रायपुर: संगीत क्या है और इसकी शुरूआत किस लक्ष्य से की गई थी, ये लोग आज भी नहीं समझ पाये हैं. आज के दौर में महज मनोरंजन के लिए ही संगीत को सुना जाता है. लेकिन क्या आपको पता है कि क्यों और कैसे संगीत की शुरूआत हुई थी? पहले किस तरह के वाद्य यंत्र हुआ करते थे? उन वाद्य यंत्रों का उपयोग कैसे किया जाता था? आज के समय में क्या पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं भी या लुप्त हो चुके हैं. इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं. हालांकि रायपुर के ऐतिहासिक महंत घासीदास संग्रहालय (Mahant Ghasidas museum in Raipur) में लुप्त हो चुके वाद्ययंत्र आज भी मौजूद (Extinct ancient instruments exist in Mahant Ghasidas museum )हैं.
ढोल नगाड़े या अन्य पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप पर थिरकते छत्तीसगढ़ के वनवासियों की तस्वीर सुकून देने वाली होती है. मगर आप यह जानकर हैरान होंगे कि वनांचल के कई पारंपरिक वाद्ययंत्र विलुप्त होने की कगार पर हैं. हालांकि प्रदेश के कुछ संगीत प्रेमी इसे सहेजने के लिए भी कार्य कर रहे हैं. छत्तीसगढ़ संस्कृति विभाग ने भी इन वाद्ययंत्रों को इकट्ठा कर रायपुर के ऐतिहासिक महंत घासीदास संग्रहालय (Chhattisgarh Mahant Ghasidas Museum) में उचित स्थान दिया है. यहां मौजूद कई वाद्ययंत्र तो ऐसे हैं जिनका उपयोग वनवासी पुरातन समय से जंगली जानवरों को भगाने या शिकार के लिए जानवरों को अपने करीब लाने के लिए किया करते थे.
यह भी पढ़ेंः छत्तीसगढ़ में बंपर धान खरीदी: किसानों की जेब में पहुंची 20 हजार करोड़ की राशि, प्रदेश की अर्थव्यवस्था में आएगी तेजी
राजनांदगांव के महाराजा महंत घासीदास ने की थी स्थापना
देशभर के 10 ऐतिहासिक संग्रहालयो में से एक महंत घासीदास संग्रहालय ने छत्तीसगढ़ के लोक कला, संस्कृति और पुरातन सभ्यता को अपने अंदर समाहित कर रखा है. इतिहासकारों की मानें इस ऐतिहासिक संग्रहालय की स्थापना राजनांदगांव के महाराजा महंत घासीदास ने 1875 में किया था जबकि कुछ इतिहासकार तो इसे और भी पुरातन मानते हैं. यहां आने वाले लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र परिसर में संग्रहित कर रखे ऐसे वाद्ययंत्र हैं, जिन्हें पुरातन काल में वनवासी अपने शिकार के लिए या फिर जंगली जानवरों को भगाने के लिए इस्तेमाल किया करते थे. यहां रखे प्रमुख वाद्य यंत्रों में सिंह बाजा, दोहरी बांसुरी, गोपी बाजा, एकतारा, खजेरी, तंबूरा, नागदा, देव नागदा, मारनी ढोल, माड़िया ढोल, अकुम, तोड़ी, तोरम, मोहिर, धुरवा ढोल, मांदरी, चरहे, मिरगीर ढोल, देव मोहिर हैं. इनमें से ज्यादातर वाद्ययंत्रों का नाम संगीत प्रेमी ही नहीं बल्कि संगीत में रुचि रखने वाले लोग भी शायद ही जानते होंगे.
कई पौराणिक वस्तुएं मौजूद
इस विषय में जानकार राहुल सिंह कहते हैं कि रायपुर में जो महंत घासीदास संग्रहालय है वह देश के सबसे पुराने संग्रहालय में से एक है. वहां जो शिलालेख है उसमें संग्रहालय बनने का जिक्र 1875 का है, लेकिन उससे भी पुराने कुछ रायपुर शहर के नक्शे हैं. उन नक्शे अष्टकोणीय संग्रहालय को दिखाया गया है. यह काफी पुराना संग्रहालय है और इस संग्रहालय के इतिहास के साथ एक रोचक तथ्य भी है. तथ्य के अनुसार मध्य प्रदेश राज्य के गठन के समय जो महत्वपूर्ण संग्रहालय था वह रायपुर का ही संग्रहालय था. ये संग्रहालय बहुत पुराना संग्रहालय है, जहां 15000 से भी ज्यादा मूर्तियां, सिक्के, पांडुलिपिया, ट्राइबल एंटीक्विटी यह सारी चीजें मौजूद है.
यह भी पढ़ें: समूचे छत्तीसगढ़ में नहीं हो सकती है शराबबंदी- पीसीसी चीफ मोहन मरकाम
जानवरों को भगाने और आकर्षित करने के लिए होता था इस्तेमाल
ज्यादातर वाद्ययंत्र ऐसे हैं जो पारंपरिक हैं. ये वाद्ययंत्र स्थानीय स्तर पर लोगों द्वारा अपने हाथों से बनाए जाते थे. संगीत ध्वनि, ताल, लय और सुर से मिलकर ही बनता है. ऐसा बिल्कुल देखने को मिला है कि पहले के समय ध्वनि का इस्तेमाल लोग अपने निजी जीवन और गाने बजाने में करते थे. क्योंकि उस समय के कुछ रॉक पिक्चर्स मिले हैं, जिसमें आदिवासी नृत्य करते हुए नजर आ रहे हैं. इस बात की भी संभावना बहुत स्पष्ट रूप से व्यक्त की जा सकती है कि आदिकाल में जंगली जानवरों को अपने घर से या इलाकों से दूर भगाने के लिए ध्वनि कर इस्तेमाल किया जाता था. जो कि अभी भी देखा जा सकता है. मौजूदा समय में हाथियों को भगाने के लिए लोग पटाखों का इस्तेमाल करते हैं. शिकार को आकर्षित करने के लिए भी पुराने समय में लोग ध्वनि का इस्तेमाल किया करते थे. बांसुरी की मदद से, नगाड़ों की मदद से और अलग-अलग वादयंत्रों की मदद से उस समय लोग जानवरों और पक्षियों की आवाज निकालते थे, जिससे जंगलों में उनका शिकार किया जा सके और आगे जाकर इन्हीं ध्वनि को नियमित कर संगीत के रूप में पिरोया गया जो कि आज हम लोग सुनते हैं.
ये चीजें भी हैं मौजूद
रायपुर महंत घासीदास संग्रहालय में अनेक ऐसे चीजें हैं, जिसे शायद ही कोई व्यक्ति अपने जीवन काल में देखा हो. लेकिन इस संग्रहालय में आकर्षण का केंद्र वह वाद्ययंत्र है, जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति को दर्शाते हैं. इन वाद्ययंत्रों में कुछ वाद्ययंत्र ऐसे भी हैं, जिसका इस्तेमाल पुरातन समय में जानवरों को आकर्षित करने के लिए और जानवरों का शिकार करने के लिए किया जाता था. साथ ही कुछ ऐसे वाद्ययंत्र हैं जो पूजा के समय भगवान को लुभाने के लिए इस्तेमाल किये जाते थे. इसके अलावा संग्रहालय में राजा महाराजाओं के समय में इस्तेमाल किए जाने वाले तलवार, 15वीं शताब्दी के आभूषण, मूर्तियां, 15वीं शताब्दी के पहले के और ब्रिटिश काल में बने सिक्के भी मौजूद है.