बस्तर: माड़िया जनजाति के ग्रामीण परंपरानुसार 8 पहिए वाले रथ को चुराकर कुम्हड़ाकोट जंगल ले जाते हैं. जिसके बाद राज परिवार के सदस्य ग्रामीणों को मनाने के लिए कुम्हड़ाकोट पहुंचते हैं. ग्रामीणों को मनाकर और उनके साथ नए चावल से बने खीर नवाखानी खाई के बाद रथ को वापस शाही अंदाज में राजमहल लाया (Bahar Rainy Ritual Of Bastar Dussehra Performed) जाता है. इस रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है.
बाहर रैनी बस्तर दशहरा की महत्वपूर्ण रस्म: इस रस्म में बस्तर संभाग के असंख्य देवी देवता के छत्र डोली शामिल होते हैं. बताया जाता है कि बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से रथपति की उपाधि मिलने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आरंभ की थी. यह आज तक अनवरत चली आ रही है.
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ग्रामीणों को मनाकर वापस राजमहल लाया जाता है रथ: 10 दिनों तक चलने वाली रथ परिक्रमा में विजयदशमी के दिन भीतर रैनी की रस्म पूरी की जाती है. जिसमें परंपरा के मुताबिक माड़िया जाति के ग्रामीण शहर के बीच स्थित सिरहसार भवन से आधी रात को रथ चुराकर मंदिर से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कुम्हड़ाकोट जंगल ले जाते हैं. उसके बाद बस्तर राजपरिवार के राजकुमार कमलचंद भंजदेव शाही अंदाज में घोड़े में सवार होकर कुम्हड़ाकोट पहुंचते हैं. यहां वे ग्रामीणों के साथ नए चावल से बनी नवाखानी खाते हैं और ग्रामीणों को मान मनौव्ल कर समझा-बुझाकर रथ को वापस शहर लाया जाता है.
75 दिन तक चलता है बस्तर दशहरा: आज भी बस्तर के राजकुमार की मौजूदगी में दशहरा के सभी रस्मों को विधि विधान से पूरा किया जाता है. विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा की इस आखिरी रस्म को देखने हर साल लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है. अब 75 दिनों तक चलने वाले इस महापर्व की समाप्ति दंतेश्वरी की डोली विदाई के साथ पूरी हो जाएगी.