रायपुर: विश्व आदिवासी दिवस के बहाने आदिवासियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराते हुए राजनीतिक दलों को चिंता में डाल लिया है. सर्व आदिवासी समाज की ओर से विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतारने का ऐलान किया गया है. छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की स्थिति, पहले की और वर्तमान सरकार को लेकर वो क्या सोचते हैं, इस पर सर्व आदिवासी समाज के प्रदेश अध्यक्ष अरविंद नेताम ने खुलकर ईटीवी भारत से बातचीत की. आगामी चुनाव में आदिवासी समाज की क्या भूमिका रहेगी और नक्सल समस्या के निदान पर अपना नजरिया भी साझा किया.
अरविंद नेताम कांग्रेस से दे सकते हैं इस्तीफा: छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम बुधवार को सर्व आदिवासी समाज को कार्यक्रम में शामिल हुए. उन्होंने इंडोर स्टेडियम में आयोजित विश्व आदिवासी दिवस के कार्यक्रम में बड़ा संकेत दिया. उन्होंने कहा कि मेरा इस्तीफा तैयार है. नेताम की ये बात इस बात की ओर इशारा कर रही है कि वे कांग्रेस पार्टी छोड़ सकते हैं. बता दें कि 4 बार के सांसद रहे अरविंद नेताम इंदिरा गांधी और नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री रहे हैं. 1996 में वे इससे पहले भी दो बार कांग्रेस से अलग हुए थे. लेकिन कुछ सालों बाद वे फिर कांग्रेस में लौट आए थे.
सवाल : आज विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है लेकिन क्या आप मानते हैं कि आदिवासियों को उनका हक मिल सका है ?
जवाब : शिव प्रसंग में 1994 में 9 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व आदिवासी दिवस के रूप मनाए जाने का निर्णय लिया था. उसके बाद से प्रतिवर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जा रहा है. उसके पीछे यही भावना थी कि दुनिया में आदिवासी समाज के साथ न्याय नहीं हो रहा है. जो जल जंगल और जमीन कभी आदिवासियों का सबकुछ था, अब उसके छिन जाने का खतरा बढ़ गया है. मानव अधिकारों, परंपराओं, संस्कृति, भाषा खतरे में है. उसे बचाने के लिए विश्व आदिवासी दिवस मनाने की घोषणा की गई थी, जिससे समाज में जागृति आई है. लेकिन इसके लिए कोई भी सरकार गंभीर नहीं है.
सवाल : कहा जाता है कि पूर्ववर्ती सरकार ने आपकी मांगों को अनसुना किया था, जिसके कारण सत्ता परिवर्तन हुआ, वर्तमान सरकार का आपकी मांगों को लेकर क्या रवैया है?
जवाब : छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य होते हुए आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया गया. आज सर्व आदिवासी समाज के गठन को लगभग 25 साल हो रहे हैं. इस मंच के माध्यम से आदिवासियों के अधिकार और मांगों को हम सरकार तक रखते रहे हैं. लेकिन आश्चर्य की बात है कि अब तक पूर्वर्ती और वर्तमान दोनों सरकारों ने इस गंभीरता से नहीं लिया, जो काफी दुखद है. आज भी जब समाज ने चुनावी राजनीति में उतरने का तय किया, इसमें समाज की कोई ऐसी मंशा नहीं है. मैं व्यक्तिगत तौर पर भी इसके पक्ष में नहीं हूं कि समाज को चुनाव में उतारा जाए. लेकिन कहीं सुनवाई ना हो तो कहां जाएंगे.
सवाल : जिन उद्देश्यों के साथ आपने सत्ता परिवर्तन किया था, क्या वह उद्देश्य आज भी पूरा नहीं हो पाया है?
जवाब : उद्देश्य तो पूरा हुआ नहीं, बल्कि उल्टा यह देखने को मिला है कि भारत सरकार ने 1994 में जो पेसा कानून बनाया था, उसके पीछे बड़ा उद्देश्य था. उस दौरान 1991 में उदारीकरण नीति लाई गई. हम समझ गए थे यह खतरा आदिवासी इलाके के लिए आने वाला है. आदिवासी इलाके के जितने संसाधन जल जंगल जमीन हैं, उसकी लूटमार कॉर्पोरेट घराने के लोग सरकार से मिलकर करेंगे. उसे ध्यान में रखते हुए पेसा कानून बनाया गया. उसमें समाज को भी ताकत दिया गया. वह इस सरकार ने खत्म कर दिया है. जल जंगल जमीन से अधिकार को खत्म कर दिया, जिसकी वजह से समाज को यह चिंता सताने लगी है कि अब हमारा अस्तित्व बना रहेगा या नहीं. इसे लेकर सरकार कुछ सोच नहीं रही है. इसलिए आज यह नौबत आई है.
सवाल : ऐसे पांच कौन से कारण है जिस वजह से आदिवासी समाज सरकार से नाराज है?
जवाब : जल जंगल जमीन पर जो अधिकार समाज का था, उसे खत्म कर दिया. दूसरी बात जो संवैधानिक अधिकार है, उसका पालन नहीं किया जा रहा है. तीसरा जितने भी आंदोलन हो रहे हैं सरगुजा आंदोलन हो, कोयला खदान हो, कानून के खिलाफ होकर खुद सरकार खनन कार्य करवा रही है. बस्तर के 20- 25 गांव में साल भर से आंदोलन हो रहे हैं, सिलगेर में ढाई साल से आंदोलन हो रहा है. अबूझमाड़ जैसे इलाके में आंदोलन हो रहे हैं. यह आंदोलन आखिर क्यों हो रहे हैं, यह आदिवासी समाज और सरकार के लिए चिंता का विषय है.
सवाल : छत्तीसगढ़ की ऐसी कितनी विधानसभा सीटें हैं जिस पर आदिवासियों का कब्जा है या फिर उन सीटों को आदिवासी समाज प्रभावित करता है?
जवाब : 29 रिजर्व सीट है, बाकी जनरल सीट हैं. 29 सीटों पर उम्मीदवार उतरेंगे. इसके अलावा जनरल सीट भी है, जहां आदिवासी समाज की काफी तादात है. 20 हजार से 80 हजार तक मतदाता है. वहां भी उम्मीदवार उतरेंगे. यदि अन्य समाज भी जनरल सीट से हमारे बैनर पर लड़ना चाहे तो उनका हम स्वागत करेंगे. चुनाव लड़ना सामाज ने तय कर लिया है. यह हमारी मजबूरी है. मजबूर होकर हम चुनाव लड़ रहे हैं.
सवाल : छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या की क्या स्थिति है?
जवाब : इस समस्या पर केंद्र और राज्य दोनों सरकार गंभीर नहीं है. यदि सरकारें यह सोचती हैं कि हम बंदूक की नोक पर राजनीतिक विचारधारा को खत्म कर देंगे, यह दुनिया में कहीं नहीं हुआ. गन और बुलेट से कंट्रोल कर सकते हो, एक राजनीतिक विचार फिर पैदा हो जाते हैं. ऐसे नक्सल समस्या के बुनियादी कारणों पर जाने की कोशिश सरकारें नहीं करती हैं. नक्सल समस्या पैदा क्यों हुई, उसका कारण क्या है, इस पर आज तक किसी भी सरकार ने विचार नहीं किया.
सवाल : ऐसे में नक्सल समस्या का समाधान क्या है ?
जवाब : पहले नक्सल समस्या के कारण पर जाना चाहिए. फिर उसके हिसाब से प्लानिंग कर कार्यक्रम बनने चाहिए. आप कारणों पर नहीं जा रहे और सिर्फ पैसा खर्च कर रहे हैं. इसलिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था हम 100 रुपये को भेजते हैं तो मुश्किल से 15 रुपये पहुंचता है. 85 रुपया लूट खसोट में चला जाता है.
सवाल : पहले जो नक्सली थे वे जल जंगल जमीन की लड़ाई लड़ते थे, लेकिन आज उन पर पैसे के लेनदेन, वसूली सहित दूसरे आरोप लग रहे हैं?
जवाब : यह बात सही है कि पहले के नक्सली आंदोलन और अब के आंदोलन में बुनियादी फर्क हो गया है. लेकिन आंदोलन तो है, उसके कारणों पर सरकार को जाना चाहिए. उसका इलाज करना चाहिए. नक्सली बात को लेकर बहुत सी पुस्तक लिखी गई है. इसमें पत्रकार सामाजिक कार्यकर्ता रिटायर्ड पुलिस अधिकारी शामिल हैं. उन्हें पढ़िए, उसके हिसाब से केंद्र और राज्य सरकार को अध्ययन कर प्लानिंग करनी चाहिए.
सवाल : छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या का चुनाव और वोट पर क्या प्रभाव पड़ता है. नक्सली के मामले को लेकर पूर्ववर्ती रमन सरकार और वर्तमान की भूपेश सरकार में किसने बेहतर काम किए हैं?
जवाब : नक्सल समस्या का चुनाव और वोट पर कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है. वहीं बात की जाए तो देश में पाकिस्तान या चीन बॉर्डर पर जितने पैरामिलिट्री फोर्स लगे हैं, उससे ज्यादा फोर्स बस्तर में लगी हुई है और लगाने की जरूरत है. यह कोई मापदंड नहीं है. पैरामिलिट्री ज्यादा लगाएंगे तो बाद में सिर्फ पैरामिलिट्री फोर्स ही नजर आएगी और कोई नजर नहीं आएगा. बंदूक की नोक से समस्या का समाधान नहीं कर सकते. इसे मैं गलत एप्रोज मानता हूं. ऐसा नहीं है कि इसका सहारा जरूरी है, लेकिन यही एक सलूशन या एक विकल्प नहीं है.
सवाल : विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर क्या चाहते हैं कि आगामी दिनों में किस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए ?
जवाब : कल तक सरकार हमारी लड़ाई लड़ती थी, अब उसे भूल जाओ. यदि आज भी समाज यह सोचता है कि हमारी लड़ाई सरकार लड़ेगी तो उसे भूल जाए. यदि जिंदा रहना है तो अब समाज को खुद अपनी लड़ाई लड़नी होगी, नहीं तो अस्तित्व खतरे में है.