बगहा : बिहार के पश्चिमी चंपारण जिला अंतर्गत वाल्मीकी टाइगर रिजर्व से सटे इलाकों में बरसात के मौसम के दौरान एक खास जंगली सब्जी बाजार में बिकती है. इस सब्जीं का दाम काफी हाई रहता है. मटन के दाम से भी तकरीबन 3 गुना अधिक. इसकी वजह ये है कि काफी कठिनाई से मिलने वाली इस सब्जी को 'भुटकी' कहा जाता है. इसमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और खनिज तत्व पाये जाते हैं, जो कि इसे पौष्टिक बनाते हैं.
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2000 रुपए प्रति किलो तक बिकती है सब्जी : पश्चिमी चंपारण जिला अंतर्गत वाल्मीकी टाइगर रिजर्व के जंगलों में मिलने वाली 'भुटकी' सब्जी बिहार के महंगी सब्जियों में से एक है. स्थानीय बाजार में इसकी कीमत 300 से 400 रुपए प्रति किलो, वहीं आसपास के शहरों में 500 से 600 रुपए किलो है. जबकि उत्तरप्रदेश के बाजारों में इसकी कीमत 2000 रुपये किलो तक है. साल में महज डेढ़ दो महीने मिलने वाली 'भुटकी' बाजारों में बिकना शुरू हो गयी है. इसकी काफी डिमांड भी है.
इसकी खेती नहीं होती ये प्राकृतिक सब्जी है : दरअसल, वाल्मीकी टाइगर रिजर्व के जंगल में साल यानी सखुआ/सागवान वृक्ष प्रचुर संख्या में पाया जाता है. इसी साल के जंगल में जब पहली बरसात से मिट्टी भीगती है और उसके बाद जो पहली उमस पड़ती है, तब साल वृक्ष की जड़ से एक खास तरह का द्रव निकलता है और फिर जमीन पर गिरे साल के सूखे पत्ते के नीचे ये फंगस बनाता है, जिसे 'भुटकी' कहा जाता है. यह मुख्यतः आदिवासियों की खोज है. आदिवासी इसे किसी भी लकड़ी की मदद से जमीन से सुरक्षित बाहर निकालते हैं.
सावन में इसकी होती है डिमांड : 'भुटकी' सब्जी का बॉटिनिकल नाम 'शोरिया रोबुस्टा' है. जिसे आदिवासी वाल्मीकी टाइगर रिजर्व का 'काला सोना' भी कहते हैं. यह पूरी तरह से प्राकृतिक उत्पाद है. इसकी खेती नहीं की जा सकती. ये खास तरह की परिस्थिति में अपने आप ही पैदा होता है. वैसे ये आदिवासियों को मुफ्त में ही मिलता है. आप खुद साल के जंगलों में चले जाएं तो ये आपको भी कड़ी मेहनत के बाद यह मुफ्त में ही मिल सकता है.
चूंकी यह एक फंगस है, इसलिए वजन में काफी हल्का होता है. आदिवासियों के मुताबिक इसका स्वाद मटन के कलेजी की तरह होता है. इसलिए इसकी बड़ी डिमांड होती है.
''गांव में इसकी कीमत करीब 300 से 400 रुपये किलो तक रहती है. शहर में यही 600 रुपये किलो में बिकता है. जबकि दूसरे राज्यों तक पहुंच कर इसकी कीमत कई गुना बढ़कर करीब 1800 से 2000 रुपये किलो तक चली जाती है.''- स्थानीय निवासी
मीट बंद तो 'भुटकी' से स्वाद की पूर्ति : 'भुटकी' में भरपूर मात्रा में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और खनिज तत्व पाये जाते हैं, जो कि इसे पौष्टिक बनाते हैं. वहीं कुपोषण, दिल और पेट के रोगों में भी ये फायदेमंद माना जाता है, इसिलिए भुटकी जंगल पर निर्भर रहने वाले वनवासियों के भोजन का सदियों से हिस्सा रहा है. वनवासी बताते हैं कि भुटकी से उन्हें भोजन और पैसा दोनों मिल जाता है. बता दें की छत्तीसगढ़ में भुटकी को 'सरई बोड़ा' के नाम से जाना जाता है. उत्तरप्रदेश के इलाकों में कटरुआ के नाम से इसकी पहचान है. वहीं झारखंड के जंगली इलाकों में इसको 'खुखड़ी' कहा जाता है.
पौष्टिकता से भरपूर है भुटकी : सावन के पवित्र महीने में जब लोग चिकन, मछली और मटन खाना बंद कर देते हैं तो 'भुटकी' उनके लिए मांसाहारी भोजन का विकल्प बन जाता है. लिहाजा इसे शाकाहारियों का मटन भी कहा जाता है. वाल्मीकी टाइगर रिजर्व एक प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आता है, इसलिए जंगल में घुसना और 'भुटकी' बीनना कानूनन अपराध है. बावजूद वनवासी जंगल के नियमों को ताक पर रख भुटकी चुनने जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि इसके पकाने का तरीका हूबहू नॉनवेज की तरह ही होता है. साथ हीं इसका स्वाद मटन के कलेजी की तरह होता है.
वाल्मीकी टाइगर रिजर्व अंतर्गत वाल्मीकीनगर के वन क्षेत्र पदाधिकारी अवधेश कुमार सिंह ने बताया कि ''बरसात के मौसम में आदिवासी भुटकी के लिए चोरी छिपे जंगल के भीतर में जाते हैं और भुटकी चुनते हैं. यह मॉनसून सत्र में हीं पाया जाता है. इस दौरान अप्रिय घटनाएं घटित होने के चांस बढ़ जाते हैं.''