सरगुजा: छत्तीसगढ़ राज्य आदिवासी जीवन (tribal life of chhattisgarh) और संस्कृति के लिए जाना जाता है. यहां की आदिवासी समाज (tribal society) की परंपराएं और संस्कृति देखने के लिए विश्व भर से लोग पहुंचते हैं. इनके जीवन पर कई शोध किए जा चुके हैं. सरगुजा की पहाड़ी कोरवा जनजाति (Pahari Korwa) जिन्हें राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र कहा जाता है, उन पर जिले की समाजसेविका और साहित्यकार वंदना दत्ता (Vandana Dutta) ने 11 साल पहले शोध किया था. उन्होंने अपने शोध में आदिवासी जीवन (tribal life) से जुड़े कई रोचक पहलू पर खुलासा किया है. ETV भारत ने उनसे इस संबंध में खास बातचीत की है.
भारत सरकार के सांस्कृति मंत्रालय के मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र नागपुर के अनुबंध पर यह शोध किया गया. इस लघु शोध को प्रकाशित करने में 11 साल का समय लग गया. अब तक सिर्फ एक ही पुस्तक प्रकाशित हो पाई है. वीडियो डॉक्यूमेंट्री का प्रकाशन किया जाना अभी बाकी है. वंदना दत्ता कहती हैं कि, उन्हें अपने 11 साल की मेहनत का परिणाम मिल गया है.
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अब भी बहुत कुछ नहीं जानते इस जनजाति के लोग
वंदना बताती हैं कि 'मुझे 2010 में शोध का विषय मिला था. सरगुजा के पहाड़ी कोरवा जनजाति पर मैने शोध किया और उसे जमा किया था. इस जनजाति को राष्ट्रपति ने दत्तक पुत्र के तौर पर गोद लिया है. ये जनजाति सरगुजा, मैनपाट, बलरामपुर, उदयपुर, सीतापुर, लखनपुर में थोड़े- थोड़े संख्या में पाए जाते हैं. लखनपुर और उदयपुर के आसपास एक जगह जहां शोध के दौरान हम गए हुए थे. वहां बच्चों के लिए केला लेकर गए थे, तो वहां के बच्चे जानते ही नहीं थे कि इसे खाते कैसे हैं. उन्हें केला छिलना नहीं आता था. ये बाकी जनजातियों से अलग हैं, ये सिर्फ पहाड़ों पर बसते हैं इनका रहन-सहन भी बाकियों से अलग है. नानदमाली के पहाड़ पर हम चढ़े तो वहां तकरीबन 10 परिवार रहते थे. इन पर हमने डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी जो अब तक पब्लिश नहीं हो पाई है. ये एक दुखद है कि 10 साल में एक पुस्तक भी पब्लिश नहीं हो पाई थी.'
'हम मौत के बाद बदलते हैं घर'
आदिवासी समाज के रीति रिवाज अलग होते हैं. एक पहाड़ी कोरवा के घर पर अगर किसी की मृत्यु हो जाती है तो परिवार वह घर छोड़ देता है. हर मृत्यु के बाद ये लोग नया घर बनाकर रहते हैं. ये आज के समय में थोड़ा अजीब जरूर है. लोग अपने पूरे जीवन में एक घर बना पाते हैं और ये जनजाति ना जाने कितनी बार घर बनाकर अपना आशियाना बदलते हैं. हालांकि वे मिट्टी, लकड़ी के सहारे घर खुद ही बनाते हैं.
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मिट्टी के बर्तन में बनाते हैं खाना
पहाड़ी कोरवा जनजाति का खान-पान भी अलग है. ये लोग हड़िया (मिट्टी के बर्तन, clay pots) में खाना बनाते हैं. चोंगी में खाना खाते हैं. फल-फूल, कंदमूल खाकर जो जंगल से मिलता है उसमें ही जीवन बसर करते हैं. इस जनजाति के लोग कम संसाधन में बहुत अच्छा जीवन व्यतीत करते हैं.
सोदे कर्मा नृत्य करते हैं इस जनजाति के लोग
पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग मनोरंजन और तीज त्योहार में कर्मा नृत्य करते हैं. इनका कर्मा सोदे कर्मा नृत्य कहलाता है. एक डंडा गाड़कर झाड़ू लगाकर उसमें धनुष-बाण टांगकर अलग ही वाद्ययंत्र से ये नृत्य करते हैं.
सरकार उपलब्ध करा रही सुविधाएं
पहाड़ी कोरवा अपने पहाड़ से उतरना नहीं चाहते हैं. सरकार इनके लिए अलग इंतजाम करती है. स्वास्थ्य विभाग की टीम, शिक्षक पहाड़ चढ़कर ही अपनी सेवाएं देते हैं. आंगनबाड़ी कार्यकर्ता भी समय-समय पर जाते हैं. वंदना बताती हैं कि, जब हम वहां गए थे तब एक परिवार के सदस्य की तबीयत सही नहीं थी. स्वास्थ्य विभाग का अमला वहां पहुंचा हुआ था. बार-बार बोलने के बाद भी परिवार नीचे आने को तैयार नहीं था. ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य विभाग के लोगों को ऊपर जाकर उनका इलाज करना पड़ा.
पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग आम लोगों से दूरी बनाकर रखना पसंद करते हैं. उनको लोगों के पास आना पसंद नहीं है. सरकार इस जनजाति के लिए कई योजनाएं चला रही है. उन्हें तमाम तरीके की सुविधाएं देने का प्रयास कर रही है. बच्चों के लिए आंगनबाड़ी, आश्रम सरकार ने बनाए हैं. नौकरी इन्हें दी जा रही है, लेकिन अब जो बुजुर्ग है वे अपना घर नहीं छोड़ना चाहते हैं, सरकार को अभी इस ओर अधिक प्रयास करने की जरूरत है.
समाजसेवियों से अपील
वंदना ने समाजसेवियों से अपील की है कि वे समय-समय पर ऐसी जगहों पर जाकर उनकी जरूरतों की जानकारी लें. शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति पहाड़ी कोरवा को जागरूक करें. थोड़ी बहुत जो यहां का खान-पान है उससे उन्हें अवगत कराएं.