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जयप्रकाश नारायण का सपना तोड़ रहा दम, कभी लगता था कंबल बुनकरों का जमावाड़ा, आज जानवरों का है बसेरा - कंबल बुनने की कला

60 के दशक में यहां स्वदेशी आंदोलन के सच्चे सिपाही जयप्रकाश नारायण ने पकरीबरावां के बरतारा गांव में कंबल बुनकर केंद्र की शुरुआत की थी. जो अब जर्जर हालत में है.

कंबल बुनकर केंद्र
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Published : Apr 3, 2019, 1:30 PM IST

नवादाः जिले के पकरीबरावां प्रखंड के बरतारा गांव में जयप्रकाश नारायण के सपने ने दम तोड़ दिया है.एक समय था जब यहां कंबल बुनकरों की भीड़ लगी रहती थी. आज यह जानवरों का ठिकाना बन गया है. जबकि बेरोजगारी के इस दौर में इसे रोजगार सृजन का मुख्य केंद्र होना चाहिए था.

दरअसल, 60 के दशक में यहां स्वदेशी आंदोलन के सच्चे सिपाही जयप्रकाश नारायण ने पकरीबरावां के बरतारा गांव में कंबल बुनकर केंद्र की शुरुआत की थी.जिसका उद्देश्य था लोगों को प्रशिक्षित कर उन्हें स्वरोजगार से जोड़ना. उस दौरान लोगों ने बढ़चढ़ कर कंबल बुनने की कला सीखी और जेपी के स्वावलंबी योजना की रफ्तार भी बढ़ाई. यहां दूर-दराज से लोग प्रशिक्षण लेने आते थे.यहां जरूरत के सभी मशीनें उपलब्ध थीं.

अब पशुओं का है जमावाड़ा
सैकड़ों की संख्या में यहां लोग एक साथ बैठकर कंबल बुनने का काम करते थे.यहां के कंबल कीगुणवत्ता की चारों ओरचर्चा थी.यहां के बनाए गएकंबल देश के कई हिस्सों में सप्लाई होते थे.यह सिलसिला करीब 30-35 वर्षों तक चला. लेकिन 90 के दशक आते-आते इस उद्योग ने दम तोड़ दिया. बुनकर केंद्र काफी जर्जर हो गएऔर यह पशुओं के ठहरने का सबसे उत्तम स्थान बना हुआ है.इस गांव कीकई महिलाएं आज भी कंबल बुनकर अपना परिवार चलती हैं.

मेहनतानानहीं मिलने से लोगों ने छोड़ा काम
गांव के बुजुर्ग रामचंद्र भगत कहते हैं, उस समय हम लोग एक लूम पर 2-3 कंबल बुन लेते थे. लूम भदोही के मिर्जापुर, यूपी से आता था. 30-35 साल चला उसके बाद बंद हो गया.समिति चलती थी मेहनताना सही नहीं मिल पाता था, इसलिए लोग काम छोड़ते गए. वहीं, युवक शिव कुमार कहते हैं, इसकी शुरुआत जयप्रकाश नारायण जी ने की थी.यहां का कंबल बर्द्धमान, आसनसोल तक जाताथा. देखरेख सही से नहीं हो सका.कुछ साल पहले रिपेरिंग हुआ लेकिन फिलहाल इसे कोई जनप्रतिनिधि देखनेवाला नहीं है.

बदहाल कंबल बुनकर केंद्र और बयान देते स्थानीय लोग

90 के दशक में समिति को ग्रांट मिलना बंद
एक समय था जब जेपी के ठहरने का सबसे सुरक्षित ठिकाना नवादा हुआ करता था. जिले के लोगों की हालत देख जेपी ने विनोवा भावे के साथ मिलकर इन जिलों में लोगों को स्वावलंबी बनाने की शुरुआत की. उदाहरण के तौर पर सेखोदेवरा का खादी ग्रामद्योग मंडल की स्थापना औरकंबल बुनकर समिति की स्थापना को देखाजा सकताहै. लेकिन, 90 के दशक वाली सरकार ने इसकी उपयोगिता को दरकिनार कर दिया और समिति को भी ग्रांट मिलना बंद हो गया.जिसका परिणाम यह हुआ कि जेपी के सपने ने90 के दशक में ही दम तोड़ दिया.ऐसा लगता है अब जेपी के सपने को संवारने वाला कोई बचा ही नहीं.

नवादाः जिले के पकरीबरावां प्रखंड के बरतारा गांव में जयप्रकाश नारायण के सपने ने दम तोड़ दिया है.एक समय था जब यहां कंबल बुनकरों की भीड़ लगी रहती थी. आज यह जानवरों का ठिकाना बन गया है. जबकि बेरोजगारी के इस दौर में इसे रोजगार सृजन का मुख्य केंद्र होना चाहिए था.

दरअसल, 60 के दशक में यहां स्वदेशी आंदोलन के सच्चे सिपाही जयप्रकाश नारायण ने पकरीबरावां के बरतारा गांव में कंबल बुनकर केंद्र की शुरुआत की थी.जिसका उद्देश्य था लोगों को प्रशिक्षित कर उन्हें स्वरोजगार से जोड़ना. उस दौरान लोगों ने बढ़चढ़ कर कंबल बुनने की कला सीखी और जेपी के स्वावलंबी योजना की रफ्तार भी बढ़ाई. यहां दूर-दराज से लोग प्रशिक्षण लेने आते थे.यहां जरूरत के सभी मशीनें उपलब्ध थीं.

अब पशुओं का है जमावाड़ा
सैकड़ों की संख्या में यहां लोग एक साथ बैठकर कंबल बुनने का काम करते थे.यहां के कंबल कीगुणवत्ता की चारों ओरचर्चा थी.यहां के बनाए गएकंबल देश के कई हिस्सों में सप्लाई होते थे.यह सिलसिला करीब 30-35 वर्षों तक चला. लेकिन 90 के दशक आते-आते इस उद्योग ने दम तोड़ दिया. बुनकर केंद्र काफी जर्जर हो गएऔर यह पशुओं के ठहरने का सबसे उत्तम स्थान बना हुआ है.इस गांव कीकई महिलाएं आज भी कंबल बुनकर अपना परिवार चलती हैं.

मेहनतानानहीं मिलने से लोगों ने छोड़ा काम
गांव के बुजुर्ग रामचंद्र भगत कहते हैं, उस समय हम लोग एक लूम पर 2-3 कंबल बुन लेते थे. लूम भदोही के मिर्जापुर, यूपी से आता था. 30-35 साल चला उसके बाद बंद हो गया.समिति चलती थी मेहनताना सही नहीं मिल पाता था, इसलिए लोग काम छोड़ते गए. वहीं, युवक शिव कुमार कहते हैं, इसकी शुरुआत जयप्रकाश नारायण जी ने की थी.यहां का कंबल बर्द्धमान, आसनसोल तक जाताथा. देखरेख सही से नहीं हो सका.कुछ साल पहले रिपेरिंग हुआ लेकिन फिलहाल इसे कोई जनप्रतिनिधि देखनेवाला नहीं है.

बदहाल कंबल बुनकर केंद्र और बयान देते स्थानीय लोग

90 के दशक में समिति को ग्रांट मिलना बंद
एक समय था जब जेपी के ठहरने का सबसे सुरक्षित ठिकाना नवादा हुआ करता था. जिले के लोगों की हालत देख जेपी ने विनोवा भावे के साथ मिलकर इन जिलों में लोगों को स्वावलंबी बनाने की शुरुआत की. उदाहरण के तौर पर सेखोदेवरा का खादी ग्रामद्योग मंडल की स्थापना औरकंबल बुनकर समिति की स्थापना को देखाजा सकताहै. लेकिन, 90 के दशक वाली सरकार ने इसकी उपयोगिता को दरकिनार कर दिया और समिति को भी ग्रांट मिलना बंद हो गया.जिसका परिणाम यह हुआ कि जेपी के सपने ने90 के दशक में ही दम तोड़ दिया.ऐसा लगता है अब जेपी के सपने को संवारने वाला कोई बचा ही नहीं.

Intro:नवादा। जिले के पकरीबरावां प्रखंड के बरतारा गांव में जयप्रकाश नारायण के सपने दम तोड़ दिया है। एक समय था जब यहां कंबल बुनकरों की भीड़ लगी रहती थी और आज यह जानवरों के ठहरने का ठिकाना बन गया है। जबकि, बेरोजगारी के दौर में आज यह रोजगार सृजन का मुख्य केंद्र होता।


Body:बताया जा रहा है कि 60 के दशक में यहां स्वदेशी आंदोलन के सच्चे सिपाही जयप्रकाश नारायण ने पकरीबरावां के बरतारा गांव में कंबल बुनकर केंद्र की शुरुआत की थी। जिसका उद्देश्य था लोगों को प्रशिक्षित कर उन्हें स्वरोजगार से जोड़ना। उस दौरान लोगों ने बढ़चढ़ कर कंबल बुनने की कला सीखी और जेपी के स्वावलंबी योजना की रफ्तार भी बढ़ाई। यहां दूर-दराज से लोग प्रशिक्षण लेने आते थे। यहां जरूरत के सभी मशीनें उपलब्ध थी। सैकड़ों की संख्या में यहां लोग एक साथ बैठकर कंबल बुनने का काम करते थे। यहां की गुणवत्ता की चहुंओर चर्चा थी। यहां के बनाएं कंबल देश के कई हिस्सों में सप्लाई होती थी। यह सिलसिला करीब 30-35 वर्षों तक चली। लेकिन 90 के दशक आते-आते दम तोड़ दिया। मौजूदा स्थिति में बुनकर केंद्र काफी जर्जर हो गई है और यह पशुओं के ठहरने का सबसे उत्तम स्थान बना हुआ है। भलेहिं यह केंद्र बन गया हो लेकिन आज भी इस गांव के कई महिलाएं हैं जो कंबल बुनकर अपना परिवार चलती है। गांव के बुजुर्ग रामचंद्र भगत कहते हैं, उस समय हमलोग एक लूम पर 2-3 कंबल बुन लेते थे।लूम भदोही के मिर्जापुर, यूपी से आता था। 30-35 साल चला उसके बाद बंद हो गया। समिति चलती थी मेहनताना सही नहीं मिल पाता था छोड़ दिए। वहीं, युवक शिव कुमार कहते हैं, इसकी शुरुआत जयप्रकाश नारायण जी ने की थी। यहां का कंबल बर्द्धमान, आसनसोल तक जाती थी। देखरेख सही से नहीं हो सका। कुछ साल पहले रिपेरिंग हुआ लेकिन फिलहाल इसे कोई जनप्रतिनिधि देखनेवाला नहीं है।


Conclusion:एक समय था जब जेपी के ठहरने का सबसे सुरक्षित ठिकाना नवादा हुआ करता था। जिले के लोगों की हालत देख जेपी ने विनोवा भावे के साथ मिलकर इन जिलों में लोगों को स्वावलंबी बनाने शुरुआत की जिसे उद्धरण के तौर पर सेखोदेवरा का खादी ग्रामद्योग मंडल की स्थापना, कंबल बुनकर समिति की स्थापना को देखी जा सकती है लेकिन, 90 के दशकवाली सरकार इसकी उपयोगिता को दरकिनार कर दिया और समिति को भी ग्रांट मिलना बंद हो गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि जेपी का सपना 90 के दशक में ही दम तोड़ दिया। ऐसा लगता है अब जेपी के सपने को संवारने वाला कोई बचा ही नहीं।
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