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जातीय जनगणना की सियासत के बीच, 'सवर्णो' पर पकड़ मजबूत करने की कवायद - सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना

जाति आधारित जनगणना का मुद्दा अब तेजी से गर्म हो रहा है. आरजेडी और जेडीयू इस मुद्दे को उठा कर ओबीसी समुदाय को अपने पाले में करना चाहती हैं. लेकिन आरजेडी इस मुद्दे को आक्रामक ढंग से उठा कर बड़ा दांव चला है. पढ़ें पूरी रिपोर्ट...

caste census
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Published : Aug 7, 2021, 10:03 PM IST

पटना: बिहार में जाति के आधार पर राजनीति (caste Politics in Bihar) कोई नई बात नहीं है. सत्ता पक्ष के कई दल हो या विपक्षी दल इन दिनों जातिगत जनगणना (Caste Census) को लेकर एक सुर में बोल रहे हैं, लेकिन ये दल सवर्ण मतदाताओं में भी अपनी पकड़ मजबूत करने में चूक करना नहीं चाहती हैं.

ये भी पढ़ें- ...तो इसलिए हो रही है 'जातिगत जनगणना' की मांग! किसे होगा नफा, कौन उठाएगा नुकसान.. जानिए सब कुछ

बिहार के प्रमुख राजनीतिक दलों पर गौर करें तो सभी दलों में सवर्ण नेताओं की पूछ बढ़ी है. ऐसा नहीं कि यह कोई पहली बार हो रहा है. कई प्रमुख दल भले ही जातीय जनगणना को लेकर मुखर हैं, लेकिन पार्टी के नंबर एक की कुर्सी पर सवर्ण जाति के ही नेता बने हुए हैं.

आरजेडी की बात करें तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप भले ही इस पार्टी का नेतृत्व लालू प्रसाद के हाथ में हो लेकिन बिहार प्रदेश की कमान जगदानंद सिंह संभाल रहे हैं, जो राजपूत जाति से आते हैं. वैसे, आरजेडी का वोट बैंक यादव और मुस्लिम माना जाता है. माना यह भी जाता कहा कि आरजेडी सामाजिक न्याय की राजनीति करती रही है.

ये भी पढ़ें- जातिगत जनगणना पर आमने-सामने: केंद्र के रुख के बाद बिहार BJP ने प्रतिनिधिमंडल से किया तौबा

बिहार में सत्ताधारी जेडीयू की बात करें तो इस पार्टी के वरिष्ठ नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'सोशल इंजीनियरिंग' का माहिर खिलाड़ी माने जाते है, ऐसे में जेडीयू की मजबूती 'लव कुश' समीकरण के साथ-साथ अति पिछड़ों में मानी जाती है. ऐसे में जेडीयू ने हाल में मुंगेर के सांसद ललन सिंह को पार्टी की कमान देकर सवर्ण को साधने की कोशिश में जुट गई है.

इधर, कांग्रेस बिहार में शुरू से ही सवर्ण मतदाताओं की पार्टी मानी जाती है. शुरुआत में सवर्ण मतदाता कांग्रेस के साथ रहते रहे हैं, बाद में हालांकि ये मतदाता छिटक कर दूर चले गए. इसके बावजूद आज भी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर मदन मोहन झा विराजमान हैं, जो ब्राह्मण समाज से आते हैं. ऐसे में कांग्रेस सवर्ण मतदाताओं को यह स्पष्ट संदेश देना चाहती है कि उसके लिए सवर्ण मतदाता पहले भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं.

बीजेपी की पहचान सवर्ण की राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर होती है. ऐसे में देखा जाए तो बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर सांसद संजय जायसवाल विराजमान हैं, जो वैश्य जाति से आते हैं. बीजेपी हालांकि जातीय आधारित जनगणना के विरोध में खड़ी नजर आ रही है.

राजनीति के जानकार अजय कुमार कहते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की राजनीति जाति आधारित होती है. राजनीति में कई विवादास्पद मुद्दे जैसे राम मंदिर, जम्मू कश्मीर में धारा 370 का समाप्त होना, तीन तलाक कानून सहित कई मुद्दों की समाप्ति के बाद समाजवादी विचारधारा के समर्थन वाली पार्टियों के पास बहुत ज्यादा मुद्दे नहीं बचे हैं.

''बीजेपी की पहचान सवर्ण समाज पार्टी के रूप में रही है. ऐसे में अन्य दल भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही बड़े पदों पर सवर्ण समाज से आने वाले नेताओं को बैठाकर यह संदेश देने की कोशिश में जुटी है कि उनके लिए सवर्ण समाज से आने वाले लोग भी महत्वपूर्ण हैं.'' - अजय कुमार, राजनीतिक एक्सपर्ट

बिहार में जातीय जनगणना के मुद्दे पर नीतीश और तेजस्वी आपस में मिल रहे हैं वो जेडीयू की सहयोगी बीजेपी को असहज कर सकती है. पिछले दिनों संसद में केंद्र ने जातीय आधार पर जनगणना से संसद में इनकार किया है. हालांकि, बीजेपी की ओर से भी ओबीसी का दांव चलने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है. केंद्र ने मेडिकल एजुकेशन में 10 फीसदी आर्थिक पिछड़ों के साथ-साथ 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दी है.

फिलहाल, देश की सियासत में मंडल दौर की वापसी के संकेत दिखने लगे हैं. सत्ता पक्ष और विपक्ष मंडल राजनीति के बदले स्वरूप में अपना दबदबा हासिल करने के लिए एक के बाद एक सियासी दांव चल रहे हैं.

पटना: बिहार में जाति के आधार पर राजनीति (caste Politics in Bihar) कोई नई बात नहीं है. सत्ता पक्ष के कई दल हो या विपक्षी दल इन दिनों जातिगत जनगणना (Caste Census) को लेकर एक सुर में बोल रहे हैं, लेकिन ये दल सवर्ण मतदाताओं में भी अपनी पकड़ मजबूत करने में चूक करना नहीं चाहती हैं.

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बिहार के प्रमुख राजनीतिक दलों पर गौर करें तो सभी दलों में सवर्ण नेताओं की पूछ बढ़ी है. ऐसा नहीं कि यह कोई पहली बार हो रहा है. कई प्रमुख दल भले ही जातीय जनगणना को लेकर मुखर हैं, लेकिन पार्टी के नंबर एक की कुर्सी पर सवर्ण जाति के ही नेता बने हुए हैं.

आरजेडी की बात करें तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप भले ही इस पार्टी का नेतृत्व लालू प्रसाद के हाथ में हो लेकिन बिहार प्रदेश की कमान जगदानंद सिंह संभाल रहे हैं, जो राजपूत जाति से आते हैं. वैसे, आरजेडी का वोट बैंक यादव और मुस्लिम माना जाता है. माना यह भी जाता कहा कि आरजेडी सामाजिक न्याय की राजनीति करती रही है.

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बिहार में सत्ताधारी जेडीयू की बात करें तो इस पार्टी के वरिष्ठ नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को 'सोशल इंजीनियरिंग' का माहिर खिलाड़ी माने जाते है, ऐसे में जेडीयू की मजबूती 'लव कुश' समीकरण के साथ-साथ अति पिछड़ों में मानी जाती है. ऐसे में जेडीयू ने हाल में मुंगेर के सांसद ललन सिंह को पार्टी की कमान देकर सवर्ण को साधने की कोशिश में जुट गई है.

इधर, कांग्रेस बिहार में शुरू से ही सवर्ण मतदाताओं की पार्टी मानी जाती है. शुरुआत में सवर्ण मतदाता कांग्रेस के साथ रहते रहे हैं, बाद में हालांकि ये मतदाता छिटक कर दूर चले गए. इसके बावजूद आज भी कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर मदन मोहन झा विराजमान हैं, जो ब्राह्मण समाज से आते हैं. ऐसे में कांग्रेस सवर्ण मतदाताओं को यह स्पष्ट संदेश देना चाहती है कि उसके लिए सवर्ण मतदाता पहले भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं.

बीजेपी की पहचान सवर्ण की राजनीति करने वाली पार्टी के तौर पर होती है. ऐसे में देखा जाए तो बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर सांसद संजय जायसवाल विराजमान हैं, जो वैश्य जाति से आते हैं. बीजेपी हालांकि जातीय आधारित जनगणना के विरोध में खड़ी नजर आ रही है.

राजनीति के जानकार अजय कुमार कहते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि बिहार की राजनीति जाति आधारित होती है. राजनीति में कई विवादास्पद मुद्दे जैसे राम मंदिर, जम्मू कश्मीर में धारा 370 का समाप्त होना, तीन तलाक कानून सहित कई मुद्दों की समाप्ति के बाद समाजवादी विचारधारा के समर्थन वाली पार्टियों के पास बहुत ज्यादा मुद्दे नहीं बचे हैं.

''बीजेपी की पहचान सवर्ण समाज पार्टी के रूप में रही है. ऐसे में अन्य दल भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही बड़े पदों पर सवर्ण समाज से आने वाले नेताओं को बैठाकर यह संदेश देने की कोशिश में जुटी है कि उनके लिए सवर्ण समाज से आने वाले लोग भी महत्वपूर्ण हैं.'' - अजय कुमार, राजनीतिक एक्सपर्ट

बिहार में जातीय जनगणना के मुद्दे पर नीतीश और तेजस्वी आपस में मिल रहे हैं वो जेडीयू की सहयोगी बीजेपी को असहज कर सकती है. पिछले दिनों संसद में केंद्र ने जातीय आधार पर जनगणना से संसद में इनकार किया है. हालांकि, बीजेपी की ओर से भी ओबीसी का दांव चलने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है. केंद्र ने मेडिकल एजुकेशन में 10 फीसदी आर्थिक पिछड़ों के साथ-साथ 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दी है.

फिलहाल, देश की सियासत में मंडल दौर की वापसी के संकेत दिखने लगे हैं. सत्ता पक्ष और विपक्ष मंडल राजनीति के बदले स्वरूप में अपना दबदबा हासिल करने के लिए एक के बाद एक सियासी दांव चल रहे हैं.

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