समस्तीपुर: होली का नाम सुनते ही लोगों के ऊपर रंगों का खुमार चढ़ने लगता है. रंगों के त्यौहार होली की ऐसी उमंग होती है, जहां लोग उम्र की सीमा भूलकर रंगों के खुमार में डूब जाते हैं. कुछ ऐसा ही रंगों का खुमार चढ़ाने वाली होली बिहार के समस्तीपुर में खेली जाती है. जिले के रोसड़ा से पांच किलोमीटर दूर स्थित भिरहा गांव में तीन दिनों तक होली की धूम रहती है. भिरहा में वृंदावन की तर्ज पर होली (Holi like Vrindavan in Bhiraha of Bihar) समारोह का आयोजन होता है. कहा भी जाता है कि अगर आप होली के सही मायनों को समझना व देखना चाहते हैं तो इस खास मौके पर भिरहा जरूर आएं.
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सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल: भिरहा गांव के लोगों को होली का इंतजार बेसब्री से रहता है, क्योंकि यहां की होली काफी खास है. इस होली में मजहब, समुदाय, जाति, धर्म की सारी दीवारें खत्म हो जाती है. यहां रंगों के त्यौहार की अनोखी होली काफी प्रसिद्ध है. भिरहा की होली की तुलना वृंदावन की होली से होती है. होली में लोग सभी समुदाय से चंदा इकट्ठा कर होली का त्यौहार मनाते हैं. भिरहा की होली में बीते 200 सालों से चली आ रही परंपरा वक्त के साथ और भी खास होती जा रही है. यहां के होली पोखर पर होली का रंग ऐसा दिखता है कि दूर-दूर से आने वाले लोग इसमें खुद को सराबोर होने से रोक नहीं पाते हैं.
प्राकृतिक रंगों से खेली जाती है होली: भिरहा की इस होली में आपसी सौहार्द के रंग में हर कोई सराबोर होता है. मान्यताओं के अनुसार बीते 200 सालों से वृंदावन के तर्ज पर भिरहा के इस पोखर पर होली का अलग रंग दिखता है. स्थानीय और दूरदराज से लाखों लोग इस मौके पर यहां होली के रंग में खुद को रंगने आते हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार भिरहा में एक दूसरे पर डाले जाने वाला रंग भी काफी अलग होता है. विभिन्न प्राकृतिक तरीकों से इस रंग और गुलाल को यहां बनाया जाता है.
तीन दिनों तक मची रहती धूम: बहरहाल, बदलते वक्त के साथ भिरहा तो बदला, लेकिन यहां के होली को लेकर चला आ रहा वह पारंपरिक संस्कृति वक्त के साथ और भी गहरी होती जा रही है. तीन दिनों के उत्सव में एक नृत्य और बैंड प्रतियोगिता होती है, जो अन्य राज्यों से आते हैं. भिरहा गांव की सबसे बड़ी खासियत है कि यहां गांव के 3 टोले में होली का उत्सव काफी जोर-शोर से मनाया जाता है. इस होली में महिला, बच्चे कहें तो हर उम्र के लोग खुलकर होली मनाते हैं.
भीड़ में नहीं होता एक भी सुरक्षाकर्मी: सबसे जो चौंकाने वाली बात होती है हजारों की भीड़ में कहीं भी एक भी सुरक्षाकर्मी या पुलिसवाला नजर नहीं आता है. इस सामाजिक सौहार्द का प्रतीक होली के इस महात्यौहार में रंगों के उन्माद के बीच सभी एक-दूसरे का ख्याल रखते हैं और किसी भी प्रकार की कभी आज तक गड़बड़ी नहीं हुई. होली से एक दिन पूर्व होलिका दहन की संध्या से ही पूरब, पश्चिम और उत्तर टोले में निर्धारित स्थानों पर अलग-अलग सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन जारी रहता है. वहीं, इस मौके पर यहां आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम भी काफी मनमोहक और मनोरंजन भरे होते हैं.
होली के मौके पर यहां देशभर के अलग-अलग जगह से आए मशहूर बैंड पार्टी के बीच कंपटीशन होता है. प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को पुरस्कार से भी नवाजा जाता है. इस दौरान क्षेत्र के हजारों लोग उपस्थित रहते हैं. होली के दिन नृत्य का आनंद लेने के पश्चात तीनों टोली दोपहर बाद गांव में स्थित फगुआ पोखर पहुंचते हैं, जहां पूरे गांव के रंगों की पिचकारी से पोखर का पानी को गुलाबी रंग किया जाता है. इसके बाद गाने की धुन पर एक दूसरे को रंग डालकर जश्न मनाते हैं.
ग्रामीणों का कहना है कि साल 1935 में कुछ लोग होली देखने के लिए वृंदावन गए थे, जब वहां से लौटकर आए तो साल 1936 में उसी की तर्ज पर होली मनाने की शुरूआत की, जो लगातार उस वक्त से चली आ रही है. कभी कर्पूरी ठाकुर, जगन्नाथ मिश्रा, बिंदेश्वरी दुबे, जगजीवन राम, रामविलास पासवान और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इसका आनंद लिया था.
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