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बिहार में 31 साल बाद बढ़ी सवर्णों की पूछ, 'अगड़ी' पंक्ति के सांचे में ढली सियासत - Tarapur by-election

बिहार की सभी राजनीतिक पार्टियों (Bihar Politics) को अचानक से अगड़ी जाति की राजनीति याद आ गई है. पूरे 31 साल बाद इन पार्टियों को सवर्ण राजनीति की याद आई है. यही कारण है कि अब सभी राजनीतिक दलों के पहले पंक्ति के नेता अगड़ी जाति के हैं. पढ़ें ये रिपोर्ट..

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Published : Oct 5, 2021, 9:38 PM IST

पटना: बिहार में जो राजनीति (Bihar Politics) चल रही है, उसमें सभी राजनीतिक दलों को अचानक से अगड़ी जाति की राजनीति याद आ गई है. इसमें शायद ही कोई ऐसा दल है जो इस सियासत से अलग जा रहा है. अब इसकी नई बानगी भी बिहार में खड़ी हो रही है. सवर्ण राजनीति की बिहार के राजनीतिक दलों को पूरे 31 साल बाद याद आई है और अब इस पर जिस तरीके से मंथन चल रहा है, वह बिहार में राजनीतिक बदलाव के लिए नई कहानी लिखेगा.

ये भी पढ़ें- महागठबंधन में 'फ्रेंडली वॉर' शुरू.. तारापुर और कुशेश्वरस्थान सीट पर कांग्रेस ने भी उतारे उम्मीदवार

1990 में मंडल कमीशन के आने के बाद बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के साथ ही वैसे छोटे दलों के राजनीतिक कद का आकार बहुत बड़ा हो गया. हालात, यहां तक पहुंचे कि क्षेत्रीय सियासत केंद्र को दिशा देने लगी. इसके पीछे दलित राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग सबसे मजबूत तौर पर रखा गया. लेकिन, जिस वोट बैंक की बदौलत इन सभी छोटे दलों ने अपनी राजनीतिक हैसियत को बड़ा किया, उनकी जमीनी जरूरत को यह भूल गए. आरक्षण की बात हुई लेकिन उन लोगों तक पहुंची नहीं जो इसके हकदार थे. गरीबी दूर करने की बात हुई, लेकिन गरीबों को उस बात का फायदा मिला ही नहीं जो सरकार उनके लिए बनाना चाहती थी.

हर हाथ को रोजगार देने की बात तय हुई, लेकिन इसके लिए सरकारों की नीतियां गांव की गलियों तक पहुंची ही नहीं जहां आम आदमी की जरूरत सरकार से आस लगाए बैठे होती है. विभेद की राजनीति ने ऐसे राजनीतिक दलों को चुनावी मैदान में चित कर दिया, जो लोग इस सियासत से वोट बैंक बनाकर पक्के घरों से बैठकर दलित नेता का दंभ भरने लगे. बदली सियासत से इन राजनेताओं ने फिर एक बार झूठ की खेती करनी शुरू कर दी है. हर दावे के बाद भी बीजेपी के पास जिस तरीके से ओबीसी वोट बैंक गया और बीजेपी की अपनी रणनीति ने इन लोगों को किनारे किया, उसके बाद सभी दलों को सवर्ण की राजनीति याद आ गई.

बिहार की राजनीति में अगर प्रदेश अध्यक्ष की बात करें तो बीजेपी ने लगातार प्रयोग किया है. गोपाल नारायण सिंह, नंदकिशोर यादव, सीपी ठाकुर और नरेंद्र मोदी की बीजेपी वाली राजनीति के बाद बिहार में बात मंगल पांडे की हो या फिर नित्यानंद राय की, फिर उसके बाद संजय जायसवाल की, बीजेपी का वोट बैंक वाला फार्मूला बिल्कुल फिक्स था और उसमें अगड़ी जाति की राजनीति को प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर लगातार जगह मिलती रहे और यही वजह है कि दूसरे राजनीतिक दलों ने भी अपनी सियासी तैयारी को बदल दिया.

बिहार के सबसे बड़े राजनीतिक दल और सीटों को जीत कर आए राजद की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव मंडल कमीशन और उसके बाद की सियासत में इतने कद्दावर हुए कि 2004 में केंद्र की सरकार उनके बगैर नहीं बन पाई. लेकिन, जाति राजनीति की जिस गोलबंदी को बिहार में वह करना चाहते थे, वह उनसे भटक गई. हालांकि, राजनीतिक समीक्षकों के सुझाव पर राष्ट्रीय जनता दल ने भी अपनी राजनीतिक रणनीति को बदला और प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह को बना दिया.

ये भी पढे़ं- बिखर गया रामविलास पासवान का 'बंगला', बेटे और भाई की लड़ाई में बंट गई LJP की राजनीति

ब्राह्मण राजनीति को साधने के लिए खास तौर से मिथिलांचल की सियासत पर पकड़ बनी रहे, मनोज झा को राज्यसभा सांसद बना दिया. संदेश साफ था कि सियासत की जगह कहां जा रही है. इससे पहले लालू यादव इस राह पर कहीं नहीं थे, क्योंकि अगर अपने कोटे से लालू यादव किसी को राज्यसभा भेजे भी तो बहुत खराब स्थिति में पहुंच चुके. जब 2009 में रामविलास पासवान के पास कुछ नहीं था, तो लालू यादव ने राजद कोटे से उन्हें राज्यसभा भेज दिया था. बिहार की सियासत में बदली जाति किस जरूरत ने राष्ट्रीय जनता दल को भी मुड़ने पर मजबूर किया और यही वजह है कि जगदानंद सिंह, मनोज झा और दूसरे नेता राजद की राजनीति को दिशा दे रहे हैं.

बात नीतीश कुमार की करें तो भाजपा की सियासत को साथ रखने के बाद भी बिहार में दलित महादलित की राजनीति को होने की जगह दी, लेकिन पार्टी पर अगर नेतृत्व की बात करें तो वशिष्ठ नारायण सिंह को प्रदेश की कमान दिए, हालांकि राष्ट्रीय चेहरे के नाम पर नीतीश कुमार की खुद की जो जाति रही है उसका बोलबाला हमेशा रहा. लेकिन, उसके बाद भी जाति संरचना को साधने में नीतीश कुमार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.

उन्होंने दलित और महादलित की राजनीति इसलिए भी कर डाली कि अगर अगले वोट से उन्हें कोई दिक्कत मिलती है तो वह वोट बैंक शायद उनके साथ चला जाए, लेकिन उसकी सबसे बड़ी परीक्षा जब 2015 में हुई तो नीतीश कुमार को दलित और महादलित वाले वोट बैंक की सियासत से हाथ धोना पड़ा. राजनीतिक चीजें बदली तो पीके को पार्टी में उपाध्यक्ष बना दिए. संदेश देने की कोशिश हुई कि एक मजबूत ब्राह्मण चेहरा अब नीतीश कुमार के साथ बैठेगा.

बात यहीं तक नहीं रुकी कुशवाहा को लाकर के नीतीश कुमार ने एक ऐसे वोट बैंक को साधने की कोशिश जरूर की जिसका वोट प्रतिशत नीतीश के साथ रह सकता था, लेकिन अगड़ी जाति की सियासत को सभी लोग मानने लगे और यही वजह है कि नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी की कमान ललन सिंह को पकड़ा दी. चेहरे की सियासत और जाति की राजनीति दोनों नीतीश कुमार ने अगड़ी जाति के साथ कर लिया. यह अलग बात है कि नीतीश कुमार जब नरेंद्र मोदी से समझौते की राजनीति में साथ नहीं चल पाए तो जीतन राम मांझी का प्रयोग करके एक अवसर करने की कोशिश तो होना ही थी, लेकिन वह सार्थक नहीं हुई. मजबूरन उन्हें नई राजनीतिक डगर पर लौटना पड़ा.

ये भी पढ़ें- बिहार की जनता करे भी तो क्या! जिसे वोट देती है वो 'परिवार की सियासत' में उलझ पड़ती है

बिहार में 2 सीटों पर उपचुनाव होना है, जिसमें तारापुर और कुशेश्वरस्थान हैं. जाति राजनीति का कितना बड़ा असर इन दोनों सीटों पर पड़ेगा फौरी तौर पर नहीं कहा जा सकता है. लेकिन, बिहार का सबसे बड़ा चुनाव इस समय चल रहा है जिसके दो चरण हो चुके हैं. बिहार का पंचायत चुनाव जो 11 चरणों में होना हैं अभी उनके 9 चरण बाकी हैं और किसी भी देश राज्य की बुनियादी संरचना का सबसे बड़ा जाति आधार पंचायतों से ही शुरू होता है और इसके लिए एक चेहरा नीतीश कुमार ने सामने रख दिया है.

जाति राजनीति में जिस तरीके से सभी राजनीतिक दलों ने अगड़ी जाति को अपनी अगली पंक्ति में बैठाया है, उसमें बिहार में यह राजनीति 31 सालों बाद दिखी है, क्योंकि मंडल कमीशन के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब सभी राजनीतिक दलों के पहले पंक्ति के नेता अगड़ी जाति के हैं, अब इस सियासत में राजनीतिक पार्टियां जीत वाले दंगल में कितना आगे जाती हैं, यह तो वक्त का तकाजा तय करेगा.

पटना: बिहार में जो राजनीति (Bihar Politics) चल रही है, उसमें सभी राजनीतिक दलों को अचानक से अगड़ी जाति की राजनीति याद आ गई है. इसमें शायद ही कोई ऐसा दल है जो इस सियासत से अलग जा रहा है. अब इसकी नई बानगी भी बिहार में खड़ी हो रही है. सवर्ण राजनीति की बिहार के राजनीतिक दलों को पूरे 31 साल बाद याद आई है और अब इस पर जिस तरीके से मंथन चल रहा है, वह बिहार में राजनीतिक बदलाव के लिए नई कहानी लिखेगा.

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1990 में मंडल कमीशन के आने के बाद बिहार में लालू यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के साथ ही वैसे छोटे दलों के राजनीतिक कद का आकार बहुत बड़ा हो गया. हालात, यहां तक पहुंचे कि क्षेत्रीय सियासत केंद्र को दिशा देने लगी. इसके पीछे दलित राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग सबसे मजबूत तौर पर रखा गया. लेकिन, जिस वोट बैंक की बदौलत इन सभी छोटे दलों ने अपनी राजनीतिक हैसियत को बड़ा किया, उनकी जमीनी जरूरत को यह भूल गए. आरक्षण की बात हुई लेकिन उन लोगों तक पहुंची नहीं जो इसके हकदार थे. गरीबी दूर करने की बात हुई, लेकिन गरीबों को उस बात का फायदा मिला ही नहीं जो सरकार उनके लिए बनाना चाहती थी.

हर हाथ को रोजगार देने की बात तय हुई, लेकिन इसके लिए सरकारों की नीतियां गांव की गलियों तक पहुंची ही नहीं जहां आम आदमी की जरूरत सरकार से आस लगाए बैठे होती है. विभेद की राजनीति ने ऐसे राजनीतिक दलों को चुनावी मैदान में चित कर दिया, जो लोग इस सियासत से वोट बैंक बनाकर पक्के घरों से बैठकर दलित नेता का दंभ भरने लगे. बदली सियासत से इन राजनेताओं ने फिर एक बार झूठ की खेती करनी शुरू कर दी है. हर दावे के बाद भी बीजेपी के पास जिस तरीके से ओबीसी वोट बैंक गया और बीजेपी की अपनी रणनीति ने इन लोगों को किनारे किया, उसके बाद सभी दलों को सवर्ण की राजनीति याद आ गई.

बिहार की राजनीति में अगर प्रदेश अध्यक्ष की बात करें तो बीजेपी ने लगातार प्रयोग किया है. गोपाल नारायण सिंह, नंदकिशोर यादव, सीपी ठाकुर और नरेंद्र मोदी की बीजेपी वाली राजनीति के बाद बिहार में बात मंगल पांडे की हो या फिर नित्यानंद राय की, फिर उसके बाद संजय जायसवाल की, बीजेपी का वोट बैंक वाला फार्मूला बिल्कुल फिक्स था और उसमें अगड़ी जाति की राजनीति को प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर लगातार जगह मिलती रहे और यही वजह है कि दूसरे राजनीतिक दलों ने भी अपनी सियासी तैयारी को बदल दिया.

बिहार के सबसे बड़े राजनीतिक दल और सीटों को जीत कर आए राजद की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव मंडल कमीशन और उसके बाद की सियासत में इतने कद्दावर हुए कि 2004 में केंद्र की सरकार उनके बगैर नहीं बन पाई. लेकिन, जाति राजनीति की जिस गोलबंदी को बिहार में वह करना चाहते थे, वह उनसे भटक गई. हालांकि, राजनीतिक समीक्षकों के सुझाव पर राष्ट्रीय जनता दल ने भी अपनी राजनीतिक रणनीति को बदला और प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह को बना दिया.

ये भी पढे़ं- बिखर गया रामविलास पासवान का 'बंगला', बेटे और भाई की लड़ाई में बंट गई LJP की राजनीति

ब्राह्मण राजनीति को साधने के लिए खास तौर से मिथिलांचल की सियासत पर पकड़ बनी रहे, मनोज झा को राज्यसभा सांसद बना दिया. संदेश साफ था कि सियासत की जगह कहां जा रही है. इससे पहले लालू यादव इस राह पर कहीं नहीं थे, क्योंकि अगर अपने कोटे से लालू यादव किसी को राज्यसभा भेजे भी तो बहुत खराब स्थिति में पहुंच चुके. जब 2009 में रामविलास पासवान के पास कुछ नहीं था, तो लालू यादव ने राजद कोटे से उन्हें राज्यसभा भेज दिया था. बिहार की सियासत में बदली जाति किस जरूरत ने राष्ट्रीय जनता दल को भी मुड़ने पर मजबूर किया और यही वजह है कि जगदानंद सिंह, मनोज झा और दूसरे नेता राजद की राजनीति को दिशा दे रहे हैं.

बात नीतीश कुमार की करें तो भाजपा की सियासत को साथ रखने के बाद भी बिहार में दलित महादलित की राजनीति को होने की जगह दी, लेकिन पार्टी पर अगर नेतृत्व की बात करें तो वशिष्ठ नारायण सिंह को प्रदेश की कमान दिए, हालांकि राष्ट्रीय चेहरे के नाम पर नीतीश कुमार की खुद की जो जाति रही है उसका बोलबाला हमेशा रहा. लेकिन, उसके बाद भी जाति संरचना को साधने में नीतीश कुमार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.

उन्होंने दलित और महादलित की राजनीति इसलिए भी कर डाली कि अगर अगले वोट से उन्हें कोई दिक्कत मिलती है तो वह वोट बैंक शायद उनके साथ चला जाए, लेकिन उसकी सबसे बड़ी परीक्षा जब 2015 में हुई तो नीतीश कुमार को दलित और महादलित वाले वोट बैंक की सियासत से हाथ धोना पड़ा. राजनीतिक चीजें बदली तो पीके को पार्टी में उपाध्यक्ष बना दिए. संदेश देने की कोशिश हुई कि एक मजबूत ब्राह्मण चेहरा अब नीतीश कुमार के साथ बैठेगा.

बात यहीं तक नहीं रुकी कुशवाहा को लाकर के नीतीश कुमार ने एक ऐसे वोट बैंक को साधने की कोशिश जरूर की जिसका वोट प्रतिशत नीतीश के साथ रह सकता था, लेकिन अगड़ी जाति की सियासत को सभी लोग मानने लगे और यही वजह है कि नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी की कमान ललन सिंह को पकड़ा दी. चेहरे की सियासत और जाति की राजनीति दोनों नीतीश कुमार ने अगड़ी जाति के साथ कर लिया. यह अलग बात है कि नीतीश कुमार जब नरेंद्र मोदी से समझौते की राजनीति में साथ नहीं चल पाए तो जीतन राम मांझी का प्रयोग करके एक अवसर करने की कोशिश तो होना ही थी, लेकिन वह सार्थक नहीं हुई. मजबूरन उन्हें नई राजनीतिक डगर पर लौटना पड़ा.

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बिहार में 2 सीटों पर उपचुनाव होना है, जिसमें तारापुर और कुशेश्वरस्थान हैं. जाति राजनीति का कितना बड़ा असर इन दोनों सीटों पर पड़ेगा फौरी तौर पर नहीं कहा जा सकता है. लेकिन, बिहार का सबसे बड़ा चुनाव इस समय चल रहा है जिसके दो चरण हो चुके हैं. बिहार का पंचायत चुनाव जो 11 चरणों में होना हैं अभी उनके 9 चरण बाकी हैं और किसी भी देश राज्य की बुनियादी संरचना का सबसे बड़ा जाति आधार पंचायतों से ही शुरू होता है और इसके लिए एक चेहरा नीतीश कुमार ने सामने रख दिया है.

जाति राजनीति में जिस तरीके से सभी राजनीतिक दलों ने अगड़ी जाति को अपनी अगली पंक्ति में बैठाया है, उसमें बिहार में यह राजनीति 31 सालों बाद दिखी है, क्योंकि मंडल कमीशन के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब सभी राजनीतिक दलों के पहले पंक्ति के नेता अगड़ी जाति के हैं, अब इस सियासत में राजनीतिक पार्टियां जीत वाले दंगल में कितना आगे जाती हैं, यह तो वक्त का तकाजा तय करेगा.

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