बिलासपुर : देश में इन दिनों चुनावी मौसम है. इस माहौल में देश के किसी भी सीट को लेकर अगर राजनीतिक बहस की जाए तो तमाम मुद्दों के साथ जातिगत समीकरणों पर प्रमुख रूप से चर्चा होती है. कुछ सीटों पर प्रत्याशी की जीत भी यही समीकरण तय करते हैं. आजादी के 7 दशक बीत गए लेकिन जाति का जिन्न हमारी राजनीति में जिंदा है.
इस मुद्दे पर हमने बात की राजनीतिक मामलों की जानकार डॉक्टर अनुपमा सक्सेना से. अनुपमा कहती हैं कि जातिगत मुद्दा जब विकास के मुद्दों पर हावी हो जाए तो यह अच्छा नहीं है. हालांकि वे यह भी कहती हैं कि व्यक्तिगत आधार पर कुछ जातियां हमारे देश में भेदभाव की शिकार होती रही हैं, जिसे समय रहते आर्थिक विकास और शैक्षणिक विकास के माध्यम से ठीक किया जा सकता था, जो हुआ नहीं और जातिवाद की राजनीति सिर्फ एक राजनीतिक सामाजिक परिवर्तन के टूल के रूप में इस्तेमाल होने लगी.
'सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना जरूरी'
उनका कहना है कहा कि जबतक एक लोकनीति तैयार कर सामाजिक और आर्थिक विकास को पूरी ईमानदारी से अंजाम नहीं दिया जाता तबतक देश की राजनीति में जातिगत राजनीति स्वभाविक रूप से बनी रहेगी. खासकर ऐसे राज्यों में जहां कई दल एक साथ मुख्यधारा में होकर राजनीति को प्रभावित कर रही हैं, वहां सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को दूर करना ज्यादा जरूरी है.
छत्तीसगढ़ के संदर्भ में अनुपमा सक्सेना का कहना है कि सूबे में जाति एक महत्वपूर्ण फैक्टर तो है लेकिन उतना नहीं है जितना अन्य हिंदीभाषी राज्यों में है. प्रदेश में उत्तरप्रदेश और बिहार की तरह सामाजिक रिफॉर्म के मूवमेंट उतने नहीं हुए हैं, जितने अन्य राज्यों में हुए हैं. वे कहती हैं कि इसके पीछे कारण यह है कि प्रदेश में जातिगत भेदभाव का स्तर अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है और भेदभाव का स्तर सीवियर लेवल पर नहीं है.