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पत्तल बनाने वालों की आर्थिक हालत खराब, सरकारी मदद की दरकार

सखुआ के पत्तल पर खाने की बात हो या फिर इससे जुड़े रोजगार की दोलों ही नदारद होती जा रही है. लेकिन वक्त बदला, पत्तल की जगह थर्मोकोल और प्लास्टिक ने ले लिया. जिसके कारण लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं.

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Published : Jun 17, 2020, 11:06 PM IST

नवादा
नवादा

नवादा: आधुनिकता के इस दौर में हम अपने जड़ों से छूटे जा रहे हैं, चाहे वो सखुआ के पत्तल पर खाने की बात हो या फिर इससे जुड़े रोजगार की. लेकिन वक्त बदला पत्तल की जगह थर्माोकोल और प्लास्टिक ने ले लिया. जिसने जंगल और पहाड़ के तराई में बसे गरीबों के जीवनोपार्जन का जरिया छीन लिया. जिसके कारण लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं.

बद से बत्तर होती जा रही है हालत
दरअसल, हम बात कर रहे हैं जिले के अकबरपुर प्रखंड के पहाड़ की तराई में रासलपुरा की. जहां लोगों की आजीविका का साधन सखुआ के बना पत्तल है. लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध में अब पत्तल खरीदने वालों पर किसी की नजर नहीं पड़ती. इसी कारण पत्तल बनाने वाले लोगों की हालत दिन पर दिन बद से बत्तर होती जा रही है. उन्हें दिन रात मेहनत करने के बाद भी न पत्तल बिक पाती है और न मेहनत के मुताबिक दाम मिल पाता है.

nawada
सुनैना, ग्राणीण

'थर्माोकोल और प्लास्टिक के पत्ते ने चौपट किया धंधा'
पत्तल बनाने वाली सुनैना ने कहा कि मिझे इस बात कि चिंता है की अगर हालात ऐसे ही रहे तो उनके बच्चे पढ़ेंगे कैसे? बिटिया की शादी कैसे होगी. एक मां के लिए यह सोचना भी लाजिमी है. क्योंकि सभी मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं. पहले थर्माोकोल और प्लास्टिक ने इनके पुश्तैनी कारोबार को चौपट कर दिया. अब कोरोना काल ने इनके कारोबार को खत्म कर दिया. वहीं, रामविलास ने कहा कि पहले हम लोग पांच-पांच हजार पत्तल 8 दिन में बेच देते थे और 3-4 हजार की कमाई हो जाती थी. जब से यह फाइबर का पता चला है, तब से सब खत्म हो गया. उन्होंने कहा कि बाल-बच्चे भूखे मर रहे है. अगर सरकार फिर से सकवा का पता चला दे, तो हम लोगों का पेट भरना शुरू हो जाएगा.

nawada
पत्तल बनाते ग्रामीण

शादी-विवाह और श्राद्ध कार्यों में होता था उपयोग
एक वक्त था जब शादी-विवाह से लेकर श्राद्ध कार्य तक में सखुआ के पत्तों से बने पत्तल का उपयोग किया जाता था. लोगों को पंगत में बैठाकर इसी पत्तल में भोजन कराया जाता था. हर साल शादी-विवाह और अन्य कार्यों में पत्तल बनाने वालों की अच्छी कमाई हो जाया करता थी.

देखें पूरी रिपोर्ट

पत्तल से शरीर स्वस्थ्य और पर्यावरण संरक्षित
अगर पर्यावरण के लिहाज से देखें तो थर्मोकोल और प्लास्टिक के पत्ते को जलाने पर प्रदूषण हो होता हैं, उसे मिट्टी के अंदर गाड़ने पर भी उसका अस्तित्व खत्म नहीं होता है. वहीं, सखुआ पत्ते से बना पत्तल किसी भी कार्य में उपयोग होने के बाद उसके पत्तल को आसानी से जलाने के साथ मिट्टी में दबा देने पर जमीन की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ सकती है.

nawada
पत्तल बनाती ग्रामीण

क्या कहते हैं अधिकारी
जिला उद्योग महाप्रबंधक नवल किशोर पासवान ने कहा कि आपके माध्यम से संज्ञान में आया है. वाकई में इस पर ध्यान देने की जरूरत है. इसके लिए मैं विभाग के वरीय अधिकरी से बात करूंगा. हालांकि, अतीत का हिस्सा बनते जा रहे सखुआ के पत्तल की फिर वापसी हो सकती है. अगर आर्थिक पैकेज से इनकी मदद की जाए. यह न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के लोकल इज वोकल के मुहिम को बल प्रदान करेगा. बल्कि शरीर को कई बीमारियों से भी बचायेगा.

नवादा: आधुनिकता के इस दौर में हम अपने जड़ों से छूटे जा रहे हैं, चाहे वो सखुआ के पत्तल पर खाने की बात हो या फिर इससे जुड़े रोजगार की. लेकिन वक्त बदला पत्तल की जगह थर्माोकोल और प्लास्टिक ने ले लिया. जिसने जंगल और पहाड़ के तराई में बसे गरीबों के जीवनोपार्जन का जरिया छीन लिया. जिसके कारण लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं.

बद से बत्तर होती जा रही है हालत
दरअसल, हम बात कर रहे हैं जिले के अकबरपुर प्रखंड के पहाड़ की तराई में रासलपुरा की. जहां लोगों की आजीविका का साधन सखुआ के बना पत्तल है. लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध में अब पत्तल खरीदने वालों पर किसी की नजर नहीं पड़ती. इसी कारण पत्तल बनाने वाले लोगों की हालत दिन पर दिन बद से बत्तर होती जा रही है. उन्हें दिन रात मेहनत करने के बाद भी न पत्तल बिक पाती है और न मेहनत के मुताबिक दाम मिल पाता है.

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सुनैना, ग्राणीण

'थर्माोकोल और प्लास्टिक के पत्ते ने चौपट किया धंधा'
पत्तल बनाने वाली सुनैना ने कहा कि मिझे इस बात कि चिंता है की अगर हालात ऐसे ही रहे तो उनके बच्चे पढ़ेंगे कैसे? बिटिया की शादी कैसे होगी. एक मां के लिए यह सोचना भी लाजिमी है. क्योंकि सभी मां-बाप अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित रहते हैं. पहले थर्माोकोल और प्लास्टिक ने इनके पुश्तैनी कारोबार को चौपट कर दिया. अब कोरोना काल ने इनके कारोबार को खत्म कर दिया. वहीं, रामविलास ने कहा कि पहले हम लोग पांच-पांच हजार पत्तल 8 दिन में बेच देते थे और 3-4 हजार की कमाई हो जाती थी. जब से यह फाइबर का पता चला है, तब से सब खत्म हो गया. उन्होंने कहा कि बाल-बच्चे भूखे मर रहे है. अगर सरकार फिर से सकवा का पता चला दे, तो हम लोगों का पेट भरना शुरू हो जाएगा.

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पत्तल बनाते ग्रामीण

शादी-विवाह और श्राद्ध कार्यों में होता था उपयोग
एक वक्त था जब शादी-विवाह से लेकर श्राद्ध कार्य तक में सखुआ के पत्तों से बने पत्तल का उपयोग किया जाता था. लोगों को पंगत में बैठाकर इसी पत्तल में भोजन कराया जाता था. हर साल शादी-विवाह और अन्य कार्यों में पत्तल बनाने वालों की अच्छी कमाई हो जाया करता थी.

देखें पूरी रिपोर्ट

पत्तल से शरीर स्वस्थ्य और पर्यावरण संरक्षित
अगर पर्यावरण के लिहाज से देखें तो थर्मोकोल और प्लास्टिक के पत्ते को जलाने पर प्रदूषण हो होता हैं, उसे मिट्टी के अंदर गाड़ने पर भी उसका अस्तित्व खत्म नहीं होता है. वहीं, सखुआ पत्ते से बना पत्तल किसी भी कार्य में उपयोग होने के बाद उसके पत्तल को आसानी से जलाने के साथ मिट्टी में दबा देने पर जमीन की उपजाऊ क्षमता भी बढ़ सकती है.

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पत्तल बनाती ग्रामीण

क्या कहते हैं अधिकारी
जिला उद्योग महाप्रबंधक नवल किशोर पासवान ने कहा कि आपके माध्यम से संज्ञान में आया है. वाकई में इस पर ध्यान देने की जरूरत है. इसके लिए मैं विभाग के वरीय अधिकरी से बात करूंगा. हालांकि, अतीत का हिस्सा बनते जा रहे सखुआ के पत्तल की फिर वापसी हो सकती है. अगर आर्थिक पैकेज से इनकी मदद की जाए. यह न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के लोकल इज वोकल के मुहिम को बल प्रदान करेगा. बल्कि शरीर को कई बीमारियों से भी बचायेगा.

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