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टीटीपी-तालिबान लड़ाकों को कश्मीर भेजने की रणनीति में जुटा पाकिस्तान, भारत को सावधान रहने की जरूरत

अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता पर काबिज हो चुका है. पाकिस्तान ने इसमें अहम भूमिका निभाई है. अब पाकिस्तान भारत के खिलाफ नया मोर्चा खोल खोल रहा है. उसकी कोशिश आतंकी संगठन टीटीपी और तालिबानी लड़ाकों को कश्मीर भेजने की है. वह राजनयिक माध्यम से भी कश्मीर पर नैरेटिव सेट करने में जुटा है. किस हद तक कामयाबी मिलेगी, कहना मुश्किल है, लेकिन भारत को सवाधान रहने की सख्त जरूरत है. पढ़िए एक विश्लेषण ईटीवी भारत के न्यूज एडिटर बिलाल भट का.

इमरान खान
इमरान खान
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Published : Nov 12, 2021, 7:21 PM IST

हैदराबाद : इस्लामाबाद में अफगानिस्तान के मुद्दे पर पाकिस्तान द्वारा 'ट्रोइका प्लस' की बैठक आयोजित करने के बाद भारत ने इस मोर्चे पर नई पहल की. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अगुआई में नई दिल्ली ने क्षेत्रीय सुरक्षा डायलॉग के जरिए समानांतर कदम उठाया. दरअसल, तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान के जितने भी पड़ोसी देश हैं, इन देशों की सुरक्षा व्यवस्था कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य हुई है.

रूस और ईरान के साथ-साथ मध्य एशियाई देशों के पांच देशों ने भारत की अगुआई में हुई बैठक में हिस्सा लिया. चीन और पाकिस्तान ने इस बैठक से दूरी बना ली. बैठक में भाग लेने वाले सभी देश इस बात पर सहमत दिखे कि अफगानिस्तान के नागरिकों की सही मदद तभी हो सकती है, जब वहां पर एक सर्वसमावेशी सरकार का गठन हो. सभी देश साझा सुरक्षा नीति पर भी चर्चा को लेकर एक राय पर सहमत दिखे.

पाकिस्तान ने जहां अपने देश में हुई बैठक में तालिबान सरकार को मजबूत करने पर बल दिया, वहीं भारत ने पूरे क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था के सामने उभरी नई चुनौती पर एक साथ विचार करने को लेकर सहमति बनाई. पाकिस्तान मुख्य रूप से तालिबान को वित्तीय मदद पहुंचाना चाहता है. पाकिस्तान ने कहा कि अगर तालिबान को वित्तीय मदद नहीं मिली, तो अफगान नागरिकों के सामने मानवीय संकट खड़ा हो सकता है. इस बीच खबर है कि इमरान सरकार ने अफगानिस्तान के तालिबानी नेतृत्व की मदद से तहरीक ए तालिबान (टीटीपी) के साथ शांति समझौता कर लिया है. इस खबर के सामने आने के बाद पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी ने नाराजगी जताई है. उनका कहना है कि टीटीपी पाकिस्तान में आतंकी गतिविधि फैलाने का दोषी रहा है. उन्हें किसी भी तरीके से माफी नहीं दी जानी चाहिए. यहां तक कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने टीटीपी आतंकियों को माफी दिए जाने को सही नहीं ठहराया है. टीटीपी ने ही पेशावर में स्कूली बच्चों पर हमला किया था. टीटीपी मुख्य रूप से पाकिस्तान के फाटा क्षेत्र से ऑपरेट करता है. उनके नेता अफगानिस्तान के तालिबानी साथियों से प्रभावित रहते हैं. अफगान तालिबान के साथ डील का मतलब होगा- पाक के सीमाई इलाके में अफगानी तालिबान का हस्तक्षेप बढ़ना. इमरान खान यही चाहते हैं, क्योंकि फ्रंटियर इलाके में इमरान के खिलाफ गुस्से को अफगानी तालिबान ही ठंडा करने में मदद कर सकता है.

नई दिल्ली और इस्लामाबाद, दोनों जगहों पर हुई बैठक को लेकर हलचल तेज है. एक तालिबान का समर्थन कर रहा है, तो दूसरा विरोध. पाकिस्तान टीटीपी और अफगानिस्तान के तालिबान को अपनी सेना का ही एक 'एक्सटेंडेट' हिस्सा बनाना चाहता है, जिसे औपचारिक वैधता तो नहीं मिलेगी, लेकिन पाक अपनी सुविधानुसार इसका इस्तेमाल जरूर करता रहेगा. दरअसल, पाकिस्तान क्या चाहता है. लशकर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, हरकत उल अंसार जैसे आतंकी संगठन पीओके में सक्रिय हैं, लेकिन ये सारे संगठन पाकिस्तान के खिलाफ काम नहीं करते हैं. इसी तरह टीटीपी भी एक आतंकी संगठन है. लेकिन यह पाकिस्तान में भी आतंकी गतिविधि जारी रखता है. इसलिए पाकिस्तान टीटीपी पर दबाव डालकर बदलाव करना चाहता है. वह इसे भी लशकर जैसा ही बनाना चाहता है. आतंकी संस्थाओं का समर्थन करने की वजह से पाकिस्तान अभी तक एफएटीएफए की ग्रे लिस्ट में बना हुआ है. पर, अब पाकिस्तान बदलने का स्वांग रच रहा है. ट्रोइका प्लस की बैठक में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी और अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट ने हिस्सा लिया. इसका विशेष महत्व है. थॉमस खलीलजाद जलमय की जगह आए हैं. जलमय ने ही तालिबान और अमेरिका के बीच दोहा में शांति डील करवाई थी. इसलिए आने वाले समय में थॉमस काफी अहम भूमिका निभाएंगे.

तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत जो हासिल करना चाहता है, पाकिस्तान ठीक अलग रणनीति अपना रहा है. उसने बहुविविध रणनीति अपनाई है. पाकिस्तान राजनयिक और धार्मिक स्तर पर भारत की रणनीति का विरोध कर रहा है. पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों की संस्था 'द ऑरगेनाजेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस' के सदस्यों को आमंत्रित किया. उन्हें पीओके इलाके में लेकर गए. जाहिर है, इसका असर कुछ न कुछ उन पर भी पड़ेगा, जिनके परिवार का एक हिस्सा पीओके और दूसरा हिस्सा भारत की ओर रहता है. पाकिस्तान चाहता है कि ओआईसी के देश कश्मीर मुद्दे पर या तो भारत के खिलाफ बोलें, और ऐसा नहीं करते हैं तो कश्मीर पर पाकिस्तान की नीति का समर्थन करें. पाकिस्तान को अपनी चाल में थोड़ी सफलता भी मिली. कतर की संसद में एक सांसद ने भारत के खिलाफ बयान दे दिया था. यह वही कतर है, जिसकी जमीन पर तालिबान और अमेरिका के बीच डील कराई गई थी. यह अब पाकिस्तान के कहने पर कश्मीर को लेकर बयान जारी कर रहा है.

यह भी पढ़ें- 'ट्रोइका प्लस' वार्ता : तालिबान से सभी आतंकवादी संगठनों से संबंध तोड़ने का आह्वान

इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने अमेरिका में मसूद खान को अपना नया राजदूत बनाकर भेजा. खान पीओके के मीरपुरी इलाके से आते हैं. वहां पर भारत के खिलाफ भावनाओं को भड़काया जाता है. सत्तर के दशक में मीरपुर से ही जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के नाम से अलगाववादी मूवमेंट चला था. बाद में यही मूवमेंट उग्रवादी आंदोलन में तब्दील हो गया. आप समझिए, कि सीमा के पास अचानक कुछ नहीं होता है, जो भी होता है, उसे रणनीति के तहत किया जाता है. खान की नियुक्ति का राजनीतिक मकसद है. उन्हें कश्मीरी टैग के साथ भेजा गया है. इस तरह से पाकिस्तान दुनिया के सामने पूरे नैरेटिव को बदलने की कोशिश कर रहा है.

लेकिन पाकिस्तान अपने हर कदम के साथ उग्रवादी संगठनों को भी साथ कर लेता है. निश्चित तौर पर यह उसके लिए बहुत बड़ा रिस्क है. यह बैकफायर भी कर सकता है. अमेरिका में अफगानिस्तान ने यही रणनीति अपनाई और आज वह समस्या का सामना कर रहा है. पाकिस्तान के साथ भी यह हो सकता है. अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ नई ताकत को हवा दी. लेकिन वही फोर्सेस यानी तालिबान आज अमेरिका के लिए मुसीबत है. भारत के लिए सबसे बड़ी और मुख्य चिंता है टीटीपी और अफगान तालिबान के सदस्यों का कश्मीर में प्रवेश करना. यह पाक का एजेंडा है. पाक चाहता है कि ऐसा हो.

अमेरिका के लिए अफगानिस्तान बहुत बड़ी सीख है. जिस तरीके से तालिबान ने अफगानिस्तान पर सत्ता हासिल की, उससे अमेरिकी प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा है. अमेरिकी सेना को रातों-रात देश छोड़ना पड़ा. अमेरिका ने वहां पर भारी मात्रा में हथियार छोड़ दिए. आखिरकार अमेरिका ने ही रूस के खिलाफ अफगानिस्तान में सैन्य बेस बनाए थे. अब पाकिस्तान उसका फायदा उठा रहा है. वह तालिबान के लड़ाकों को ट्रेनिंग दे रहा है. भारत के लिए भी अफगानिस्तान बड़ा सबक है. उसे अनावश्यक रूप से न तो तालिबान के साथ होना चाहिए और न ही उसका विरोध करना चाहिए. बेहतर यही होगा कि भारत तटस्थ रहे, खासकर तब जबकि वहां से सटीक खुफिया सूचनाएं आने का कोई भी माध्यम न बचा हो.

हैदराबाद : इस्लामाबाद में अफगानिस्तान के मुद्दे पर पाकिस्तान द्वारा 'ट्रोइका प्लस' की बैठक आयोजित करने के बाद भारत ने इस मोर्चे पर नई पहल की. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अगुआई में नई दिल्ली ने क्षेत्रीय सुरक्षा डायलॉग के जरिए समानांतर कदम उठाया. दरअसल, तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान के जितने भी पड़ोसी देश हैं, इन देशों की सुरक्षा व्यवस्था कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य हुई है.

रूस और ईरान के साथ-साथ मध्य एशियाई देशों के पांच देशों ने भारत की अगुआई में हुई बैठक में हिस्सा लिया. चीन और पाकिस्तान ने इस बैठक से दूरी बना ली. बैठक में भाग लेने वाले सभी देश इस बात पर सहमत दिखे कि अफगानिस्तान के नागरिकों की सही मदद तभी हो सकती है, जब वहां पर एक सर्वसमावेशी सरकार का गठन हो. सभी देश साझा सुरक्षा नीति पर भी चर्चा को लेकर एक राय पर सहमत दिखे.

पाकिस्तान ने जहां अपने देश में हुई बैठक में तालिबान सरकार को मजबूत करने पर बल दिया, वहीं भारत ने पूरे क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था के सामने उभरी नई चुनौती पर एक साथ विचार करने को लेकर सहमति बनाई. पाकिस्तान मुख्य रूप से तालिबान को वित्तीय मदद पहुंचाना चाहता है. पाकिस्तान ने कहा कि अगर तालिबान को वित्तीय मदद नहीं मिली, तो अफगान नागरिकों के सामने मानवीय संकट खड़ा हो सकता है. इस बीच खबर है कि इमरान सरकार ने अफगानिस्तान के तालिबानी नेतृत्व की मदद से तहरीक ए तालिबान (टीटीपी) के साथ शांति समझौता कर लिया है. इस खबर के सामने आने के बाद पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी ने नाराजगी जताई है. उनका कहना है कि टीटीपी पाकिस्तान में आतंकी गतिविधि फैलाने का दोषी रहा है. उन्हें किसी भी तरीके से माफी नहीं दी जानी चाहिए. यहां तक कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने टीटीपी आतंकियों को माफी दिए जाने को सही नहीं ठहराया है. टीटीपी ने ही पेशावर में स्कूली बच्चों पर हमला किया था. टीटीपी मुख्य रूप से पाकिस्तान के फाटा क्षेत्र से ऑपरेट करता है. उनके नेता अफगानिस्तान के तालिबानी साथियों से प्रभावित रहते हैं. अफगान तालिबान के साथ डील का मतलब होगा- पाक के सीमाई इलाके में अफगानी तालिबान का हस्तक्षेप बढ़ना. इमरान खान यही चाहते हैं, क्योंकि फ्रंटियर इलाके में इमरान के खिलाफ गुस्से को अफगानी तालिबान ही ठंडा करने में मदद कर सकता है.

नई दिल्ली और इस्लामाबाद, दोनों जगहों पर हुई बैठक को लेकर हलचल तेज है. एक तालिबान का समर्थन कर रहा है, तो दूसरा विरोध. पाकिस्तान टीटीपी और अफगानिस्तान के तालिबान को अपनी सेना का ही एक 'एक्सटेंडेट' हिस्सा बनाना चाहता है, जिसे औपचारिक वैधता तो नहीं मिलेगी, लेकिन पाक अपनी सुविधानुसार इसका इस्तेमाल जरूर करता रहेगा. दरअसल, पाकिस्तान क्या चाहता है. लशकर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद, हरकत उल अंसार जैसे आतंकी संगठन पीओके में सक्रिय हैं, लेकिन ये सारे संगठन पाकिस्तान के खिलाफ काम नहीं करते हैं. इसी तरह टीटीपी भी एक आतंकी संगठन है. लेकिन यह पाकिस्तान में भी आतंकी गतिविधि जारी रखता है. इसलिए पाकिस्तान टीटीपी पर दबाव डालकर बदलाव करना चाहता है. वह इसे भी लशकर जैसा ही बनाना चाहता है. आतंकी संस्थाओं का समर्थन करने की वजह से पाकिस्तान अभी तक एफएटीएफए की ग्रे लिस्ट में बना हुआ है. पर, अब पाकिस्तान बदलने का स्वांग रच रहा है. ट्रोइका प्लस की बैठक में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी और अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि थॉमस वेस्ट ने हिस्सा लिया. इसका विशेष महत्व है. थॉमस खलीलजाद जलमय की जगह आए हैं. जलमय ने ही तालिबान और अमेरिका के बीच दोहा में शांति डील करवाई थी. इसलिए आने वाले समय में थॉमस काफी अहम भूमिका निभाएंगे.

तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत जो हासिल करना चाहता है, पाकिस्तान ठीक अलग रणनीति अपना रहा है. उसने बहुविविध रणनीति अपनाई है. पाकिस्तान राजनयिक और धार्मिक स्तर पर भारत की रणनीति का विरोध कर रहा है. पाकिस्तान ने इस्लामिक देशों की संस्था 'द ऑरगेनाजेशन ऑफ इस्लामिक कॉन्फ्रेंस' के सदस्यों को आमंत्रित किया. उन्हें पीओके इलाके में लेकर गए. जाहिर है, इसका असर कुछ न कुछ उन पर भी पड़ेगा, जिनके परिवार का एक हिस्सा पीओके और दूसरा हिस्सा भारत की ओर रहता है. पाकिस्तान चाहता है कि ओआईसी के देश कश्मीर मुद्दे पर या तो भारत के खिलाफ बोलें, और ऐसा नहीं करते हैं तो कश्मीर पर पाकिस्तान की नीति का समर्थन करें. पाकिस्तान को अपनी चाल में थोड़ी सफलता भी मिली. कतर की संसद में एक सांसद ने भारत के खिलाफ बयान दे दिया था. यह वही कतर है, जिसकी जमीन पर तालिबान और अमेरिका के बीच डील कराई गई थी. यह अब पाकिस्तान के कहने पर कश्मीर को लेकर बयान जारी कर रहा है.

यह भी पढ़ें- 'ट्रोइका प्लस' वार्ता : तालिबान से सभी आतंकवादी संगठनों से संबंध तोड़ने का आह्वान

इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने अमेरिका में मसूद खान को अपना नया राजदूत बनाकर भेजा. खान पीओके के मीरपुरी इलाके से आते हैं. वहां पर भारत के खिलाफ भावनाओं को भड़काया जाता है. सत्तर के दशक में मीरपुर से ही जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के नाम से अलगाववादी मूवमेंट चला था. बाद में यही मूवमेंट उग्रवादी आंदोलन में तब्दील हो गया. आप समझिए, कि सीमा के पास अचानक कुछ नहीं होता है, जो भी होता है, उसे रणनीति के तहत किया जाता है. खान की नियुक्ति का राजनीतिक मकसद है. उन्हें कश्मीरी टैग के साथ भेजा गया है. इस तरह से पाकिस्तान दुनिया के सामने पूरे नैरेटिव को बदलने की कोशिश कर रहा है.

लेकिन पाकिस्तान अपने हर कदम के साथ उग्रवादी संगठनों को भी साथ कर लेता है. निश्चित तौर पर यह उसके लिए बहुत बड़ा रिस्क है. यह बैकफायर भी कर सकता है. अमेरिका में अफगानिस्तान ने यही रणनीति अपनाई और आज वह समस्या का सामना कर रहा है. पाकिस्तान के साथ भी यह हो सकता है. अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ नई ताकत को हवा दी. लेकिन वही फोर्सेस यानी तालिबान आज अमेरिका के लिए मुसीबत है. भारत के लिए सबसे बड़ी और मुख्य चिंता है टीटीपी और अफगान तालिबान के सदस्यों का कश्मीर में प्रवेश करना. यह पाक का एजेंडा है. पाक चाहता है कि ऐसा हो.

अमेरिका के लिए अफगानिस्तान बहुत बड़ी सीख है. जिस तरीके से तालिबान ने अफगानिस्तान पर सत्ता हासिल की, उससे अमेरिकी प्रतिष्ठा को बहुत बड़ा धक्का लगा है. अमेरिकी सेना को रातों-रात देश छोड़ना पड़ा. अमेरिका ने वहां पर भारी मात्रा में हथियार छोड़ दिए. आखिरकार अमेरिका ने ही रूस के खिलाफ अफगानिस्तान में सैन्य बेस बनाए थे. अब पाकिस्तान उसका फायदा उठा रहा है. वह तालिबान के लड़ाकों को ट्रेनिंग दे रहा है. भारत के लिए भी अफगानिस्तान बड़ा सबक है. उसे अनावश्यक रूप से न तो तालिबान के साथ होना चाहिए और न ही उसका विरोध करना चाहिए. बेहतर यही होगा कि भारत तटस्थ रहे, खासकर तब जबकि वहां से सटीक खुफिया सूचनाएं आने का कोई भी माध्यम न बचा हो.

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