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इस गांव में स्कूल के नाम पर है सिर्फ बिल्डिंग, 200 नौनिहालों का भविष्य अंधकार में

बिहार के धनरुआ में एक गांव है जिसका नाम है बसौढी. यहां के 200 के करीब बच्चों का भविष्य अंधकार में है. 21वीं सदी में भी इस गांव में एक स्कूल नहीं है जहां ये बच्चे अक्षरों का ज्ञान ले सकें. गांव में वैसे तो स्कूल के लिए बिल्डिंग 1991 में ही बन गई थी लेकिन न तो इसे कोई युनिट मिला न ही इसमें पढ़ाई शुरू हुई. गांव वालों ने बहुत कोशिश भी की, अधिकारियों ने जांच भी करवाई लेकिन हुआ कुछ नहीं. रिपोर्ट को पढ़िए.

स्कूल की बिल्डिंग के आगे खड़े गांव के बच्चे और उनके परिजन
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Published : Mar 19, 2021, 1:36 PM IST

Updated : Mar 19, 2021, 1:56 PM IST

धनरूआ: शिक्षा, उच्च शिक्षा और उससे भी आगे, आज के न्यू इंडिया के लिए ये कितना जरूरी है इस बात को आज के डेट में अनपढ़ भी समझते हैं. अगर शिक्षा मिले तो एक व्यक्ति अपनी कई पीढ़ियों की दशा के बदलने के संग ही देश के विकास में अपना अहम और अतुलनीय योगदान दे सकता है. पढ़ने के लिए जरूरी है किताब और एक स्कूल. जहां जाकर पढ़ाई हो सके. लेकिन क्या हो जब स्कूल तो हो, लेकिन वो बस एक बिल्डिंग मात्र. जाहिर है वह जगह शिक्षा को छोड़ गांव के बाकी समाजिक कामों में आएगी. ऐसा ही एक गांव बिहार के धनरूआ में है जिसका नाम है बसौढी.

इसे भी पढ़ें:धनरूआ में एक वेटनरी डॉक्टर के सहारे 45 हजार पशु, पशुपालक हैं परेशान

1991 में बन गई थी स्कूल के लिए बिल्डिंग

बसौढ़ी के बच्चों को शिक्षा मिले इसके लिए कोशिश तो 1991 में ही हो गई थी. गांव में सरकारी स्कूल खोलने को लेकर एक बिल्डिंग भी बनवाई गई लेकिन इसके बाद इन कोशिशों ने दम तोड़ दिया. बिल्डिंग तो बनी लेकिन यहां स्कूल नहीं खुला, बच्चे इंतजार करते रहे और बड़े हो गए. उन बच्चों के बच्चे अब इसी स्कूल के चालू होने की राह देख रहे हैं. आलम ये है कि गांव में अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे पढ़ें, बच्चे भी चाहते हैं कि स्कूल चालू हो तो किताब और मास्टर जी का चेहरा देखें. लेकिन वह कोशिश कहीं जो 1991 में हुई थी, ऐसी गुम हुई है कि कोई चाहकर भी अब उसे सरकारी फाइलों के बीच से निकालना नहीं चाहता.

3 कि.मी. दूर है स्कूल

बिहार सरकार के शिक्षा के दावे इस गांव की जमीन पर आकर दम तोड़ देते हैं. मई नेतौल पंचायत के बसौढी गांव में तकरीबन दो सौ से अधिक बच्चे हैं जिनका भविष्य अज्ञान के अंधकार में खोता जा रहा है. गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर दूसरे गांव में एक स्कूल तो है लेकिन बच्चों के लिए उतनी दूर पैदल जाना कठिन है. ऐसे में इन बच्चों को गांव में स्कूल के लिए बनी जर्जर हो चुके मकान के जिर्णोद्वार का रास्ता ताकने के अलावा और कोई चारा नहीं है.

इसे भी पढ़ें: शिक्षा विभाग विद्यार्थियों के भविष्य से कर रहा खिलवाड़, DM से छात्र-छात्राओं ने प्रदर्शन कर शिक्षक की मांग की

गांव वालों ने जनता दरबार में उठाया मुद्दा

गांव वाले बताते हैं कि जर्जर हो रही बिल्डिंग में स्कूल खुलवाने के लिए उन्होंने शिक्षा मंत्री से मुलाकात और मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक में गुहार लगाई लेकिन सुशासन के राज में उनके गांव के लिए स्कूल का ऑप्शन शायद है ही नहीं. इसीलिए उन लोगों ने भी इसके लिए अब प्रयास लगभग बंद ही कर दिया है. बताया तो जाता है कि शिक्षा पदाधिकारी ने भी कई बार जांच करवाई लेकिन फिर सब पुरानी स्थिति में ही लौट गया.

फाइलों के बीच दबी है जांच रिपोर्ट

अब जब गांव में स्कूल का मुद्दा एक बार फिर उठा है तो अधिकारी भी फाइलों को खंगालने से लेकर इसे यूनिट तक देने की बात कह रहे हैं. धनरूआ के प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी अजय कुमार ने भरोसा दिलाया है कि पुरानी जांच रिपोर्ट को एक बार फिर देखा जाएगा. जिला मुख्यालय से इस बारे में पत्राचार किया जाएगा. लेकिन उनके इसी बात पर स्कूल समन्वयक यह कहते हुए सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं कि जांच रिपोर्ट तो फाइलों के बीच में दबी है. जिसके कारण आज तक स्कूल का यूनिट तक नहीं हुआ है. बात जो भी हो लेकिन अधिकारी अगर कोशिश करें तो बसौढी के 200 बच्चों को अज्ञानता के निकाला जा सकता है.

धनरूआ: शिक्षा, उच्च शिक्षा और उससे भी आगे, आज के न्यू इंडिया के लिए ये कितना जरूरी है इस बात को आज के डेट में अनपढ़ भी समझते हैं. अगर शिक्षा मिले तो एक व्यक्ति अपनी कई पीढ़ियों की दशा के बदलने के संग ही देश के विकास में अपना अहम और अतुलनीय योगदान दे सकता है. पढ़ने के लिए जरूरी है किताब और एक स्कूल. जहां जाकर पढ़ाई हो सके. लेकिन क्या हो जब स्कूल तो हो, लेकिन वो बस एक बिल्डिंग मात्र. जाहिर है वह जगह शिक्षा को छोड़ गांव के बाकी समाजिक कामों में आएगी. ऐसा ही एक गांव बिहार के धनरूआ में है जिसका नाम है बसौढी.

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1991 में बन गई थी स्कूल के लिए बिल्डिंग

बसौढ़ी के बच्चों को शिक्षा मिले इसके लिए कोशिश तो 1991 में ही हो गई थी. गांव में सरकारी स्कूल खोलने को लेकर एक बिल्डिंग भी बनवाई गई लेकिन इसके बाद इन कोशिशों ने दम तोड़ दिया. बिल्डिंग तो बनी लेकिन यहां स्कूल नहीं खुला, बच्चे इंतजार करते रहे और बड़े हो गए. उन बच्चों के बच्चे अब इसी स्कूल के चालू होने की राह देख रहे हैं. आलम ये है कि गांव में अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे पढ़ें, बच्चे भी चाहते हैं कि स्कूल चालू हो तो किताब और मास्टर जी का चेहरा देखें. लेकिन वह कोशिश कहीं जो 1991 में हुई थी, ऐसी गुम हुई है कि कोई चाहकर भी अब उसे सरकारी फाइलों के बीच से निकालना नहीं चाहता.

3 कि.मी. दूर है स्कूल

बिहार सरकार के शिक्षा के दावे इस गांव की जमीन पर आकर दम तोड़ देते हैं. मई नेतौल पंचायत के बसौढी गांव में तकरीबन दो सौ से अधिक बच्चे हैं जिनका भविष्य अज्ञान के अंधकार में खोता जा रहा है. गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर दूसरे गांव में एक स्कूल तो है लेकिन बच्चों के लिए उतनी दूर पैदल जाना कठिन है. ऐसे में इन बच्चों को गांव में स्कूल के लिए बनी जर्जर हो चुके मकान के जिर्णोद्वार का रास्ता ताकने के अलावा और कोई चारा नहीं है.

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गांव वालों ने जनता दरबार में उठाया मुद्दा

गांव वाले बताते हैं कि जर्जर हो रही बिल्डिंग में स्कूल खुलवाने के लिए उन्होंने शिक्षा मंत्री से मुलाकात और मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक में गुहार लगाई लेकिन सुशासन के राज में उनके गांव के लिए स्कूल का ऑप्शन शायद है ही नहीं. इसीलिए उन लोगों ने भी इसके लिए अब प्रयास लगभग बंद ही कर दिया है. बताया तो जाता है कि शिक्षा पदाधिकारी ने भी कई बार जांच करवाई लेकिन फिर सब पुरानी स्थिति में ही लौट गया.

फाइलों के बीच दबी है जांच रिपोर्ट

अब जब गांव में स्कूल का मुद्दा एक बार फिर उठा है तो अधिकारी भी फाइलों को खंगालने से लेकर इसे यूनिट तक देने की बात कह रहे हैं. धनरूआ के प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी अजय कुमार ने भरोसा दिलाया है कि पुरानी जांच रिपोर्ट को एक बार फिर देखा जाएगा. जिला मुख्यालय से इस बारे में पत्राचार किया जाएगा. लेकिन उनके इसी बात पर स्कूल समन्वयक यह कहते हुए सवालिया निशान खड़ा कर देते हैं कि जांच रिपोर्ट तो फाइलों के बीच में दबी है. जिसके कारण आज तक स्कूल का यूनिट तक नहीं हुआ है. बात जो भी हो लेकिन अधिकारी अगर कोशिश करें तो बसौढी के 200 बच्चों को अज्ञानता के निकाला जा सकता है.

Last Updated : Mar 19, 2021, 1:56 PM IST
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