पटना: पत्थर तराशने वाले कारीगरों की जिंदगी को लॉक डाउन ने बेरंग कर दिया है. कारीगर आज भी पत्थरों को तराशने में तो जुटे हुए हैं. लेकिन बाजार में खरीददार नदारद हैं. इस वजह से पत्थर को तराश कर अपने पेट भरने वाले कारीगरों के सामने भुखमरी की समस्या आ गई है. हालांकि, इनके लिए कई सरकारी योजनाएं बनाई गई. लेकिन ये योजनाएं अब तक इनके लिए केवल एक छलावा साबित हुई है.
'दाने-दाने को मोहताज'
आधुनिकता के इस दौर में पत्थर के शिल्पकारों की संख्या अब काफी कम रह गई है. राजधानी पटना के विग्रहपूर इलाके में 125 की संख्या में पत्थर के शिल्पकार रहते हैं और पारंपरिक सिल बट्ट, जाता-च्क्की बनाकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं. लेकिन लॉक डाउन के वजह से इनकी रोजी रोटी पर ग्रहण लगा चुका है. वर्तमान समय में ये शिल्पकार दाने-दाने को मोहताज हैं. इनके सर के ऊपर ना तो छत है और नाही इनके पास भोजन के लिए अनाज हैं.
'जीवनशैली का खास हिस्सा था सिल बट्ट'
इसको लेकर शिल्पकारों ने बताया कि हमलोग आज भी लॉक डाउन खुलने के इंतजार में पत्थरों पर कारीगरी कर रहे हैं. शिल्पकार गणेश का कहना है कि सरकारी योजनाओं का लाभ मिले इसके लिए उन लोगों ने आधार कार्ड वोटर आईडी कार्ड और जनधन खाते तक खुलवाए. लेकिन उसका कुछ भी फायदा नहीं हुआ है. वर्तमान तारीख में उनकी रोजी-रोटी पर सबसे बड़ा संकट मंडरा रहा है.
वहीं, शिल्पकार अर्जुन कुमार और राम बाबू जैसे कारीगरों ने भी पारंपरिक पेशा नहीं छोड़ा है. भले ही खरीदार आए या नहीं आए. लेकिन हर दिन नई उम्मीदों के साथ लॉकडाउन के बावजूद से हर रोज काम कर रहे हैं.
'गांव में घुसने भी नहीं दिया जा रहा है'
कारीगरों का कहना है कि अगर वह किसी तरह से ग्रामीण इलाकों सिल बट्ट को बेचने निकल भी जाते हैं, तो लोग उनके सामान को नहीं खरीदते हैं. कई गांवों में लोग कोरोना में तो नहीं घुसने भी नहीं दिया जाता. रोटी के लिए जद्दोजहद करनी पर रही है. लॉक डाउन से पहले 300-400 तक की कमाई हो जाती थी. कोरोना महामारी के वजह से रोजी-रोटी पर समस्या आन पड़ी है. प्रशासन ने रास्ते को भी सील कर दिया है. इलाके में ग्राहक के आने की तो दूर की बात है. यहां से बाहर निकलना भी दूभर कार्य हैं. दो-चार दिनों में एक बार किसी ने कुछ दे दिया तो भोजन मिला नहीं तो भूखे पेट सोने की नौबत भी आ जाती है.
क्या कहते हैं मंत्री नीरज कुमार?
इस मामले पर बिहार सरकार के मंत्री नीरज कुमार ने बताया कि हमारी सरकार गरीबों के लिए चिंतित है. जिन्हें राशन कार्ड नहीं है उन्हें राशन कार्ड दिया जा रहा है. उन्होंने बताया कि इसके अलावे गरीबों को भोजन कराने के लिए राहत कैंप भी चालए जा रहे हैं.
आधुनिकता के बाद लॉकडाउन की मार
गौरतलब है कि सिल बट्ट पहले हर घर की शान हुआ करती थी. खास कर यह ग्रमीण जीवनशैली की एक अहम हिस्सा थी. बताया जा रहा है कि पटना समेत आसपास के इलाके में कंजर जाति के लोग सैकड़ों साल से इस पेशे में लगे है. ये लोग यूपी के गोरखपुर के रहने वाले हैं. लेकिन पिछले 70 सालों से पटना में रहकर जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं. इन लोगों के पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड भी है, बावजूद इन्हें सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है.