पटना: बिहार की सियासत को देश के अन्य राज्यों की राजनीति से थोड़ा हटकर माना जाता है. यहां कब कौन सा दल पाला बदल दे भरोसा नहीं. लेकिन इस बार बिहार में भी राजनीति ने करवट ले ली है. विरासत में 'सोने की चम्मच' पाने वाले तेजस्वी यादव उस बदलती राह पर चल भी पड़े हैं. बिहार की पुरानी सियासत से इतर किसी नई रणनीति पर वो काम कर रहे हैं.
अनुभव से आ रहा बदलाव
तेजस्वी यादव अपने पिछले चुनावों के अनुभव से सीखकर अबकी बार 2020 में स्थायित्व की ओर बढ़ रहे हैं. तेजस्वी का महागठबंधन बनाना और फिर दूसरे दलों की मीटिंग या प्रदर्शन से दूर रहना, इस बात का संकेत है कि वो अब अवसरवादियों से दूर रहना चाहते हैं.
अवसरवादियों पर नहीं है भरोसा
हाल ही में मोदी का साथ छोड़ महागठबंधन में शामिल होने वाले कुशवाहा की अगुवाई भी उन्हें रास नहीं आ रही है. नीतीश से सुशासन की मेहरबानी से सीएम बनने और फिर हटाए जाने पर खटपट, फिर महागठबंधन में शामिल होने वाले मांझी पर भी उनको विश्वास नहीं है. तेजस्वी बिहार के राजनीतिक शतरंज का बादशाह बने रहना चाहते हैं. ऐसे में उन्हें सबसे पहले महागठबंधन में बड़ा भाई बने रहना जरूरी है, लेकिन कभी-कभी मांझी के बयानों, सीट की मांग और नाराजगी पर तेजस्वी चकित होते रहे हैं. इसलिए भी तेजस्वी किसी पर भरोसा नहीं करना चाहते.
रामविलास ने भी दिया धोखा
बिहार में मौसम विज्ञानी रामविलास पासवान भी ऐसे ही चकमा दे चुके है. तेजस्वी ये जानते हैं कि जब एलजेपी बिहार में खत्म हो चुकी थी और रामविलास की सिय़ासत अंतिम सांसें गिन रही थी, तो लालू ने उन्हें राज्यसभा भेजकर राजनीति का जीवनदान दिया था, लेकिन हवाओं का रुख बदलते ही रामविलास पासवान ने पलटी मार ली. तेजस्वी को भी इस बात का इल्म है कि बिहार में सियासत कब और किस तरीके से पलटी मारती है.
नीतीश भी मार गए पलटी
देश में पीएम के लिए जब एनडीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की सियासत बदली, तो गुजरात के विकास मॉडल और नीतीश के बिहार के विकास के विभेद के बाद भी नरेंद्र मोदी पीएम बने. बिहार में उनके सहयोगी नीतीश को खटकने लगा, लिहाजा उन्होंने पुरानी दोस्ती तोड़ कुर्सी के लिए लालू से समझौता कर लिया और राजद के साथ बिहार में सरकार बनाई, लेकिन फिर वक्त का पहिया घूमकर वहीं आ गया और नीतीश कुमार लालू को छोड़ दोबारा एनडीए में शामिल हो गए. यह बात भी तेजस्वी को खटकी.
पप्पू की आकांक्षाओं से निराशा
मांझी लोकसभा चुनावों से लेकर विधानसभा चुनावों में सीटों को लेकर नाराज होते रहे, तेजस्वी की नजर में उलूल-जुलूल बयान भी देते रहे. इसलिए भी तेजस्वी का वो विश्वास नहीं जीत पाए. उधर लालू के बाद पार्टी का उत्तराधिकारी बनना पप्पू यादव का सपना था. लालच के चलते पार्टी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. लालू परिवार के लिए वो भी एक झटका था.
विरासत की सियासत कबतक चलेगी
तेजस्वी अब ये सोचने लगे हैं कि पिता कि विरासत के सहारे वो 'राजा बाबू' बने रहेंगे, लेकिन ऐसे दलों और लोगों ने तेजस्वी की मंशा पर पानी फेर दिया. तेजस्वी को ये लगता है कि कुशवाहा तो अभी नए हैं, लेकिन आगे चलकर मौका मिलते ही वो भी रंग दिखा सकते हैं. नीतीश कुमार, रामविलास पासवान ने तो पहले ही दिखा दिया, रहे मांझी तो उन पर तो अभी भरोसा नहीं है.
कांग्रेस ही अपना पुराना साथी
ऐसे में तेजस्वी यादव इस बार अवसरवादियों से बचकर सीधे कांग्रेस के साथ जुड़े रहना चाहते हैं. क्योंकि कांग्रेस से उनका पुराना नाता है और दूसरी बड़ी पार्टियों की उल्टी धूरी पर कांग्रेस काम करती रही. ऐसे में अब ये देखना दिलचस्प होगा कि तेजस्वी महागठबंधन का हिस्सा रहेंगे या फिर बिहार में थर्ड फ्रंट शुरू होगा, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से तेजस्वी यादव रालोसपा, हम, वाम सभी से दूरी बना रहे हैं.