रायपुर: "हर रोज गिर कर भी मुकम्मल खड़े हैं..ए जिंदगी देख मेरे हौसले तुझसे भी बड़े हैं." शायरी की ये पंक्तियां रायपुर की इन बच्चियों पर सटीक बैठती है, जो संसाधनों की कमी के बावजूद अपने हौसलों के दम पर लंबी उड़ान भरने की जद्दोजहद में लगी हुई (These girls of Raipur practice Malkhamb on tree )हैं.
दरअसल, हम बात कर रहे हैं राजधानी रायपुर के नयापारा स्थित सरस्वती कन्या शाला के उन छात्राओं की जो देश के प्राचीन माने जाने वाली खेल मलखंभ की कला सीखने में जुटी हुई हैं. रोप मलखंब खेल के प्रति इनकी दीवानगी इतनी है कि बिना स्टैंड के रोप को स्कूल के एक बड़े पेड़ की शाखा में बांधकर यह लगातार अभ्यास करती रहती हैं. अभ्यास के दौरान ऊंचाई से गिरने पर कई बार इन बच्चियों को चोटें भी आई है. बावजूद खेल के प्रति इनका जुनून इतना है कि मुस्कुराकर फिर से ये अभ्यास में जुट जाती हैं.
नारायणपुर के बच्चों को देख मलखंब करने की ठानी: इन छात्राओं की मानें तो वे पिछले चार साल से मलखंब की प्रैक्टिस कर रही हैं. इन बच्चों ने सबसे पहले पुलिस परेड ग्राउंड में नारायणपुर के बच्चों को मलखंभ करते देखा था. उसके बाद स्कूल की अपनी स्पोर्ट्स टीचर से मलखंब सीखने की जिद करने लगी. बच्चों की मलखंब के प्रति दीवानगी देख शिक्षिका ने मलखंब का अभ्यास कराना शुरू कर दिया. इन्हें प्रशिक्षक पुरिन्दर कोसरिया हर रोज प्रैक्टिस कराते हैं.
पुराने पेड़ की शाखाओं पर करती है अभ्यास: इनके पास संसाधनों की कमी है. जिसकी वजह से ये बच्चे स्कूल परिसर में स्थित पुराने पेड़ की मूर्ति शाखा पर ही रास्ता बांध नीचे मेड बिछाकर जमीन से 15 फीट ऊपर अभ्यास शुरू करती हैं.
संसाधनों की कमी से जूझ रहे खिलाड़ी: मलखंब की खिलाड़ी पायल कहती हैं, " हम लोग करीब 20 लड़कियां हैं, जो मलखम्ब की प्रैक्टिस करते हैं." वहीं, खिलाड़ी प्रतिभा जोगी बताती हैं, "पहले हमारे पास रस्सी भी नहीं था. हम लोग नॉर्मल रस्सी से रोप मलखम्ब की प्रैक्टिस करते थे. कुछ समय बाद टीचर ने मलखम्ब में इस्तेमाल किए जाने वाली रस्सी मंगाई. चूंकि हमारे पास कुछ सुविधा नहीं है. ऐसे में पेड़ में रस्सी को बांधकर हम लोग प्रैक्टिस करते हैं."
सुबह पांच बजे से शुरू हो जाती है प्रैक्टिस: इस विषय में खिलाड़ी साक्षी पारधी कहती है, "रोजाना सुबह 5 बजे स्कूल पहुंच जाते हैं. यहां हर रोज प्रैक्टिस होती है. सबसे पहले हम लोग एक्सरसाइज करते हैं. एक्सरसाइज पूरी होने के बाद रोप मलखम्ब किया जाता है. इसमें रस्सी के सहारे ही पद्मासन नटराज आसन और पश्चिम उत्तर आसन को आसानी से करने की प्रैक्टिस करते हैं. रोजाना पेड़ पर रोप टांगकर प्रैक्टिस करते हैं. यदि हमें संसाधन मिल जाएंगे तो हम बेहतर कर सकते हैं." वहीं, इस विषय में सीमा साहू कहती है, "मलखम्ब बहुत पुराना गेम है. क्योंकि इसे पुरुष प्रधान खेल माना जाता था. लेकिन धीरे-धीरे यह स्कूल खेल में भी शामिल हो गया. हमारे बच्चों ने जब नारायणपुर के बच्चों को देखा. उसके बाद हमने भी सोचा कि हम भी बच्चों को ट्रेनिंग दे. हालांकि सुविधा की कमी है. उसके बाद भी गेम्स को स्टार्ट करने की सोची. आगे जैसा साधन होते जाएगा. वैसा हमारे बच्चे प्रदर्शन करते जाएंगे. हम पेड़ में रोप लगाकर बच्चों को प्रैक्टिस कराते हैं. यदि शासन-प्रशासन से मदद मिलती तो हम अधिक से अधिक बच्चों को तैयार कराते."
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संसाधनों की है कमी: खिलाड़ियों की माने तो इनके पास ढंग का मैट भी नहीं है. ये खिलाड़ी कई बार 15 फीट ऊंचाई से गिर चुके हैं. इन्हें चोंटे भी आई है. लेकिन इनका जज्बा कम नहीं हुआ. मैट नहीं होने पर इन बच्चों ने जमीन पर पतला गद्दा बिछा रखा है. चूंकि संसाधनों के अभाव से जूझ रहे खिलाड़ियों की खबर दूरस्थ अंचलों से तो आती ही रही है, लेकिन राजधानी में इस तरह की खबर शासन-प्रशासन की अनदेखी को बयां कर रहा है.