कांकेर : बस्तर की आदिवासियों की संस्कृति और परंपरा (Tribal culture and tradition) विश्व विख्यात है. उन्हीं में से एक परंपरा है जातरा. बरसात के मौसम में आदिवासी भादो जातरा (Bhado Jatra) मनाते हैं. बस्तर के राजा-रजवाड़ों के समय से चला आ रहा यह मेला भांदो मेला के रूप में प्रतिवर्ष भादो माह में आयोजित किया जाता है. जिसमें क्षेत्र के सभी देवी, देवता, आंगा, डांग, डोली के साथ सिरहा पुजारी मांझी और गायता सम्मिलित होते हैं.
कांकेर जिले जिला मुख्यालय से 45 किमी दूर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में आदिवासियों ने प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी भादो जातरा मनाया. इस दिन आदिवासी आमाबेड़ा के भंगाराम मंदिर में अपनी उपस्थिति देते हैं. इसके बाद विधि-विथान से पूजा-अर्चना कर आमाबेड़ा के मेलाभांठा में परिक्रमा करने जाते हैं. दूसरे दिन के लिए सेवा अर्चना कार्य की रूप-रेखा बनाकर सभी अपने गांव लौट जाते हैं. दूसरे दिन पूरे परगना क्षेत्र आमाबेड़ा के प्रमुख लोग मांझी, गायता, सिरहा, पुजारी पुनः भंगाराम मंदिर में उपस्थित होकर सभी देवी देवता, आंगा, डांग, डोली, का विधि-विधान से पूजा करते हैं. यह कार्य दिन भर चलता है.
क्षेत्र के प्रमुखों के अनुसार यह भादो मेला बस्तर के रजवाड़ा काल से चला आ रहा है. इसका मुख्य उद्देश्य क्षेत्र के देवी-देवता और शक्तियों की पूजा कर इंसान एवं मवेशियों में होने वाले रोग-महामारी के साथ फसलों में कीट-पतंगों को अपने क्षेत्र से भगाना होता है. जिसे क्षेत्र के लोग पूरी आस्था के साथ निर्वहन करते आ रहे हैं. इस परम्परा में लोगों की अटूट आस्था भी है. इस जातरा का मकसद गांव में फैल रही बीमारियों और अनैतिक कार्यों को तेल-हल्दी का प्रतीक मानकर वो अपने देवी के समक्ष प्रस्तुत कर फेंकते हैं. उनकी मान्यताओं के अनुसार इस प्रक्रिया का तात्पर्य गांव में खुशहाली लाना है.
आमाबेड़ा में भादो जातरा के दौरान पूर्व विधायक भोजराज नाग जमकर झूमे. विधायक होते हुए भी भोजराज नाग को देवी आती थी और वो जमकर झूमते थे.