बिलासपुर: अचानकमार के बैगा आदिवासियों के मसीहा कहे जाने वाले प्रोफेसर पीडी खेड़ा 23 सितंबर 2019 को दुनिया से रुखसत हो गए थे. आज उनकी पुण्यतिथि है. खेड़ा साहब ने पूरा जीवन विशेष आदिवासी बैगा जनजाति के लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक स्तर को बढ़ाने में गुजार दिया. प्रोफेसर पीडी खेड़ा ने 35 साल से अधिक अपनी जिंदगी को वनवासियों के कल्याण में बिताया है.
उन्होंने आदिवासी बच्चों की पढ़ाई के लिए अभ्यारण्य शिक्षण समिति की शुरूआत की थी. प्रोफेसर साहब को स्थानीय लोग "दिल्ली वाले साहब" के नाम से पुकारते थे. आज ही के दिन उन्होंने बिलासपुर के अपोलो अस्पताल में अंतिम सांस ली थी. आइए जानते हैं प्रोफेसर प्रभुदत्त खेड़ा साहब के बारे में.
ऐसा रहा दिल्ली वाले साहब का जीवन
प्रोफेसर प्रभुदत्त खेड़ा का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर(वर्तमान पाकिस्तान) में 13 अप्रैल 1928 को हुआ था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब के झंग (वर्तमान पाकिस्तान) में हुई थी. पीडी खेड़ा साहब ने 1948-49 में दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए की डिग्री हासिल की और फिर गणित और मनोविज्ञान विषय में एमए की डिग्री भी प्राप्त किया है. उन्होंने साल 1969 में एमलिब की पढ़ाई भी पूरी की. साल 1971 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा. प्रोफेसर खेड़ा 1971 में हिंदू कॉलेज में बतौर रीडर काम किया. इस बीच उनके कई शोध भी प्रकाशित हुए.
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एक बार आए छत्तीसगढ़ फिर कभी नहीं लौटे
प्रोफेसर खेड़ा आधा दर्जन छात्रों में पीएचडी में मार्गदर्शक भी रहे हैं. इसी दौरान एक शैक्षणिक टूर पर छत्तीसगढ़ के अचानकमार में स्थित लमनी ग्राम पहुंचे. ग्राम लमनी में उन्होंने विशेष आदिवासी जनजाति बैगा लोगों के लिए उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक स्तर को बढ़ाने का काम किया. साल 1995 में उन्होंने प्राथमिक शाला शुरू की और इस तरह यहां के आदिवासियों के लिए बन गए दिल्ली वाले साहब. उन्हें यहां के स्थानीय वनवासियों के हृदय में विशेष स्थान मिला.
जीवन की पूरी कमाई लगाई आदिवासी उत्थान में
प्रोफेसर खेड़ा ने अपने स्कूल में पढ़ाने के लिए युवाओं को भी मौका दिया. अपनी पेंशन की पूरी रकम पिछड़े वनवासियों के कल्याण में लगा देते थे. उन्होंने 2014 में आवश्यकता देखते हुए अभ्यारण्य शिक्षण समिति का गठन किया. अपने स्कूल को ग्राम शिवतराई में आदिमजाति कल्याण विभाग की संचालित शाला से संबद्ध कराने में सफलता पाई.
प्रोफेसर पुरुस्कारों में यकीन नहीं करते थे. पुरुस्कारों को यह कहकर ठुकराया करते थे कि वो यह काम वाहवाही के लिए नहीं करते हैं. बड़े ही मानमनौव्वल के बाद उन्होंने महात्मा गांधी कार्यान्जलि पुरुस्कार को ग्रहण किया था. पूरी 25 लाख की राशि बैगाओं के कल्याण के लिए अभयारण्य शिक्षण समिति को दे दिया था. उनकी जीवनभर की कमाई के रूप में 51 लाख की पूंजी भी उन्होंने आदिवासी बच्चों के लिए वसीयत के रूप में छोड़ दी है.
वनवासियों के जीवन को अहम समझते थे प्रोफेसर
प्रोफेसर खेड़ा कहते थे कि वनवासियों से हमें सीखना चाहिए. उनका मानना था कि वन, वनौषधियों और मिट्टी को लेकर जितना वनवासी जानते हैं. उतना ज्ञान किसी के पास नहीं है. खेड़ा साहब का कहना था कि हम अनेकता में एकता की बात जब करते हैं तो फिर वनवासियों को उनके मूल स्वरूप में क्यों नहीं छोड़ना चाहते? वो अपनी ज्ञान बढाने के लिए खुद को आज़ाद रखना चाहते हैं. उन्हें शहरी संस्कृति से जोड़ना अच्छी बात नहीं है. ये निहायत स्वाभिमानी और संतोषी होते हैं. इन्हें उजाड़ने की नहीं इनसे सीखने की जरूरत है.
स्टेटलेस सोसाइटी पर यकीन रखते हैं वनवासी
खेड़ा साहब का मानना था कि वनवासी स्टेटलेस सोसाइटी में यकीन करते हैं. साल 1900 के अकाल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था कि भीषण अकाल में भी उन्होंने सरकारी मदद के बगैर ही जीवन गुजार दिया था, स्वाभिमानी लोग हैं, इनकी चाहत बस वन आजादी की है. ये जंगल में खुश रहते हैं और जंगलों को संरक्षित रखते हैं. ये वनसंस्कृति के हिमायती हैं. इनकी संस्कृति बिना मुद्रा के भी खुश रहने के लिए प्रेरित करती है. ऐसे कर्मण और निस्वार्थ भाव से आदिवासियों की सेवा करने वाले प्रोफेसर साहब को हमेशा याद किया जाएगा. ETV भारत भी उन्हें सलाम करता है.