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भारत में चुनावी मुद्दे के साथ कास्ट फैक्टर क्यों हावी रहता है, क्या कहते हैं जानकार - cg loksabha election 2018

राजनीतिक मामलों की जानकार डॉक्टर अनुपमा सक्सेना कहती हैं कि जातिगत मुद्दा जब विकास के मुद्दों पर हावी हो जाए तो यह अच्छा नहीं है.

चुनावी मुद्दों के साथ कास्ट फैक्ट
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Published : Apr 18, 2019, 9:34 PM IST

बिलासपुर : देश में इन दिनों चुनावी मौसम है. इस माहौल में देश के किसी भी सीट को लेकर अगर राजनीतिक बहस की जाए तो तमाम मुद्दों के साथ जातिगत समीकरणों पर प्रमुख रूप से चर्चा होती है. कुछ सीटों पर प्रत्याशी की जीत भी यही समीकरण तय करते हैं. आजादी के 7 दशक बीत गए लेकिन जाति का जिन्न हमारी राजनीति में जिंदा है.

चुनावी मुद्दों के साथ कास्ट फैक्ट

इस मुद्दे पर हमने बात की राजनीतिक मामलों की जानकार डॉक्टर अनुपमा सक्सेना से. अनुपमा कहती हैं कि जातिगत मुद्दा जब विकास के मुद्दों पर हावी हो जाए तो यह अच्छा नहीं है. हालांकि वे यह भी कहती हैं कि व्यक्तिगत आधार पर कुछ जातियां हमारे देश में भेदभाव की शिकार होती रही हैं, जिसे समय रहते आर्थिक विकास और शैक्षणिक विकास के माध्यम से ठीक किया जा सकता था, जो हुआ नहीं और जातिवाद की राजनीति सिर्फ एक राजनीतिक सामाजिक परिवर्तन के टूल के रूप में इस्तेमाल होने लगी.

'सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना जरूरी'
उनका कहना है कहा कि जबतक एक लोकनीति तैयार कर सामाजिक और आर्थिक विकास को पूरी ईमानदारी से अंजाम नहीं दिया जाता तबतक देश की राजनीति में जातिगत राजनीति स्वभाविक रूप से बनी रहेगी. खासकर ऐसे राज्यों में जहां कई दल एक साथ मुख्यधारा में होकर राजनीति को प्रभावित कर रही हैं, वहां सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना ज्यादा जरूरी है.

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में अनुपमा सक्सेना का कहना है कि सूबे में जाति एक महत्वपूर्ण फैक्टर तो है लेकिन उतना नहीं है जितना अन्य हिंदीभाषी राज्यों में है. प्रदेश में उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह सामाजिक रिफॉर्म के मूवमेंट उतने नहीं हुए हैं, जितने अन्य राज्यों में हुए हैं. वे कहती हैं कि इसके पीछे कारण यह है कि प्रदेश में जातिगत भेदभाव का स्तर अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है और भेदभाव का स्तर सीवियर लेवल पर नहीं है.

बिलासपुर : देश में इन दिनों चुनावी मौसम है. इस माहौल में देश के किसी भी सीट को लेकर अगर राजनीतिक बहस की जाए तो तमाम मुद्दों के साथ जातिगत समीकरणों पर प्रमुख रूप से चर्चा होती है. कुछ सीटों पर प्रत्याशी की जीत भी यही समीकरण तय करते हैं. आजादी के 7 दशक बीत गए लेकिन जाति का जिन्न हमारी राजनीति में जिंदा है.

चुनावी मुद्दों के साथ कास्ट फैक्ट

इस मुद्दे पर हमने बात की राजनीतिक मामलों की जानकार डॉक्टर अनुपमा सक्सेना से. अनुपमा कहती हैं कि जातिगत मुद्दा जब विकास के मुद्दों पर हावी हो जाए तो यह अच्छा नहीं है. हालांकि वे यह भी कहती हैं कि व्यक्तिगत आधार पर कुछ जातियां हमारे देश में भेदभाव की शिकार होती रही हैं, जिसे समय रहते आर्थिक विकास और शैक्षणिक विकास के माध्यम से ठीक किया जा सकता था, जो हुआ नहीं और जातिवाद की राजनीति सिर्फ एक राजनीतिक सामाजिक परिवर्तन के टूल के रूप में इस्तेमाल होने लगी.

'सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना जरूरी'
उनका कहना है कहा कि जबतक एक लोकनीति तैयार कर सामाजिक और आर्थिक विकास को पूरी ईमानदारी से अंजाम नहीं दिया जाता तबतक देश की राजनीति में जातिगत राजनीति स्वभाविक रूप से बनी रहेगी. खासकर ऐसे राज्यों में जहां कई दल एक साथ मुख्यधारा में होकर राजनीति को प्रभावित कर रही हैं, वहां सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना ज्यादा जरूरी है.

छत्तीसगढ़ के संदर्भ में अनुपमा सक्सेना का कहना है कि सूबे में जाति एक महत्वपूर्ण फैक्टर तो है लेकिन उतना नहीं है जितना अन्य हिंदीभाषी राज्यों में है. प्रदेश में उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह सामाजिक रिफॉर्म के मूवमेंट उतने नहीं हुए हैं, जितने अन्य राज्यों में हुए हैं. वे कहती हैं कि इसके पीछे कारण यह है कि प्रदेश में जातिगत भेदभाव का स्तर अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है और भेदभाव का स्तर सीवियर लेवल पर नहीं है.

Intro:इन दिनों चुनावी माहौल में देश के किसी भी सीट को लेकर अगर राजनीतिक बहस की जाय तो तमाम छोटे मोटे मुद्दों के बाबजूद जातिगत समीकरण प्रमुख रूप से उभर कर आता है । चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । आजादी के बाद से आज तक तमाम चुनावों में कमोबेश जातिगत समीकरण एक मुद्दा जरूर है । तो क्या राजनीतिक दलों ने जानबूझकर चुनावी राजनीतिक प्रक्रिया में जाति को शामिल करके रखा है ताकि जरूरी बुनियादी मुद्दों से आमलोगों को भटकाया जा सके या फिर सामाजिक परिवर्तन के दिशा में जाति के राजनीति का अपना एक सकारात्मक महत्व भी है । इन तमाम बिंदुओं पर आज हमसे खास बातचीत कीं हैं राजनीतिक मामलों की जानकार डॉक्टर अनुपमा सक्सेना ने...!


Body:राजनीतिक जानकार अनुपमा सक्सेना के मुताबिक जातिगत मुद्दा जब विकास के मुद्दों पर हावी हो जाय तो यह अच्छा नहीं है । लेकिन व्यक्तिगत आधार पर कुछ जातियां हमारे देश में भेदभाव की शिकार होती रही हैं जिसे समय रहते आर्थिक विकास और शैक्षणिक विकास के माध्यम से ठीक किया जा सकता था,जो हुआ नहीं और जातिवाद की राजनीति सिर्फ एक राजनीतिक सामाजिक परिवर्तन के टूल के रूप में इस्तेमाल होने लगी । इसलिए इस तरह की राजनीति को पूर्णतः नकारात्मक भी नहीं कहा जा सकता और देश के परिपेक्ष्य में अस्वभाविक भी नहीं । अनुपमा सक्सेना ने कहा कि जबतक एक लोकनीति तैयार कर सामाजिक और आर्थिक विकास को पूरी ईमानदारी से अंजाम नहीं दिया जाता तबतक देश की राजनीति में जातिगत राजनीति स्वभाविक रूप से बनी रहेगी । ख़ासकर ऐसे राज्यों में जहाँ कई दल एक साथ मुख्यधारा में होकर राजनीति को प्रभावित कर रही है वहां सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना ज्यादा जरूरी है । छत्तीसगढ़ के संदर्भ में अनुपमा सक्सेना का कहना है कि सूबे में जाति एक महत्वपूर्ण फैक्टर तो है लेकिन उतना नहीं है जितना अन्य हिंदीभाषी राज्यों में है । प्रदेश में उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह सामाजिक रिफॉर्म के मूवमेंट उतने नहीं हुए हैं जितने अन्य राज्यों में हुए हैं । इसके पीछे कारण यह है कि प्रदेश में जातिगत भेदभाव का स्तर अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है और भेदभाव का स्तर सीवियर लेवल पर नहीं है ।
bite... डॉ अनुपमा सक्सेना..राजनीतिक मामलों की जानकार
विशाल झा...... बिलासपुर


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