कोरबाः नवरात्रि के खास अवसर पर ईटीवी भारत आपको छत्तीसगढ़ की ऐसी महिलाओं से रू-ब-रू करा रहा है. जिन्होंने अपने-अपने कार्य क्षेत्र में समाज के लिए नए आयाम स्थापित किए हैं. जिन्हें हम छत्तीसगढ़ की नवदुर्गा की संज्ञा दे सकते हैं. इसी कड़ी में हम कोरबा जिले की निर्मला कुजुर से आपको मिलवाएंगे. जो कि पिछले एक दशक से भी अधिक समय से आदिवासियों के उत्थान के लिए काम कर रही हैं. उनके लिए सरकार से जल, जंगल और जमीन (water, forest and land) की लड़ाई लड़ रही हैं.
निर्मला खुद भी आदिवासी वर्ग (tribal class) से आती हैं. 12वीं तक पढ़ी हैं लेकिन आदिवासियों से जुड़े कानून और अधिकारों (Laws and rights related to tribals) के विषय में वह किसी सरकारी अफसर (government official) की तरह जानकारी रखती हैं. इसलिए वह आदिवासियों की पीड़ा को बेहतर ढंग से समझ पाती हैं. निर्मला ने आदिवासियों के सेवा और उनके उत्थान के लिए निजी जीवन के सुख का भी त्याग कर दिया. आदिवासियों की सेवा और उनके अधिकारों के प्रति निर्मला के समर्पण को देख जेनेवा की अंतरराष्ट्रीय संस्था (international organization) ने उन्हें हाल ही में सम्मानित किया था. आइए आपको बताते हैं, क्या है निर्मला की कहानी
सवालः आप का कार्यक्षेत्र क्या है और सबसे पहली बार कब मन में आया कि आदिवासियों के लिए काम करना चाहिए?
जवाब- सबसे पहले तो मैंने आठवीं तक की पढ़ाई गांव में ही पूरी की. नौवीं के बाद पढ़ाई छूट गई. दसवीं के बाद 12वीं की पढ़ाई भी मैंने पास कर ली. आसपास के आदिवासियों को देखा तो मन में यह विचार आया कि इनके लिए कुछ करना चाहिए. आदिवासी अपने अधिकारों को मांगना तो दूर, उन्हें जानते भी नहीं हैं. बेहद कठिन परिस्थितियों (difficult situations) में भी निवास करते हैं. मेरी मुलाकात मुरली भाई से हुई. 2006 से ही मैंने एकता परिषद (unity council) से नाता जोड़ा और पदयात्रा शुरू कर दी थी. इसके बाद आदिवासियों के लिए काम करती चली गई और अब मुझे 8 से 10 साल का समय हो गया है, इसी दिशा में काम कर रही हूं.
सवालः जब आप आदिवासियों के बीच जाती हैं, तब उनकी वर्तमान स्थिति के विषय में क्या सोचती हैं? और आप कैसे उन्हें जागरूक कर रही हैं?
जवाबः जंगल में रहने वाले आदिवासियों को अपने अधिकारों के बारे में पता ही नहीं होता. छोटी-छोटी सरकारी योजनाएं राशन कार्ड, पेंशन, कुआं, आवास जैसी मूलभूत बातों की भी जानकारी नहीं होती. खासतौर पर वन अधिकार पट्टा पर हमारा फोकस रहता है. महिला भूमि, महिला वन अधिकार पट्टा के बारे में उन्हें नियमित अंतराल पर जानकारी प्रदान की जाती है. हर महीने या 15 दिन में आदिवासियों के बीच जाकर उन्हें सरकार से पट्टा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है, यह बताया जाता है और उन्हें हम जागरूक करते हैं.
सवालः वन अधिकार पट्टा पर आपका फोकस रहता है, क्या लोगों को वास्तव में इस विषय में जानकारी है?
जवाबः पहले तो उन्हें पता नहीं होता था, लेकिन जब हम आदिवासियों के बीच गए, उन्हें जागरूक किया तब अब उन्हें जानकारी हो रही है. मैंने खुद भी इस विषय में ट्रेनिंग ली और अब उन्हें जागरूक करते हैं कि वनों पर आदिवासियों का अधिकार है. वन अधिकार पट्टा के साथ ही सामुदायिक वन अधिकार पट्टा (community forest rights lease) भी आदिवासियों को प्रदान किए जाने का नियम है. इस तरह से हम आदिवासियों में जागरूकता लाने का प्रयास कर रहे हैं. अब लोग जागरूक हो रहे हैं.
सवालः ग्रामीणों के बीहड़ वनांचलों में जब आप जाती हैं, तो किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
जवाब- शुरुआत में तो हमें बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा. लोग बात करने को भी तैयार नहीं होते थे, लेकिन फिर उन्हें समझाया. खास तौर पर महिलाएं जो घर से बाहर जाने को तैयार नहीं होती थीं. उन्हें समझाया कि जब तक आप घर से खुद बाहर नहीं निकलोगे, तब तक आप अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ पाओगे. धीरे-धीरे उनकी भी समझ में आने लगा, महिलाएं भी बाहर आने लगीं और अपने अधिकारों के प्रति वह जागरूक हो रही हैं. लेकिन अभी भी काफी काम करने की जरूरत है.
सवालः आदिवासियों की बात आती है, तब वह खुद ही अपने अधिकारों के विषय में जागरूक नहीं होते. ऐसे में जब आप अधिकारियों से उनके अधिकारों की बात करती हैं तब क्या सहयोग मिलता है?
जवाब- बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. जब हम पंचायत में जाते हैं, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट (forest department) के ऑफिस में जाते हैं और अधिकारियों से मिलते हैं. कई बार विवाद जैसी स्थिति खड़ी हो जाती है. अधिकारी कहते हैं कि आप फालतू की बात कर रही हैं. ऐसा कोई नियम नहीं है. फिर मैं उन्हें बताती हूं कि अगर आपको पता नहीं है तो आप ट्रेनिंग लेकर आएं. वन अधिकार पट्टा आदिवासियों का अधिकार है और हम इस लड़ाई को लड़ रहे हैं. आपको हर हाल में आदिवासियों को उनका अधिकार देना ही होगा. तो अब काफी अधिकारी भी जागरूक हो रहे हैं. वह भी पता लगा रहे हैं, नियमों के विषय में और वन अधिकार पट्टा को लेकर अब अधिकारी भी काफी सक्रिय हैं.
सवालः अधिकारी भी आप को पहचानने लग गए होंगे कि एक महिला आती है, आदिवासी के अधिकारों की बात करती है. वह तेजतर्रार है?
जवाबः जी हां! बिल्कुल अब तो सभी अधिकारी मुझे नाम से जानते हैं कि यह महिला निर्मला कुजूर है और जो आदिवासियों के अधिकार की बात करती है. वन अधिकार पट्टा की बात करती है. अब वह बातों को गंभीरता से लेते हैं. अब तो मैं एकता परिषद की जिला संयोजक भी हूं.
सवालः आपको एक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला, उसके बारे में बताइए?
जवाबः एकता परिषद की ओर से ही भारत से जेनेवा तक की पदयात्रा शुरू हुई थी. जिसमें मैंने भाग लिया. पदयात्रा शुरू हुई तब मुझे यह नहीं पता था कि मुझे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिलने वाला है. यह पुरस्कार विश्व भर की 10 महिलाओं को मिला था. छत्तीसगढ़ से मैं अकेली थी. आदिवासियों के उत्थान की दिशा में काम करने वाली महिलाओं को ही या पुरस्कार मिला था. हालांकि हम जिनेवा तक की पदयात्रा पूरी नहीं कर पाए थे. कोरोना वायरस के कारण हमें यह पदयात्रा बीच में ही रोकनी पड़ी थी. अक्टूबर 2020 में मुझे अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार (international award) मिला था.