रायपुर: भारत मां के वीर सपूत चंद्रशेखर तिवारी जो बाद में आजाद के उप नाम से देशवासियों के दिलों पर राज करने लगे, उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव (अब चंद्रशेखर आजाद नगर) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उसके बाद बेहद कम उम्र में ही उन्होंने अपने परिजनों को अपने देश प्रेम की भावना के बारे में बता दिया था. देश की आजादी के यज्ञ में मात्र 24 साल में अपनी प्राणों की आहुति देने वाले आजाद की 2 ख्वाहिशें थीं, जो कभी पूरी न हो सकीं. उनकी सबसे बड़ी ख्वाहिश देश की आजादी की तो पूरी हुई, लेकिन उनके जीते-जी नहीं. ( Chandrashekhar Azad birth anniversary )
आजाद की पहली ख्वाहिश
कहते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए चंद्रशेखर रूस जाकर स्टालिन से मिलना चाहते थे. उन्होंने अपने जानने वालों से यह बात कही भी थी कि खुद स्टालिन ने उन्हें बुलाया है. लेकिन रूस की यात्रा के लिए 1200 रुपये की जरूरत थी, जो उनके पास नहीं थे. उस समय 1200 रुपये बड़ी रकम हुआ करती थी. वह इन रुपयों का इंतजाम कर पाते, उसके पहले ही शहीद हो गए.
दूसरी इच्छा थी भगत सिंह से जुड़ी
चंद्रशेखर आजाद की दूसरी ख्वाहिश थी अपने साथी क्रांतिकारी भगत सिंह को फांसी से बचाना. इसके लिए उन्होंने हर संभव कोशिश की और बहुत लोगों से मिले भी, लेकिन उनकी शहादत के एक महीने के भीतर ही उनके साथी भगत सिंह को भी फांसी दे दी गई.
यारों के यार थे आजाद
चंद्रशेखर आजाद दोस्तों पर जान भी न्योछावर करने को तैयार रहते थे. उनके एक दोस्त का परिवार उन दिनों आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. जब यह बात चंद्रशेखर को पता चली तो वह पुलिस के सामने सरेंडर को तैयार हो गए ताकि उनके ऊपर रखी गई इनाम की राशि दोस्त को मिल सके और उनका गुजर-बसर सही से हो सके.
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चंद्रशेखर तिवारी वाराणसी में बने 'आजाद'
बात साल 1921 की है जब जलियावाला बाग की घटना देशवासियों के अंदर जबरदस्त आक्रोश भर दिया था. गांधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. क्रांतिकारियों के गढ़ बनारस में छात्रों का एक गुट विदेशी कपड़ों की दुकान के बाहर प्रदर्शन कर रहा था. तभी वहां पहुंची पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर दिया. लहूलुहान साथियों को देख एक 15 साल के बालक का खून खौल उठा और आव न देखा ताव दे मारा एक दारोगा के सिर पर पत्थर.
ये बालक कोई और नहीं आजाद ही थे. आजाद पकड़े गए और उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया, तो उन्होंने अपने परिचय में मां का नाम धरती, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर जेल बताया था. मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई. जेल से बाहर आने के बाद उनकी बहादुरी के चर्चे पूरे बनारस में थे. इसी के बाद बनारस के ज्ञानवापी में हुई एक सभा में चंद्रशेखर तिवारी का नामकरण चंद्रशेखर आजाद किया गया.
आजाद ने कहा था 'नहीं आऊंगा जिंदा हाथ'
आजाद की अंतिम मुठभेड़ के बारे में सर्वविदित है कि एक बार स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक में उन्होंने कहा था कि अंग्रेज कभी मुझे जिंदा नहीं पकड़ सकते हैं. हुआ भी ऐसा ही जब तत्कालीन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में उन्हें अंग्रेजों ने 27 फरवरी 1931 को घेरा तो आजाद ने पहले जमकर मुकाबला किया. लेकिन जब आजाद के पास आखिरी गोली बची, तो उन्होंने अपनी कनपटी पर पिस्तौल से गोली चला दी और वीरगति को प्राप्त हुए.
यहां से आजाद ने बच्चे बच्चे के अंदर आजादी का वो बीज बोया जिसे अंग्रेज कभी जीते जी दबा नहीं सकते थे. आजाद की बातें और उनका खुद को शहीद कर देना ही उनके आजादी पसंद होने का प्रमाण था. आजाद का खौफ अंग्रेजों में इस कदर था कि जब आजाद मृत पड़े थे तब भी अंग्रेज उनके पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे. जब उन्होंने तसल्ली कर ली कि वो मृत हो चुके हैं तब अंग्रेज उनके पास गए.