धमतरी: पूर्णिमा एक दशक से सियाराम के जाने का गम सह रहीं हैं. 11 साल पहले सुकमा की कोंटा तहसील के ताड़मेटला में जब नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था, तब धमतरी के सातबहना निवासी सियाराम अपना फर्ज निभाते-निभाते शहीद हो गए थे. पूर्णिमा तब से सिर्फ नाम में ही पूरी हैं, सियाराम के बिना उनका जीवन अधूरा है. वो कहती हैं कि जिंदगी बीत रही है. गुजारा हो रहा है. बच्चे बड़े हो गए, पढ़ाई कर रहे हैं. आज वो होते, तो जिंदगी कुछ और होती. तीनों बच्चे भी अपने पिता को याद कर भावुक हो उठते हैं.
11 साल पहले सुकमा के कोंटा के ताड़मेटला में नक्सलियों ने खूनी खेल खेला था. 'लाल आतंक' के इस सबसे बड़े हमले में 76 जवान शहीद हो गए थे. 6 अप्रैल 2010 की वो सुबह छत्तीसगढ़ के इतिहास का काली सुबह थी. गश्त पर निकले 150 जवानों पर नक्सलियों ने हमला बोल दिया था. इस मुठभेड़ में नॉर्थ-ईस्ट से लेकर दक्षिण के राज्यों के बेटों ने अपना जान न्योछावर कर दिया. इन्हीं में से एक थे धमतरी जिले के सातबहना निवासी सियाराम. सियाराम भी उस टीम के साथ निकले थे जो वापस कभी न लौट सके.
शहादत के एक दिन पहले हुई थी बात
पूर्णिमा बताती है कि 5 अप्रैल को जब सियाराम 150 जवानों के साथ गश्त पर निकले थे तब उनकी आखिरी बात हुई थी. इसके बाद उनका फोन ऐसे बंद हुआ कि फिर कभी पूर्णिमा सियाराम की आवाज नहीं सुन पाई. दूसरे दिन खबर मिली कि वह शहीद हो गए हैं. पति के शहीद होने की खबर जब टीवी चैनलों से मिली तो उस वक्त उसे यकीन ही नहीं हुआ कि ऐसे कैसे चंद मिनटों में उनकी दुनिया उजड़ गई.
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बच्चों को देना बेहतर भविष्य
सरकार ने सियाराम के बड़े बेटे देवेंद्र ध्रुव को आरक्षक की नौकरी दी है. छोटा बेटा कॉलेज में है और बेटी मुस्कान भी पढ़ाई कर रही हैं. उनकी मां ने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया है. पूर्णिमा बताती हैं कि वह फोन पर जब भी बात करते तो बच्चों को लेकर परेशान रहते थे. आखिरी बार भी उन्होंने यही कहा था कि 'पुलिस की नौकरी है, नक्सली इलाका है. कब, क्या हो जाए कछ कहा नहीं जा सकता है. मैं लौटूं या न लौटूं तुम बच्चों को बेहतर भविष्य देना.' अब शहीद की पत्नी अपने पति के अरमानों को पूरा करने में जुटी है.
पुलिस ही ज्वाइन करना चाहते थे सियाराम
सियाराम शुरू से पुलिस में जाना चाहते थे. 1995 में उनका सपना सच हुआ और उन्हें आरक्षक के पद पर किस्टाराम में तैनाती मिली. इसके बाद से वह परिवार से दूर रहकर भी बीहड़ नक्सल इलाकों में अपनी सेवाएं देते रहे. बीजापुर, तोंगपाल ड्यूटी के दौरान उन्हें आरक्षक से प्रधान आरक्षक के पद पर पदोन्नति मिली फिर दंतेवाड़ा के चिंतलनार में पोस्टिंग हुई थी.
सियाराम की शहादत को 11 साल बीत चुके हैं. पूर्णिमा आज भी जब भी किसी नक्सली हमले में जवानों की मौत या किसी के हताहत होने की खबर अखबारों या टीवी देखती हैं तो नाराजगी से भर जाती हैं. पूर्णिमा कहती हैं कि इस लड़ाई से किसी का भला नहीं होगा.