बस्तरः दशहरे के दौरान पूरा देश जहां रावण दहन (Ravana Dahan) कर विजयादशमी (vijayadashmi) का पर्व मनाता है, वहीं इन सबसे अलग कभी रावण की नगरी रहे बस्तर में आज भी रावण दहन नहीं किया जाता. आदिकाल (Primordial) में बस्तर को दण्डकारण्य (Dandakaranya) के नाम से भी जाना जाता था, जिसमें रावण राज में असुर वास (Asuras Live In Ravana's Rule) करते थे.
यही वजह है कि बस्तर में आज भी दशहरे के दौरान रावण दहन (Ravana Dahan) नहीं किया जाता है, बल्कि बस्तर में इस दौरान आकर्षण का केन्द्र (Center Of Attraction) होता है 9 दिनों तक शहर की परिक्रमा करने वाला विशालकाय रथ (Giant Chariot). करीब 35 फीट उंचे व कईं टन वजनी इस रथ का निर्माण स्थानीय आदिवासियों (Local Tribals) द्वारा आज भी हाथों से पारंपरिक औजारों (Traditional Tools) के जरिए ही किया जाता है.
पूर्ण रूप से लकड़ी से तैयार इस रथ की परिक्रमा (Circumambulation Of The Chariot) के पीछे भी एक रोचक किवदंती जुड़ी है. चालुक्य वंश (Chalukya Dynasty) के चौथे शासक महाराज पुरषोत्तम देव (Fourth Ruler Maharaj Purshottam Dev) की भगवान जगन्नाथ (Lord Jagannath) पर गहरी आस्था थी. जिसके चलते महाराज ने अपने राज्य में शांति व विकास की कामना (Wish For Peace And development) के साथ एक बार पैदल ही उड़ीसा स्थित जगन्नाथपुरी की यात्रा (Journey To Jagannathpuri) की.
जहां उनकी भक्ति से प्रसन्न हो भगवान जगन्नाथ ने उन्हें लाहरु रथपति की उपाधि दी. 16 चक्कों का प्रतीकात्मक रथ (Symbolic chariot) आशीर्वाद के रूप में दिया. जिसके बाद राजा पुरषोत्तमदेव ने रथ के 4 चक्के भगवान जगन्नाथ को उसी वक्त अर्पित कर दिए. 12 चक्कों के रथपति की उपाधि ले कर महाराजा पुरषोत्तमदेव ने बस्तर पहुंच कर 12 चक्कों के विशालकाय रथ (Giant Chariot Of 12 Wheels) की परिक्रमा आरंभ की.
उस दौर में स्वंय राज परिवार रथ पर माई दंतेश्वरी का क्षत्र लेकर सवार होता था व शहर की परिक्रमा करता था.
लेकिन 12 चक्के के इस रथ को चलाने में काफी दिक्कतें आती थीं. जिसके चलते कालांतर में 12 चक्के के रथ को राज परिवार ने 8 और 4 चक्कों के दो रथों में विभक्त कर दिया. साथ ही देश के आजाद होने के बाद अब रथ पर राज परिवार की जगह केवल माई दंतेश्वरी के क्षत्र को ही सवार कर परिक्रमा करवाई जाती है. कई टन वजनी इस विशालकाय रथ को परिक्रमा के लिए खिंचने के लिए सैकड़ों आदिवासी स्वेच्छा से हर वर्ष आते हैं.
'पाट-जात्रा' है पर्व का मुख्य रस्म
बस्तर में ऐतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरा (Historical World Famous Dussehra) पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा होती है. हरियाली की अमावस्या (New Moon Of Greenery) के दिन यह रस्म अदायगी के साथ बस्तर में दशहरा पर्व की शुरूआत होती है. परंपरानुसार इस रस्म में बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व की रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाया जाता है. जिससे रथ के चक्के का निर्माण किया जाता है. हरियाली के दिन विधि-विधान से पूजा के पश्चात बकरे की बलि और मुगंरी मछली की बलि दी जाती है.
जिसके बाद इसी लकड़ी से दशहरा पर्व का विशाल रथ का निर्माण किया जाता है. विश्व प्रस्सिद्ध बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेरी गड़ाई होती है. मान्यताओं के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है. करीब 400 साल से चली आ रही इस परम्परानुसार (According To Tradition) बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है. विधि-विधान पूर्वक पूजा-अर्चना (Worship And All) कर इस रस्म कि अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली जाती है.
इस मौके पर जन प्रतिनिधियों सहित स्थानीय लोग (Local People Including Public Representatives) भी बडी संख्या मे मौजूद होते हैं. इस रस्म के साथ ही विश्व प्रसिद्ध दशहरा रथ के निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ करने के लिए लकड़ियों का लाना शुरू हो जाता है. 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व (World Famous Dussehra Festival) का तीसरा प्रमुख पंरपरा है रथ परिक्रमा. रथ परिकर्मा के लिए रथ का निर्माण किया जाता है. इसी रथ में दंतेश्वरी देवी की सवारी को बैठा कर शहर की परिक्रमा कराई जाती है. लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ (Giant Chariot) को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासी ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है.
14 दिनों में होता है रथ का निर्माण
रथ निर्माण में प्रयुक्त सरई की लकडियों को एक विशेष वर्ग के लोगों द्वारा लाया जाता है और बेडाउमर और झाडउमर गांव के ग्रामीण आदिवासियों द्वारा 14 दिनों में इन लकड़ियों से रथ का निर्माण किया जाता है. अपनी अनोखी व आकर्षक परंपराओं के लिये विश्व में प्रसिद्ध बस्तर दशहरा (Famous Bastar Dussehra) का आरंभ आज देवी की अनुमति के बाद होती है. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परम्परा भी अपने आप में अनूठी है. काछन गादी नामक इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेट कर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है. करीब 600 सालों से चली आ रही इस परंपरा की मान्यता अनुसार कांटों के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात देवी (Real Goddess) आ कर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है.
बस्तर का महा पर्व दशहरा बिना किसी बाधा के संपन्न हो, इस मिन्नत और आशीर्वाद के लिए काछन देवी (Kachan Devi) की पूजा होती है. काछन देवी के रूप में अनुसूचित जाति के एक विशेष परिवार की कुंवारी कन्या विशाखा बस्तर राज परिवार को दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है. 15 वर्षीय विशाखा पिछले 7 सालों से काछन देवी के रूप में कांटों के झूले पर लेट कर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाते आ रही है. मान्यता है कि इस महा पर्व को निर्बाध संपन्न कराने के लिए काछन देवी की अनुमति आवश्यक है. जिस हेतु मिरगान जाति की कुंवारी कन्या को बेल के कांटों से बने झूले पर लेटाया जाता है और इस दौरान उसके अंदर खुद देवी आकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है.
मनोकामना को लेकर पहुंचते हैं हजारों श्रद्धालु
नवरात्र के पहले दिन बस्तर के अराध्य देवी मांई दंतेश्वरी के दर्शन के लिए हजारों की संख्या मंदिर पंहुचते हैं और अपनी-अपनी मनो कामना लेकर घी और तेल के हजारों दीप प्रज्ज्वलित (Lamp Lit) करते हैं. श्रद्धालुओं (Pilgrims) का मानना है कि दंतेश्वरी माई से इस नवरात्र के दौरान सच्चे दिल से मांगता है, उसकी मनोकामना जरूर पूर्ण (Wish Fulfilled) होती है. अपनी अनोखी परंपराओं के लिए विश्व चर्चित बस्तर दशहरा की एक और अनूठी व महत्वपूर्ण रस्म जोगी बिठाई है. जिसे शहर के सिरहासार भवन में पूर्ण विधि-विधान के साथ संपन्न किया जाता है. परंपरानुसार इस रस्म (According to Tradition) में एक विशेष जाति का युवक प्रति वर्ष 9 दिनों तक निर्जल उपवास रख सिरहासार भवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या हेतु बैठता है.
इस तपस्या का मुख्य उद्देश्य दशहरा पर्व को शांति पूर्वक व निर्बाध रूप से संपन्न कराना होता है. जोगी बिठाई रस्म में जोगी से तात्पर्य योगी से है. इस रस्म से एक किवदंती जुड़ी हुई है. मान्यताओं के अनुसार वर्षों पूर्व दशहरे के दौरान हल्बा जाति (Halba Caste) का एक युवक जगदलपुर स्थित महल के नजदीक तप की मुद्रा में निर्जल उपवास पर बैठ गया था. दशहरे के दौरान 9 दिनों तक बिना कुछ खाए-पिए, मौन अवस्था में युवक के बैठे होने की जानकारी जब तत्कालीन महाराज को मिली तो वह स्वयं युवक से मिलने योगी के पास पहुंचे. उससे तप पर बैठने का कारण पूछा. तब योगी ने बताया कि उसने दशहरा पर्व को निर्विघ्न व शांति पूर्वक रूप से संपन्न कराने के लिये यह तप किया है.
9 दिनों की कठोर तपस्या
जिसके बाद राजा ने योगी के लिए महल से कुछ दूरी पर सिरहासार भवन का निर्माण करवा कर इस परंपरा को आगे बढ़ाए रखने में सहायता की. तब से हर वर्ष अनवरत इस रस्म में जोगी बन कर हल्बा जाति का युवक 9 दिनों की तपस्या पर बैठता है. शारदीय नवरात्रि के पावन अवसर पर देश के 52 शक्तिपीठों में से एक दंतेश्वरी मंदिर (Danteshwari Temple) के दर्शन करने हजारों की संख्या में श्रध्दालु पहुंचते हैं. पौराणिक कथाओं (Mythology) के अनुसार शक्ति के शरीर के 52 टुकड़ों में से माई का दांत दंतेवाड़ा में गिरा था. जिसके चलते ही इस जगह पर माई दंतेश्वरी के शक्तिपीठ की स्थापना हुई. इस जगह का नाम दंतेवाड़ा पड़ा.
माई दंतेश्वरी के प्रति अपनी भक्ति व अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भक्त नवरात्रि के दौरान अलग-अलग तरीकों से अपनी आस्था को प्रदर्शित करते हैं और माई दंतेश्वरी के प्रति अपनी इसी आस्था के चलते हर वर्ष हजारों की संख्या में भक्त जगदलपुर से करीब 100 कि.मी. की दूरी पर दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी मंदिर तक का सफर पैदल ही तय करते हैं. इसे माता की अपने भक्तों पर कृपा ही कही जा सकती है कि तपती धूप में भी बच्चे, बूढ़े व महिलाएं बिना किसी शारीरिक हानि के यह कष्टदायक सफर (Painful Journey) तय कर लेते हैं.
विश्व प्रसिद्ध रथ परिक्रमा
बस्तर दशहरे में 7 वां और अनूठा रस्म विश्व प्रसिद्ध रथ परिक्रमा (World Famous Chariot parikrama) का है. इस रस्म में बस्तर के आदिवासियों द्वारा पारंपरिक तरीके (Traditional Way) से लकड़ियों से बनाए लगभग 35 फीट ऊंचे रथ पर माई दंतेश्वरी के छत्र को बैठा कर शहर के सिरहासार चौक से गोल बाजार होते हुए वापस मंदिर तक शहर कि परिक्रमा लगाईं जाती है. लगभग 30 टन वजनी इस रथ को सैकड़ों ग्रामीण मिल कर अपने हाथों से ही खींचते हैं. बस्तर दशहरे कि इस अद्भुत रस्म कि शुरुवात 1420 ईसवी में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव के द्वारा की गई थी. महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथपुरी जा कर रथ पति कि उपाधि प्राप्त कि थी. जिसके बाद से अब तक यह परम्परा अनवरत इसी तरह चली आ रही है.
नवरात्रि के प्रथम दिन से पंचमी तक दंतेश्वरी माई की सवारी को परिक्रमा लगवाने वाले इस 8 चक्के के विशाल रथ को फुल रथ के नाम से जाना जाता है. माई दंतेश्वरी के मंदिर से माई के छत्र को डोली में रथ तक लाया जाता है. इसके बाद सलामी दे कर इस रथ कि परिक्रमा का आगाज किया जाता है. बस्तर दशहरे कि सबसे अद्भुत रस्म निशा जात्रा होती है. इस रस्म को काले जादू कि रस्म भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इस रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेतात्माओं से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे. जिसमें हजारों बकरों, भैंसों यहां तक कि नर बलि भी दी जाती थी. लेकिन अब केवल 11 बकरों का बलि दे कर इस रस्म कि अदायगी रात 12 बजे शहर के गुड़ी मंदिर में पूर्ण की जाती है. इस रस्म कि शुरूआत 1303 ईसवी में की गई थी.
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प्रेत आत्माओं से सुरक्षा के लिए तांत्रिक रस्म
इस तांत्रिक रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं (Evil Spirits) से राज्य की रक्षा के लिए अदा करते थे. इस रस्म में बलि चढ़ा कर देवी को प्रसन्न किया जाता है. ताकि देवी राज्य की रक्षा बुरी प्रेत आत्माओं से करे. निशा जात्रा कि यह रस्म बस्तर के इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है. विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व की एक और महत्वपुर्ण रस्म मावली परघाव होती है. दो देवियों की मिलन के इस रस्म को जगदलपुर दंतेश्वरी मंदिर के प्रांगण में अदा किया जाता है. परम्परानुसार इस रस्म में शक्तिपीठ दन्तेवाड़ा से मावली देवी की क्षत्र और डोली को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है. जिसका स्वागत बस्तर के राजकुमार और बस्तरवासियों के द्वारा किया जाता है. नवरात्रि के नवमी पर मनाए जाने वाले इस रस्म को देखने बड़ी संख्या में जनसैलाब उमड़ पड़ता है.
मान्यता के अनुसार 600 वर्षों से पूर्व बस्तर रियासत काल से इस रस्म को धूमधाम से मनाया जाता है. बस्तर के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह द्वारा माई के डोली का भव्य स्वागत किया जाता था. वो परम्परा आज भी बखूभी निभाई जा रही है. दशहरा में विजयदशमी के दिन जहां एक ओर पूरे देश में रावण का पुतला दहन किया जाता है, वहीं बस्तर में विजयदशमी (Vijayadashmi) के दिन दशहरा की प्रमुख रस्म भीतर रैनी मनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार आदि काल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी और यही वजह है कि शांति , अंहिसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा (Bastar Dussehra Symbol Of Non-Violence And Harmony) पर्व में रावण का पुतला दहन (Ravana's Effigy Burning) नहीं किया जाता.
रैनी रस्म में रथ परिक्रमा
विजयदशमी के दिन मनाए जाने वाले बस्तर दशहरा पर्व में भीतर रैनी रस्म में रथ परिक्रमा पूरी होने पर आधी रात को इसे चुरा कर मीडिया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं. इस संबध मे बताया जाता है कि राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुरा कर एक जगह छिपा दिया था. जिसके पश्चात राजा द्वारा कुम्हड़ाकोट पहुंच ग्रामीणों को मना कर एवं उनके साथ भोज कर रथ को वापस जगदलपुर लाया जाता था. बस्तर के राजा पुर्षोत्तमदेव द्वारा तिरुपति से रथपति की उपाधि ग्रहण करने के पश्चात बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आरम्भ की गई. जो कि आज तक अनवरत चली आ रही है.
इसी के साथ बस्तर में विजयदशमी के दिन रथ परिक्रमा समाप्त की जाती है. बस्तर दशहरा का समापन दशहरा पर्व पर दंतेवाड़ा से पधारी माई की समारोह पूर्वक अभूत पूर्व विदाई की परंपरा को पूरी गरिमा के साथ जिया डेरा से दंतेवाड़ा के लिए विदाई दे कर किया जाता है. माई दंतेश्वरी की विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है. विदाई से पहले माई की डोली और छत्र को स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती (Maha Aarti) की जाती है. यहां सशस्त्र सलामी बल के माई को सलामी देने के बाद डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित जिया डेरा तक भव्य शोभा यात्रा (Grand Procession) निकाली जाती है. विदाई के साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है. 75 दिनों तक मनाए जाने वाले इस पर्व पर रोचक एवं अनोखी रस्मों की वजह से ही बस्तर दशहरा देश के अन्य जगहों से अलग व आर्कषण माना जाता है.