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No Confidence Motion : इंदिरा के 16 साल के कार्यकाल में 15 अविश्वास प्रस्ताव, जानिए किन प्रधानमंत्रियों को नहीं करना पड़ा इसका सामना - इंदिरा के कार्यकाल में 15 अविश्वास प्रस्ताव

लोकसभा में कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई ने अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion) पेश किया, जिसे स्वीकार कर लिया गया है. ऐसे में मोदी सरकार संसद में अपने दूसरे अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने के लिए तैयार है. एनडीए सरकार के लिए चिंता इसलिए नहीं है, क्योंकि भाजपा के अपने 303 सांसद हैं, एनडीए की बात करें तो आंकड़ा और ज्यादा है. आइए जानते हैं कि सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव कब आया, किसके कार्यकाल में आए सबसे ज्यादा प्रस्ताव. विस्तार से पढ़िए पूरी खबर.

No Confidence Motion
इंदिरा के 16 साल के कार्यकाल में 15 अविश्वास प्रस्ताव
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Published : Jul 27, 2023, 5:28 PM IST

Updated : Jul 27, 2023, 5:38 PM IST

नई दिल्ली : कांग्रेस के लोकसभा उपाध्यक्ष और उत्तर पूर्व नेता गौरव गोगोई बुधवार को पीएम मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion) लाए हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' ने इस निर्णय में एकता व्यक्त की है, और मणिपुर में जातीय हिंसा के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करने के लिए बहस की मांग की है. उनका उद्देश्य केवल केंद्रीय गृह मंत्री के माध्यम से नहीं, बल्कि संसद में इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है और इस मामले पर चर्चा के लिए उचित समय का आश्वासन दिया है.

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विपक्ष क्यों लाया है अविश्वास प्रस्ताव? : मानसून सत्र की शुरुआत से ही विपक्षी दल मांग कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर में हिंसक स्थिति पर संसद में बयान दें. कई दिनों के विरोध और हंगामे के बाद, विपक्ष ने बुधवार को सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए दो अलग-अलग नोटिस दिए, इस उम्मीद में कि प्रधानमंत्री को बहस का जवाब देने के लिए मजबूर किया जाएगा.

क्या है अविश्वास प्रस्ताव?: संसदीय लोकतंत्र में, कोई सरकार सत्ता में तभी रह सकती है जब उसके पास सीधे निर्वाचित सदन में बहुमत हो. हमारे संविधान का अनुच्छेद 75 (3) इस नियम को निर्दिष्ट करके इस नियम का प्रतीक है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति जिम्मेदार है.

इस सामूहिक जिम्मेदारी के परीक्षण के लिए लोकसभा के नियम विशेष के तहत अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है. कोई भी लोकसभा सांसद 50 सहयोगियों का समर्थन हासिल कर, किसी भी समय मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकता है.

चर्चा के बाद होती है वोटिंग : इसके बाद उस प्रस्ताव पर चर्चा होती है. प्रस्ताव का समर्थन करने वाले सांसद सरकार की कमियों को उजागर करते हैं, और ट्रेजरी बेंच उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं. अंत में मतदान होता है - ये वोटिंग पर निर्भर करता है कि सरकार बनी रहेगी या नहीं. मतलब अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में अगर ज्यादा वोट पड़े तो सरकार गिर जाएगी, वहीं अगर अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में कम वोट पड़े तो विपक्ष की, सरकार से इस्तीफे की मांग खारिज हो जाएगी. अविश्वास प्रस्ताव केवल लोकसभा में ही लाया जा सकता है.

क्या सरकार के लिए है ये चिंता का कारण? : एनडीए सरकार के लिए ये चिंता का कारण नहीं है क्योंकि लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा 272 है, वर्तमान में, एनडीए सरकार के पास 331 सदस्य हैं. बात भाजपा की करें, तो अकेले उसके पास 303 सांसद हैं. इसका मतलब यह है कि भले ही सभी गैर-एनडीए दल एक साथ आ जाएं (जिसकी संभावना बहुत कम है), फिर भी भाजपा के पास अविश्वास प्रस्ताव से बचने के लिए पर्याप्त संख्या है. नव नामित 'इंडिया' गठबंधन के पास 144 सांसद हैं जबकि बीआरएस, वाईएसआरसीपी और बीजेडी जैसी 'तटस्थ' पार्टियों की संयुक्त ताकत 70 है.

हालांकि, अविश्वास प्रस्ताव का उपयोग ऐतिहासिक रूप से किसी निश्चित विषय या मुद्दे पर चर्चा को मजबूर करने के लिए किया गया है. विपक्ष जानता है कि उसके पास संख्या नहीं है लेकिन फिर भी उसने सरकार पर मणिपुर की स्थिति के बारे में उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए दबाव डालने के लिए प्रस्ताव पेश किया है.

पहले भी लाए जा चुके हैं अविश्वास प्रस्ताव : लोकसभा में लाए गए अविश्वास प्रस्तावों की बात करें तो पहली बार ऐसा 1963 में किया गया था. 1963 में तीसरी लोकसभा के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ आचार्य जेबी कृपलानी पहला अविश्वास प्रस्ताव लाए थे. प्रस्ताव पर चार दिनों में 21 घंटे तक बहस चली, जिसमें 40 सांसदों ने भाग लिया.

इसके जवाब में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि 'अविश्वास प्रस्ताव का उद्देश्य सरकार में पार्टी को हटाकर उसकी जगह लेना होता है या होना भी चाहिए. वर्तमान उदाहरण में यह स्पष्ट है कि ऐसी कोई अपेक्षा या आशा नहीं थी. और इसलिए कई मायनों में बहस दिलचस्प थी और, मुझे लगता है कि लाभदायक भी थी, हालांकि थोड़ी अवास्तविक थी. व्यक्तिगत रूप से, मैंने इस प्रस्ताव और इस बहस का स्वागत किया है. मैंने महसूस किया है कि यदि हम समय-समय पर इस प्रकार के परीक्षण कराते रहें तो यह अच्छी बात होगी.'

तब से संसद में 26 और अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं (ताजा घटनाक्रम को छोड़कर). आखिरी प्रस्ताव 2018 में लाया गया था. नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ टीआरएस ये प्रस्ताव लाया था.

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आए 15 अविश्वास प्रस्ताव : स्वतंत्र भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी को सबसे अधिक अविश्वास प्रस्तावों का सामना करना पड़ा. प्रधानमंत्री के रूप में उनके 16 साल के कार्यकाल (1966-77 और फिर 1980 से अक्टूबर 1984 में उनकी हत्या तक) के दौरान 15 प्रस्ताव शामिल थे. उनके पहले कार्यकाल में 12 अविश्वास प्रस्ताव आए, जिनमें 1967 में एक प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी लाए थे. वहीं, उनके दूसरे कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी तीन अविश्वास प्रस्ताव लाए थे.

अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार का गिरना : छठी लोकसभा में पहली बार कोई गैर-कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई, जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली नई सरकार ने भारी बहुमत हासिल किया. देसाई को दो अविश्वास प्रस्तावों का सामना करना पड़ा, जहां पहले में उन्होंने जीत हासिल की, वहीं दूसरे पर चर्चा बेनतीजा रही लेकिन इसके कारण उनकी सरकार गिर गई. यह प्रस्ताव वाई.बी. चव्हाण (कांग्रेस I) लाए थे. 11 जुलाई, 1979 को इसमें दावा किया गया कि जीवन के सभी क्षेत्रों में सरकार में विश्वास की हानि हुई है. चर्चा बेनतीजा रहने के बाद 15 जुलाई को देसाई ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंप दिया.

जानिए किन पीएम को नहीं करना पड़ा ऐसे प्रस्ताव का सामना : स्वतंत्र भारत में सभी प्रधानमंत्रियों द्वारा सामना किए गए अविश्वास प्रस्तावों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इंदिरा गांधी को 15 बार इसका सामना करना पड़ा. लाल बहादुर शास्त्री और पी.वी. नरसिम्हा राव को तीन प्रस्तावों का सामना करना पड़ा जबकि मोरारजी देसाई और अटल बिहारी वाजपेयी को दो-दो प्रस्तावों का सामना करना पड़ा. जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी. दोनों को एक-एक प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. चौधरी चरण सिंह, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल को ऐसे किसी प्रस्ताव का सामना नहीं करना पड़ा.

2003 में अटल सरकार ने किया था अविश्वास प्रस्ताव का सामना : भाजपा सरकार को 2003 में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था, जब अटल बिहारी वाजपेयी को सोनिया गांधी द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था. हालांकि, वाजपेयी ने प्रस्ताव को 125 मतों के अंतर से हरा दिया. वाजपेयी दो छोटे कार्यकाल के लिए 1996 और फिर 1998-99 तक प्रधानमंत्री भी रहे. उन्होंने सदन में अपना बहुमत साबित करने की कोशिश करते हुए तीन विश्वास प्रस्ताव पेश किए थे. अप्रैल 1999 में वह तीसरी बार केवल एक वोट से हार गए - जिसके परिणामस्वरूप 12वीं लोकसभा समय से पहले भंग हो गई क्योंकि विपक्ष भी सरकार बनाने के लिए संख्या जुटाने में सक्षम नहीं था.

मोदी के नौ साल के कार्यकाल में ये दूसरा अविश्वास प्रस्ताव : अपने नौ साल के कार्यकाल में पीएम मोदी दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेंगे. 2018 में मोदी ने अपने पहले अविश्वास प्रस्ताव में जीत दर्ज की थी. स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सभी विपक्षी सदस्यों के नाम बताए थे, जिन्होंने इसी तरह का अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था और कहा था कि तेलुगु देशम पार्टी के केसिनेनी श्रीनिवास अपना प्रस्ताव लाएंगे क्योंकि उनका नाम लॉटरी में आया था. 12 घंटे की जोरदार बहस के बाद मोदी सरकार ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव को 199 वोटों से हरा दिया. कुल 126 सदस्यों ने प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि 325 सांसदों ने इसे खारिज कर दिया. इस बहस का सबसे यादगार लमहा वो था जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाषण देने के बाद प्रधानमंत्री को गले लगा लिया था.

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नई दिल्ली : कांग्रेस के लोकसभा उपाध्यक्ष और उत्तर पूर्व नेता गौरव गोगोई बुधवार को पीएम मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (No Confidence Motion) लाए हैं. विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' ने इस निर्णय में एकता व्यक्त की है, और मणिपुर में जातीय हिंसा के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करने के लिए बहस की मांग की है. उनका उद्देश्य केवल केंद्रीय गृह मंत्री के माध्यम से नहीं, बल्कि संसद में इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए सरकार पर दबाव बनाना है.

लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है और इस मामले पर चर्चा के लिए उचित समय का आश्वासन दिया है.

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विपक्ष क्यों लाया है अविश्वास प्रस्ताव? : मानसून सत्र की शुरुआत से ही विपक्षी दल मांग कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर में हिंसक स्थिति पर संसद में बयान दें. कई दिनों के विरोध और हंगामे के बाद, विपक्ष ने बुधवार को सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए दो अलग-अलग नोटिस दिए, इस उम्मीद में कि प्रधानमंत्री को बहस का जवाब देने के लिए मजबूर किया जाएगा.

क्या है अविश्वास प्रस्ताव?: संसदीय लोकतंत्र में, कोई सरकार सत्ता में तभी रह सकती है जब उसके पास सीधे निर्वाचित सदन में बहुमत हो. हमारे संविधान का अनुच्छेद 75 (3) इस नियम को निर्दिष्ट करके इस नियम का प्रतीक है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति जिम्मेदार है.

इस सामूहिक जिम्मेदारी के परीक्षण के लिए लोकसभा के नियम विशेष के तहत अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है. कोई भी लोकसभा सांसद 50 सहयोगियों का समर्थन हासिल कर, किसी भी समय मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकता है.

चर्चा के बाद होती है वोटिंग : इसके बाद उस प्रस्ताव पर चर्चा होती है. प्रस्ताव का समर्थन करने वाले सांसद सरकार की कमियों को उजागर करते हैं, और ट्रेजरी बेंच उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते हैं. अंत में मतदान होता है - ये वोटिंग पर निर्भर करता है कि सरकार बनी रहेगी या नहीं. मतलब अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में अगर ज्यादा वोट पड़े तो सरकार गिर जाएगी, वहीं अगर अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में कम वोट पड़े तो विपक्ष की, सरकार से इस्तीफे की मांग खारिज हो जाएगी. अविश्वास प्रस्ताव केवल लोकसभा में ही लाया जा सकता है.

क्या सरकार के लिए है ये चिंता का कारण? : एनडीए सरकार के लिए ये चिंता का कारण नहीं है क्योंकि लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा 272 है, वर्तमान में, एनडीए सरकार के पास 331 सदस्य हैं. बात भाजपा की करें, तो अकेले उसके पास 303 सांसद हैं. इसका मतलब यह है कि भले ही सभी गैर-एनडीए दल एक साथ आ जाएं (जिसकी संभावना बहुत कम है), फिर भी भाजपा के पास अविश्वास प्रस्ताव से बचने के लिए पर्याप्त संख्या है. नव नामित 'इंडिया' गठबंधन के पास 144 सांसद हैं जबकि बीआरएस, वाईएसआरसीपी और बीजेडी जैसी 'तटस्थ' पार्टियों की संयुक्त ताकत 70 है.

हालांकि, अविश्वास प्रस्ताव का उपयोग ऐतिहासिक रूप से किसी निश्चित विषय या मुद्दे पर चर्चा को मजबूर करने के लिए किया गया है. विपक्ष जानता है कि उसके पास संख्या नहीं है लेकिन फिर भी उसने सरकार पर मणिपुर की स्थिति के बारे में उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए दबाव डालने के लिए प्रस्ताव पेश किया है.

पहले भी लाए जा चुके हैं अविश्वास प्रस्ताव : लोकसभा में लाए गए अविश्वास प्रस्तावों की बात करें तो पहली बार ऐसा 1963 में किया गया था. 1963 में तीसरी लोकसभा के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ आचार्य जेबी कृपलानी पहला अविश्वास प्रस्ताव लाए थे. प्रस्ताव पर चार दिनों में 21 घंटे तक बहस चली, जिसमें 40 सांसदों ने भाग लिया.

इसके जवाब में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि 'अविश्वास प्रस्ताव का उद्देश्य सरकार में पार्टी को हटाकर उसकी जगह लेना होता है या होना भी चाहिए. वर्तमान उदाहरण में यह स्पष्ट है कि ऐसी कोई अपेक्षा या आशा नहीं थी. और इसलिए कई मायनों में बहस दिलचस्प थी और, मुझे लगता है कि लाभदायक भी थी, हालांकि थोड़ी अवास्तविक थी. व्यक्तिगत रूप से, मैंने इस प्रस्ताव और इस बहस का स्वागत किया है. मैंने महसूस किया है कि यदि हम समय-समय पर इस प्रकार के परीक्षण कराते रहें तो यह अच्छी बात होगी.'

तब से संसद में 26 और अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं (ताजा घटनाक्रम को छोड़कर). आखिरी प्रस्ताव 2018 में लाया गया था. नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ टीआरएस ये प्रस्ताव लाया था.

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आए 15 अविश्वास प्रस्ताव : स्वतंत्र भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी को सबसे अधिक अविश्वास प्रस्तावों का सामना करना पड़ा. प्रधानमंत्री के रूप में उनके 16 साल के कार्यकाल (1966-77 और फिर 1980 से अक्टूबर 1984 में उनकी हत्या तक) के दौरान 15 प्रस्ताव शामिल थे. उनके पहले कार्यकाल में 12 अविश्वास प्रस्ताव आए, जिनमें 1967 में एक प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी लाए थे. वहीं, उनके दूसरे कार्यकाल में अटल बिहारी वाजपेयी तीन अविश्वास प्रस्ताव लाए थे.

अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से सरकार का गिरना : छठी लोकसभा में पहली बार कोई गैर-कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई, जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली नई सरकार ने भारी बहुमत हासिल किया. देसाई को दो अविश्वास प्रस्तावों का सामना करना पड़ा, जहां पहले में उन्होंने जीत हासिल की, वहीं दूसरे पर चर्चा बेनतीजा रही लेकिन इसके कारण उनकी सरकार गिर गई. यह प्रस्ताव वाई.बी. चव्हाण (कांग्रेस I) लाए थे. 11 जुलाई, 1979 को इसमें दावा किया गया कि जीवन के सभी क्षेत्रों में सरकार में विश्वास की हानि हुई है. चर्चा बेनतीजा रहने के बाद 15 जुलाई को देसाई ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंप दिया.

जानिए किन पीएम को नहीं करना पड़ा ऐसे प्रस्ताव का सामना : स्वतंत्र भारत में सभी प्रधानमंत्रियों द्वारा सामना किए गए अविश्वास प्रस्तावों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इंदिरा गांधी को 15 बार इसका सामना करना पड़ा. लाल बहादुर शास्त्री और पी.वी. नरसिम्हा राव को तीन प्रस्तावों का सामना करना पड़ा जबकि मोरारजी देसाई और अटल बिहारी वाजपेयी को दो-दो प्रस्तावों का सामना करना पड़ा. जवाहरलाल नेहरू और राजीव गांधी. दोनों को एक-एक प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. चौधरी चरण सिंह, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल को ऐसे किसी प्रस्ताव का सामना नहीं करना पड़ा.

2003 में अटल सरकार ने किया था अविश्वास प्रस्ताव का सामना : भाजपा सरकार को 2003 में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था, जब अटल बिहारी वाजपेयी को सोनिया गांधी द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था. हालांकि, वाजपेयी ने प्रस्ताव को 125 मतों के अंतर से हरा दिया. वाजपेयी दो छोटे कार्यकाल के लिए 1996 और फिर 1998-99 तक प्रधानमंत्री भी रहे. उन्होंने सदन में अपना बहुमत साबित करने की कोशिश करते हुए तीन विश्वास प्रस्ताव पेश किए थे. अप्रैल 1999 में वह तीसरी बार केवल एक वोट से हार गए - जिसके परिणामस्वरूप 12वीं लोकसभा समय से पहले भंग हो गई क्योंकि विपक्ष भी सरकार बनाने के लिए संख्या जुटाने में सक्षम नहीं था.

मोदी के नौ साल के कार्यकाल में ये दूसरा अविश्वास प्रस्ताव : अपने नौ साल के कार्यकाल में पीएम मोदी दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेंगे. 2018 में मोदी ने अपने पहले अविश्वास प्रस्ताव में जीत दर्ज की थी. स्पीकर सुमित्रा महाजन ने सभी विपक्षी सदस्यों के नाम बताए थे, जिन्होंने इसी तरह का अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था और कहा था कि तेलुगु देशम पार्टी के केसिनेनी श्रीनिवास अपना प्रस्ताव लाएंगे क्योंकि उनका नाम लॉटरी में आया था. 12 घंटे की जोरदार बहस के बाद मोदी सरकार ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव को 199 वोटों से हरा दिया. कुल 126 सदस्यों ने प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि 325 सांसदों ने इसे खारिज कर दिया. इस बहस का सबसे यादगार लमहा वो था जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भाषण देने के बाद प्रधानमंत्री को गले लगा लिया था.

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Last Updated : Jul 27, 2023, 5:38 PM IST
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