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SPECIAL: कोरोना काल में शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ी बेटियां, पढ़ाई हुई प्रभावित

वैश्विक महामारी कोरोना ने पूरी दुनिया में कई तरह की बहस को जन्म दिया है. हर स्तर पर चीजें बड़ी तेजी से बदलती नजर आ रहीं हैं. राजनैतिक और सामाजिक बदलाव के नजरिए से भी हमारे दृष्टिकोण अब बदलते नजर आ रहे हैं, लेकिन क्या वर्तमान चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में बालिका शिक्षा में बदलाव आया है या फिर तुलनात्मक रूप से बालिकाओं की शिक्षा और ज्यादा कमजोर हुई है. ईटीवी-भारत ने इन मुद्दों को टटोलने की कोशिश की है.

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कोरोना काल में पिछड़ी बेटियां
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Published : Aug 27, 2020, 1:06 AM IST

Updated : Aug 27, 2020, 3:08 PM IST

बिलासपुर: कोरोनाकाल में शैक्षणिक गतिविधियां पूरी तरह ठप हैं. इन परिस्थितियों में ईटीवी-भारत की टीम सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाली छात्राओं के पास पहुंची और उनसे वर्तमान में उनकी शैक्षणिक गतिविधियों को जानने की कोशिश की. छात्राओं ने ऑनलाइन एजुकेशन और वर्चुअल क्लासेज को लेकर जो जानकारी दी, वो बालिकाओं के शिक्षा के लिहाज से बेहद शर्मनाक है.छात्राओं का कहना है कि उन्हें उनके घर में स्मार्टफोन उपलब्ध नहीं करवाया जाता है, जिससे वो ऑनलाइन क्लासेज को अटेंड कर सकें. अमूमन ये बच्चे कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं. कोरोनाकाल में इन बच्चों के माता-पिता आर्थिक रूप से चरमरा चुके हैं, जिसका खामियाजा इन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है.

कोरोना काल में पिछड़ी बेटियां

ये बच्चे जरूरी शैक्षणिक गतिविधियों से दूर होते चले जा रहे हैं. शिक्षकों ने भी बताया कि ऑनलाइन क्लास अगर लगाई भी जाती है तो इंटरनेट की तकनीकी बाध्यता और छात्राओं के बीच स्मार्ट फोन नहीं होने के कारण ये छात्रा क्लास से दूर रहतीं हैं और हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. सामान्य तौर पर घर में स्मार्ट फोन की उपलब्धता कम रहती है, लिहाजा फोन घरेलू इस्तेमाल तक सीमित रहता है. एक अनुमान के मुताबिक महज 10 फीसदी छात्राएं ऑनलाइन क्लासेज में शामिल हो पा रहीं हैं.

SPECIAL: कोरोना संकट के दौरान बाल आश्रम में कैसी है व्यवस्था, सुरक्षा का कितना रखा जा रहा ख्याल ?

बेटियों को मिले समान अवसर

प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि हमारा समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान मान्यताओं वाला समाज है. समाज में पितृ सत्तात्मक सोच गहराई तक रची बसी है. इसलिए जब कभी भी देश में स्थिति नाजुक होती है और संसाधनों की व्यापक कमी आती है तो इसका खामियाजा महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है. अभी कोरोना महामारी के कारण बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी और महंगाई जैसी समस्या विकराल हो चुकी है.

ऐसे माहौल में संसाधनों का लाभ अधिक किसे मिले और जब मामला चॉइस का आता है तो महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले पिछड़ जाती हैं. हमारा समाज अब भी बेटों को बेटियों के मुकाबले पारिवारिक भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त मानता है. इसके अलावा वंश चलाने से लेकर तमाम मान्यताओं में पुरुषवादी मानसिकता अब भी हावी है. इसलिए कोरोनाकाल में बेटों के मुकाबले बेटियों के पिछड़ने की बातें अस्वभाविक बिल्कुल नहीं हैं.

सोच बदलने की जरुरत: अनुपमा सक्सेना

अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि ना सिर्फ ई-एजुकेशन बल्कि अब ई-कामर्स, ई-एग्रीकल्चर, ई-हेल्थ ऐसे तमाम क्षेत्रों में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की भरपूर भागीदारी होनी चाहिए. लेकिन फिर चाहे स्मार्टफोन के यूज करने में, इंटरनेट से जुड़ने या फिर आईटी स्किल की बात आती है तो हर क्षेत्र में महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले कमतर हैं. इसका मतलब यह है कि महिलाओं को जितनी डिजिटल स्पेस मिलनी चाहिए वो उन्हें मिल नहीं रही है. सरकार को चाहिए कि वो इस गैप को कम करे और हमारा समाज भी गैर बराबरी की मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं के हक में अपनी आवाज बुलंद करे.

देश में इंटरनेट से जुड़े कुछ आंकड़े:

इंटरनेट एन्ड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक

  • देश में इंटरनेट की पहुंच महज 36 फीसदी जनसंख्या तक है.
  • देश के कुल इंटरनेट यूज में 67 फीसदी पुरुष यूजर्स हैं.
  • शहरी क्षेत्र में 62 प्रतिशत पुरुष और 38 प्रतिशत महिला इंटरनेट यूजर हैं.
  • ग्रामीण क्षेत्र में 72 फीसदी पुरुष और महज 28 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट यूजर हैं.
  • जेंडर के हिसाब से देश में वर्तमान समय तक 60 फीसदी पुरुष और 40 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट यूजर अनुमानित माना गया है.
  • नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (NSSD) की रिपोर्ट के मुताबिक आईटी यूज में ग्रामीण महिलाएं पुरुषों के मुकाबले महज 33.7 प्रतिशत हैं.
  • देश में 34 % पुरुष और 15 % महिलाएं स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं.
  • इंटरनेट पेनेट्रेशन के आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ का आंकड़ा महज 30 प्रतिशत है.

बड़े बदलाव की जरुरत

बहरहाल तमाम आंकड़ें बतातें हैं कि कोरोनाकाल में देश को फिर से पटरी पर लाने के लिए हम सबको कड़ी मेहनत करनी होगी. विशेषकर छात्राओं के ऑनलाइन एजुकेशन में गति लाने के लिए नीतिगत और व्यापक स्तर पर बदलाव लाने की जरूरत भी है और समाज को भी पुरुषवादी मानसिकता से ऊपर उठकर लैंगिक समानता की अवधारणा को जमीन पर साकार करना होगा.

बिलासपुर: कोरोनाकाल में शैक्षणिक गतिविधियां पूरी तरह ठप हैं. इन परिस्थितियों में ईटीवी-भारत की टीम सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाली छात्राओं के पास पहुंची और उनसे वर्तमान में उनकी शैक्षणिक गतिविधियों को जानने की कोशिश की. छात्राओं ने ऑनलाइन एजुकेशन और वर्चुअल क्लासेज को लेकर जो जानकारी दी, वो बालिकाओं के शिक्षा के लिहाज से बेहद शर्मनाक है.छात्राओं का कहना है कि उन्हें उनके घर में स्मार्टफोन उपलब्ध नहीं करवाया जाता है, जिससे वो ऑनलाइन क्लासेज को अटेंड कर सकें. अमूमन ये बच्चे कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं. कोरोनाकाल में इन बच्चों के माता-पिता आर्थिक रूप से चरमरा चुके हैं, जिसका खामियाजा इन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है.

कोरोना काल में पिछड़ी बेटियां

ये बच्चे जरूरी शैक्षणिक गतिविधियों से दूर होते चले जा रहे हैं. शिक्षकों ने भी बताया कि ऑनलाइन क्लास अगर लगाई भी जाती है तो इंटरनेट की तकनीकी बाध्यता और छात्राओं के बीच स्मार्ट फोन नहीं होने के कारण ये छात्रा क्लास से दूर रहतीं हैं और हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. सामान्य तौर पर घर में स्मार्ट फोन की उपलब्धता कम रहती है, लिहाजा फोन घरेलू इस्तेमाल तक सीमित रहता है. एक अनुमान के मुताबिक महज 10 फीसदी छात्राएं ऑनलाइन क्लासेज में शामिल हो पा रहीं हैं.

SPECIAL: कोरोना संकट के दौरान बाल आश्रम में कैसी है व्यवस्था, सुरक्षा का कितना रखा जा रहा ख्याल ?

बेटियों को मिले समान अवसर

प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि हमारा समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान मान्यताओं वाला समाज है. समाज में पितृ सत्तात्मक सोच गहराई तक रची बसी है. इसलिए जब कभी भी देश में स्थिति नाजुक होती है और संसाधनों की व्यापक कमी आती है तो इसका खामियाजा महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है. अभी कोरोना महामारी के कारण बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी और महंगाई जैसी समस्या विकराल हो चुकी है.

ऐसे माहौल में संसाधनों का लाभ अधिक किसे मिले और जब मामला चॉइस का आता है तो महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले पिछड़ जाती हैं. हमारा समाज अब भी बेटों को बेटियों के मुकाबले पारिवारिक भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त मानता है. इसके अलावा वंश चलाने से लेकर तमाम मान्यताओं में पुरुषवादी मानसिकता अब भी हावी है. इसलिए कोरोनाकाल में बेटों के मुकाबले बेटियों के पिछड़ने की बातें अस्वभाविक बिल्कुल नहीं हैं.

सोच बदलने की जरुरत: अनुपमा सक्सेना

अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि ना सिर्फ ई-एजुकेशन बल्कि अब ई-कामर्स, ई-एग्रीकल्चर, ई-हेल्थ ऐसे तमाम क्षेत्रों में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की भरपूर भागीदारी होनी चाहिए. लेकिन फिर चाहे स्मार्टफोन के यूज करने में, इंटरनेट से जुड़ने या फिर आईटी स्किल की बात आती है तो हर क्षेत्र में महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले कमतर हैं. इसका मतलब यह है कि महिलाओं को जितनी डिजिटल स्पेस मिलनी चाहिए वो उन्हें मिल नहीं रही है. सरकार को चाहिए कि वो इस गैप को कम करे और हमारा समाज भी गैर बराबरी की मानसिकता से ऊपर उठकर महिलाओं के हक में अपनी आवाज बुलंद करे.

देश में इंटरनेट से जुड़े कुछ आंकड़े:

इंटरनेट एन्ड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक

  • देश में इंटरनेट की पहुंच महज 36 फीसदी जनसंख्या तक है.
  • देश के कुल इंटरनेट यूज में 67 फीसदी पुरुष यूजर्स हैं.
  • शहरी क्षेत्र में 62 प्रतिशत पुरुष और 38 प्रतिशत महिला इंटरनेट यूजर हैं.
  • ग्रामीण क्षेत्र में 72 फीसदी पुरुष और महज 28 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट यूजर हैं.
  • जेंडर के हिसाब से देश में वर्तमान समय तक 60 फीसदी पुरुष और 40 प्रतिशत महिलाएं इंटरनेट यूजर अनुमानित माना गया है.
  • नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (NSSD) की रिपोर्ट के मुताबिक आईटी यूज में ग्रामीण महिलाएं पुरुषों के मुकाबले महज 33.7 प्रतिशत हैं.
  • देश में 34 % पुरुष और 15 % महिलाएं स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं.
  • इंटरनेट पेनेट्रेशन के आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ का आंकड़ा महज 30 प्रतिशत है.

बड़े बदलाव की जरुरत

बहरहाल तमाम आंकड़ें बतातें हैं कि कोरोनाकाल में देश को फिर से पटरी पर लाने के लिए हम सबको कड़ी मेहनत करनी होगी. विशेषकर छात्राओं के ऑनलाइन एजुकेशन में गति लाने के लिए नीतिगत और व्यापक स्तर पर बदलाव लाने की जरूरत भी है और समाज को भी पुरुषवादी मानसिकता से ऊपर उठकर लैंगिक समानता की अवधारणा को जमीन पर साकार करना होगा.

Last Updated : Aug 27, 2020, 3:08 PM IST
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