पटना: बदलते युग के साथ ही हमारी संस्कृति में भी कई बदलाव देखने को मिलते हैं. उन्हीं में से एक डोली प्रथा है. आज गांव-कस्बों में डोली प्रथा समाप्त हो गई है. आधुनिक युग में अब लग्जरी गाड़ियां ही डोली का स्थान ले चुकी है. क्षेत्र में अब ना तो डोली नजर आती है और ना ही कहार. डोली प्रथा के विलुप्ति के कगार पर पहुंचने के कारण इस धंधे (Kahar Became Unemployed In Patna) से जुड़े लोग (कहार) भी अपना व्यवसाय बदल रहे हैं. खासकर पटना के कहार बेरोजगार हो गए हैं.
यह भी पढ़ें- तेजस्वी ने कहा- गुपचुप तरीके से नहीं की शादी...सबका था आशीर्वाद, राजश्री बोलीं- 'He Is Very Smart'
एक जमाना था जब, शादी ब्याह में बारात के वक्त में डोली का अहम रोल माना जाता था. इसके बिना दरवाजा यानी बारात नहीं लगती थी, लेकिन बदलते दौर के इस वक्त में डोली की प्रथा अब धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रही है. इस रोजगार से जुड़े कई लोग बेरोजगार हो गए हैं. अब तो गांव में भी इक्का-दुक्का ही डोली दिख जाए तो बड़ी बात है.
इसे भी पढ़ें- शादी के बाद पटना पहुंचकर बोले तेजस्वी- 'रेचल अब बन गईं हैं राजश्री यादव, पिताजी ने रखा है नाम'
नालंदा जिले के सुनील की मानें तो 'पहले दूर-दूर से लोग शादी विवाह के दौरान डोली की मांग किया करते थे. मांग के कारण कहार व्यस्त रहते थे. लगन के वक्त में डोली की बहुत मांग रहती थी. लेकिन अब धीरे-धीरे डोली विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी है. सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र में ही डोली के दर्शन हो पाते हैं. आज की युवा पीढ़ी को यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर डोली क्या होती है, डोली प्रथा क्या थी?'
"हमारे पूर्वजों के समय से डोली की प्रथा चली आ रही थी. अब धीरे धीरे गाड़ी-घोड़े का जमाना हो गया है. डोली की प्रथा अब तो खत्म ही हो चुकी है. पहले हजार, पांच सौ कमा लेते थे. अब रोजगार पूरी तरह से बंद है."- सुनील प्रसाद, डोली उठाने वाले कहार
डोली प्रथा का इतिहास काफी पुराना है. इसे मुगलकाल की प्रथा माना जाता है. बिहार में भी डोली प्रथा का अपना विशेष महत्व रहा है. माना जाता है कि सीतामढ़ी में त्रेतायुग से डोली प्रथा की शुरूआत हुई थी. जनकपुर (नेपाल) में स्वयंवर में धनुष तोड़कर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने मां सीता से शादी रचायी. शादी के बाद डोली से ही मां जानकी अपने ससुराल अयोध्या गई थीं.
इसे भी पढ़ें- मिट्टी के दीयों का सिकुड़ रहा बाजार, लेकिन पुश्तैनी पेशा को बचाने में जुटे हैं कुम्हार
एक समय था, जब डोली बादशाहों और उनकी बेगमों या राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी. तब आज की भांति न तो चिकनी सड़कें थीं और न ही आधुनिक साधन. तब घोड़े के अलावा डोली प्रमुख साधनों में शुमार थी. इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था. उसके बाद शादियों में इसका इस्तेमाल होने लगा. प्रचलित परंपरा और रस्म के अनुसार शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं बारी-बारी से दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी. इसके बदले कहारों को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी. दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे.
दूल्हा दुल्हन की शादी के बाद भी डोली की अहम भूमिका होती थी. विदा हुई दुल्हन अपने ससुराल डोली में ही जाती थी. इस दौरान जब डोली गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं और बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे. घूंघट हटवाकर दुल्हन देखने और उसे पानी पिलाकर ही जाने देते थे, जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे.लेकिन आज डोली प्रथा की लगभग समाप्ति हो चुकी है, इसका स्थान लग्जरी गाड़ियों ने ले ली है.
ऐसी ही विश्वसनीय खबरों के लिए डाउनलोड करें ETV BHARAT APP