हैदराबाद : वित्तमंत्री मनमोहन सिंह, उदारीकरण और प्रधानमंत्री नरसिंह राव. इन तीन नामों से हर कोई वाकिफ होंगे. मगर 70 के दशक में पैदा हुए लोग नरसिंह राव के दौर में मनमोहन सिंह के उदारीकरण वाली नीतियों के नतीजों को महसूस किया होगा. इस उम्र के लोगों को याद होगा कि राशन की दुकानों में शक्कर और तेल के लिए कितनी लंबी लाइन लगती थी. खुदरा बाजार में गेहूं और चावल के रेट में सरकारी राशन के दुकानों कितना फर्क था. एक अदद टेलीफोन के लिए अफसर, सांसद और मंत्रियों के कितने चक्कर लगाने पड़ते थे. स्कूटर के लिए वेटिंग लिस्ट लंबी होती थी. हर खाता सरकारी बैंक में ही खुलता था, क्योंकि प्राइवेट बैंक थे ही नहीं. सड़क पर गिनी चुनी कंपनियों की चार पहिया गाड़ी दौड़ती थी. चुनिंदा घरों में कलर टीवी हुआ करता था..वह भी शटर वाला. रंगीन टीवी का ख्वाब देखने वाले अपनी ब्लैक एंड वॉइट टीवी पर कलरफुल शीशे लगाया करते थे. चैनल के नाम पर एक ही ऑप्शन था, दूरदर्शन. जिसके कार्यक्रम एंटीना ठीक होने पर ही देखे जा सकते थे.
80 के दशक अंत में पैदा होने वालों को थोड़ा बहुत याद होगा..मगर ठीक-ठीक नहीं. क्योंकि 24 जुलाई 1991 को तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में ऐसा बजट पेश किया, जिसने भारत का आर्थिक इतिहास बदल दिया. बाजार की हालात तेजी से बदलने लगे. बजट से तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने लाइसेंस राज के तीन स्तंभों- सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार, निजी कारोबार को सीमित करना और ग्लोबल मार्केट से अलगाव को एक झटके ध्वस्त कर दिया. इकनॉमिक रिफॉर्म का दौर शुरू हो चुका था. ग्लोबलाइजेशन और कॉरपोरेट जैसे शब्द भारत की रोजमर्रा की डिक्शनरी में शामिल हो गए. हालात बदलने लगे थे. 1993 की शुरुआत में रिज़र्व बैंक ने प्राइवेट बैंकों को अनुमति दी. पहले तीन प्राइवेट बैंक खुले. आईडीबीआई , आईसीआईसीआई और यूटीआई. फिर इसकी संख्या लगातार बढ़ती गई. 1994 के बाद एविएशन सेक्टर में भी प्राइवेट प्लेयर्स ने एंट्री ली और इंडियन एयरलाइंस के महाराजा का दबदबा कम हुआ.
मनमोहन सिंह ने नरसिंह राव के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों का दौर जारी रखा. इसके नतीजे भी सामने आए, जिसे आम लोगों ने महसूस किया. राशन की दुकानों पर भीड़ कम हुई. कलर टीवी और होम एपलाएंस के कई ब्रांड बाजार में आए. कंपनियों में ज्यादा से ज्यादा उत्पाद बेचने की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई. प्राइवेट नौकरी करने वालों की सैलरी प्राइवेट बैंकों में आने लगी. जगह-जगह टेलीफोन बूथ (पीसीओ) खुले. बीएसएनएल ने भी ज्यादा से ज्यादा घरेलू उपभोक्ताओं को टेलीफोन देना शुरू किया. स्टार और जी जैसे चैनल 1991 में आ गए. घरों तक केबल लाइन खींच गई और लोगों को टीवी पर कई चैनल देखने के ऑप्शन मिले. प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां जेनरेट हुईं. बाइक और स्कूटर लोग सीधे शोरूम से जाकर तत्काल खरीदना शुरू कर दिया.
इन तथ्यों से जानें 30 साल में क्या बदल गया
- 1991 में क़रीब एक करोड़ सात लाख यात्रियों ने हवाई यात्रा की थी, यह संख्या 2017 तक 14 करोड़ हो गई.
- आज भारत में 22 प्राइवेट बैंक हैं जबकि 27 नेशनलाइज्ड बैंक हैं. उदारीकरण से पहले 21 राष्ट्रीयकृत बैंक थे. ( अब कैश डिपोजिट और विड्रॉल करने के लिए एटीएम भी है, पहले बैंक के काम के लिए ऑफिस वालों को हाफ डे छुट्टी लेनी पड़ती थी.)
- विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद गरीबी में 1.36 फीसदी की दर से कमी हुई. यह 1991 से पहले 0.44 फीसदी की दर से घट रही थी.
- 2018 तक नई आर्थिक नीति के बाद से तकरीबन 13.80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा चुका है.
- 1991 में कुल जीडीपी 5,86,212 करोड़ रुपये की थी. 2018 तक भारत की जीडीपी लगभग 20,00,000 करोड़ रुपये की हो चुकी थी.
- 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार 1 अरब डॉलर था, 2021 में यह करीब 610 अरब डॉलर है
- राज्यों की ओर से निवेशकों को लुभाने के लिए ग्लोबल समिट आयोजित किए जा रहे हैं. सभी दलों के शासित राज्य आज निवेश को उपलब्धि बता रहे हैं.
- आज हर शहर के अलावा देश के कस्बाई इलाकों में भी प्रमुख ब्रांड के शोरूम या सामान उपलब्ध हैं.
जब स्विजरलैंड के बैंक में गिरवी रखना पड़ा सोना
ऐसा नहीं है कि नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने आते ही उदारीकरण के आर्थिक मॉडल को अपना लिया था. दरअसल, विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार जाने के बाद चंद्रशेखर ने कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाई थी. दिसंबर 1990 में जब उनकी सरकार में यशवंत सिन्हा वित्त मंत्री बनाए गए, तब भारत में विदेशी मुद्रा भंडार घटकर केवल दो अरब डॉलर तक रह गया था. उस समय यह रकम इतनी ही थी कि, जिससे भारत सिर्फ दो हफ़्ते का आयात बिल भर सकता था. स्विस बैंक में सोना गिरवी रखने के बावजूद खजाने को राहत नहीं मिली. तब चंद्रशेखर की सरकार ने आईएमएफ का दरवाजा खटखटाया. आईएमएफ़ से क़र्ज़ हासिल करने की कुल 25 शर्तें थीं, जिनमें भारत की अर्थव्यवस्था को खोलना और सरकारी कंपनियों का विनिवेश शामिल थीं. चंद्रशेखर की सरकार ने शर्तें मान लीं और देश को कर्ज मिल गया. इस दौरान चंद्रशेखर के आर्थिक सलाहकार मनमोहन सिंह ही थे. इस तरह चाहे-अनचाहे भारत में उदारीकरण का रास्ता खुल गया. अब बारी थी आईएमएफ की शर्तों को लागू करने की.
प्रणव मुखर्जी को नरसिंह राव ने नहीं बनाया वित्त मंत्री
इस बीच राजनीतिक घटनाक्रम बदला. कांग्रेस ने चंद्रशेखर की सरकार गिरा दी. 1991 में देश में मध्यावधि चुनाव हुए. जून 1991 में पी. वी. नरसिंह राव ने अल्पमत की सरकार बनाई. सत्ता में आते ही उन्हें पता चला कि भारत के पास मात्र 89 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा रह गई है, जो सिर्फ दो महीने के आयात बिल के लिए काफी है. उस समय खाड़ी युद्ध के कारण पेट्रोलियम की कीमत आसमान छू रही थी. 1991 तक मुद्रा स्फीति भी बढ़ कर 16.7 फ़ीसदी हो गई थी. देश पर 80 के दशक में लिए कर्जों का बोझ था. ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव ने अर्थशास्त्री वित्त मंत्री की तलाश शुरू कर दी. राजनीतिक हलकों में यह उम्मीद थी कि वह प्रणव मुखर्जी को वित्त मंत्रालय सौंपेंगे. मगर नरसिंह की तलाश पी सी अलेक्ज़ेंडर और रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर आई जी पटेल से होते हुए मनमोहन सिंह पर खत्म हुई. आई जी पटेल ने मंत्री बनने से इनकार कर दिया, तब पी सी एलेक्ज़ेंडर को मनमोहन सिंह को मनाने का दायित्व सौंपा गया. तब मनमोहन सिंह यूजीसी के चेयरमैन थे. वह राजी हो गए और 21 जून 1991 को मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बन गए.
खूब हुई थी मनमोहन सिंह की आलोचना, मगर मजबूती से खड़े रहे नरसिंह राव
मनमोहन सिंह के पास बजट पेश करने के लिए एक महीने का समय था. पद संभालते ही मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार की दिशा में कदम बढ़ा दिए थे. मंत्री बनने के 10 दिनों बाद ही उन्होंने रुपये का दो बार अवमूल्यन कर दिया. इसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई, मगर प्रधानमंत्री का सपोर्ट उन्हें लगातार मिलता रहा . 24 जुलाई 1991 का ऐतिहासिक दिन आया, जब मनमोहन सिंह ने अपना पहला बजट पेश किया. आईएमएफ की जिन शर्तों पर चंद्रशेखर की सरकार ने हामी भरी थी, मनमोहन सिंह ने उसे लागू कर दिया. सब्सिडी खत्म करने का सिलसिला शुरू हुआ. लाइसेंस के नियम बदले गए. 34 उद्योगों में विदेशी निवेश की सीमा को 40 फ़ीसदी से बढ़ा कर 51 फ़ीसदी कर दिया गया. निवेश को बढ़ावा देने के लिए आयात शुल्क में बदलाव किए गए. इसके बाद अगले 5 साल तक हर बजट में आर्थिक उदारीकरण का दौर चलता रहा. कंप्यूटर पार्टस और सॉफ्टवेयर आयात पर छूट दी गई. तब वामपंथी दलों के साथ आरएसएस ने भी उदारीकरण का विरोध किया था. नए तर्क सामने आए कि ग्लोबलाइजेशन के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसे की ताकत से भारतीय कंपनियों को धीरे-धीरे निगल लेगी. तमाम आलोचनाओं के बीच राव अपने खास सिपहसलार मनमोहन के पीछे मजबूती से खड़े रहे. मगर पी वी नरसिंह राव के बाद देश में 6 सरकारें बनीं और उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के फॉर्मूले पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाती रही. अब वर्तमान की नरेंद्र मोदी सरकार ने इन्हीं बदलावों के सहारे देश की इकॉनामी को 3 ट्रिलियन का बनाने का लक्ष्य रखा है.