार्टियां इसकी प्राय: अनदेखी करती हैं. भाजपा प्रत्याशी दारा सिंह चौहान की जो पराजय हुई है, उसका बड़ा कारण यह है कि लोगों ने उन्हें अपना माना ही नहीं. अब लोगों को यह भी लगने लगा है कि कहीं न कहीं उनके वोट का मतलब होता है. सपा प्रत्याशी स्थानीय हैं और लगातार इसी क्षेत्र से राजनीति कर रहे हैं. इसका उन्हें लाभ भी मिला. इस नतीजे से यह साफ हो गया है कि पार्टियां प्रयोग तो कर सकती हैं, लेकिन मनमानी नहीं चलेगी. इस नतीजे में एक खात तरह का संदेश भी है. अब भाजपा के लिए मंथन करने का समय है.'
डॉ आलोक कुमार कहते हैं 'अभी लोकसभा चुनावों में काफी समय है. तब तक तमाम समीकरण बनेंगे और बिगड़ेंगे, हालांकि इस जीत से विपक्ष का आत्मविश्वास बढ़ेगा और सपा प्रमुख अखिलेश यादव की मोलभाव करने की क्षमता. इस क्षेत्र में कल्पनाथ राय के बाद किसी कांग्रेसी का कोई खास अस्तित्व नहीं रहा है. इस कारण से कांग्रेस के लिए उत्साह तो हो सकता है, लेकिन बहुत कुछ सोचना या पाने का मौका नहीं. हां, मायावती को भी सोचना पड़ेगा. उनकी वोट न डालने की अपील का खास असर नहीं रहा. नोटा में भले ही इस बार अच्छी-खासी तादाद में वोट पड़े हों, लेकिन किसी बड़ी पार्टी को देखते हुए इनकी गणना शून्य जैसी ही है. इस परिणाम से लगता है कि मायावती का वोट भाजपा में ही गया होगा, भले ही वह जीत पाने में असफल रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि समाजवादी पार्टी और विपक्षी गठबंधन में एक नए उत्साह का संचार तो हुआ ही है.'