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मिड डे मील के लिए क्यों जरूरी है तुरंत पर्याप्त धन मुहैया कराना

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Published : Nov 10, 2020, 4:33 PM IST

महामारी की वजह से केंद्र और राज्यों पर समान रूप से राजकोषीय बोझ बढ़ा है. ऐसे में भारत को मिड डे मील योजना के लिए तुरंत पर्याप्त धन मुहैया कराने की क्या आवश्यकता है? पढ़ें यह विश्लेषण.

मिड डे मील
मिड डे मील

हैदराबाद : कोविड-19 महामारी कारण स्कूलों के एकाएक बंद हो जाने से न केवल बच्चों के सीखने पर बल्कि पोषण की व्यवस्था भी प्रभावित हुई है. मिड डे मील योजना ( जिसे एमडीएम के रूप में भी जाना जाता है ) स्कूलों में बच्चों को भोजन देने का यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है. इसका मकसद सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ाना और पढ़ने वाले 11.59 करोड़ बच्चों को पौष्टिक भोजन मिले यह सुनिश्चित करना है. राज्य परिवारों को सीधे अनाज या खाद्य सुरक्षा भत्ता (एफएसए) देने के लिए तालमेल बैठाने की जल्दी में थे, पर हाल के अध्ययनों से पता चला है कि योजना के माध्यम से वास्तव में पोषण का प्रावधान जरूरत से बहुत कम था.

समस्या का एक कारण तो योजना का खाका तैयार करने और केंद्र और राज्य सरकारों से पैसा आने की व्यवस्था में पेंचीदगी है. महामारी से पहले भी ये चुनौतियां थीं लेकिन अब यह और बढ़ गईं हैं. यदि इनका जल्द समाधान नहीं किया जाता तो, हम लोगों को आफत में भी आफत का सामना करना पड़ सकता है. उनके कारण यह है.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल मार्च की शुरुआत में स्कूल बंद होने की वजह से मध्याह्न भोजन की आपूर्ति नहीं होने की संभावना को स्वीकार किया था. इसके बाद राज्यों को निर्देश दिया था कि यह सुनिश्चित किया जाए बच्चों सहित कमजोर वर्ग के लोगों को भोजन की कमी नहीं हो. इसके तुरंत बाद शिक्षा मंत्रालय ने राज्यों को एक निर्देश जारी करते हुए कहा कि, बच्चों के घरों में ‘गर्म पका हुआ मध्यान्ह भोजन’ या ‘खाद्य सुरक्षा भत्ता’ दिया जाए.

इस आदेश का पालन करते हुए बिहार जैसे राज्यों ने खाना पकाने की लागत के बराबर सीधे गरीबों के खाते में नकद डालने की घोषणा कर दी. राजस्थान और तेलंगाना जैसे राज्यों ने खाद्यान्न देने या खाद्यान्न, दाल, तेल आदि के बराबर खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की घोषणा की. यहां तक कि केरल की तरह राज्यों में दूध, अंडे आदि जैसे पौष्टिक आहार भी दिए जाते थे. जब महामारी नहीं थी उस समय मध्याह्न भोजन गर्मी के महीनों में भी दिए जाने को लेकर अलग से पैसे की स्वीकृति भी मांगी गई थी; विशेष रूप से जब स्कूल गर्मी की छुट्टियों के कारण बंद होते हैं.

मध्याह्न भोजन प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या में कमी

इन सारे उपायों के बावजूद हाल के अध्ययनों से पता चला है कि, वादा के मुताबिक बच्चों को लाभ नहीं मिल रहा है. ऑक्सफैम के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि पांच राज्यों ( ओडिशा , बिहार , झारखंड , छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश ) के 1,158 अभिभावकों ने पाया कि मई-जून में करीब एक तिहाई (35 फीसद ) बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं मिल रहा था. उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 92 फीसद था. अन्य अध्ययनों में मध्याह्न भोजन प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या और भी कम पाई गई है. आखिर ऐसा क्यों है? इसके संभावित कारणों को समझने के लिए इस योजना को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है उन्हें देखना और समझना होगा. बजट, पैसा कैसे आ रहा है और जो योजना का लाभ प्राप्त कर रहे हैं उन सब के आंकड़े का विश्लेषण करना उपयोगी होगा.

मध्याह्न भोजन केंद्र सरकार की ओर से प्रायोजित एक योजना है. इस योजना के तहत खाना पकाने की लागत, रसोइये-सह-सहायकों के लिए मानदेय और बुनियादी ढांचा (खाना बनाने के लिए चूल्हा आदि) आदि विभिन्न गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार 60 फीसद धन देता है, जो योजना के कामकाज के लिए जरूरी है. केंद्र सरकार खाद्यान्नों की पूरी लागत भी वहन करती है.

जरूरत से कम पैसे का बजट

वित्तीय वर्ष 2020-21 की शुरुआत में केंद्र सरकार ने 11 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए थे, जिसे बाद में बढ़ाकर 12 हजार 600 करोड़ रुपये कर दिए थे. 1,600 करोड़ रुपये अतिरिक्त इसलिए दिए गए ताकि गर्मी के महीनों में मध्याह्न भोजन दिया जा सकें .

केंद्र से राज्यों को जो पैसा जारी किया गया वह एक तो, जरूरत से कम था और दूसरे देने में देरी भी हो गई थी. हमने केंद्र की ओर से वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून 2020) के लिए खाना पकाने की लागत (प्रति यूनिट खाना पकाने की लागत के साथ दिनों की संख्या को गुणा करके अनुमानित निकाला गया) के तौर पर जितना पैसा जारी किया गया और वास्तव में जितनी जरूरत है, उसकी तुलना की. इससे संकेत मिलता है कि जितने पैसे की जरूरत है उसकी तुलना में वास्तव में जो पैसे जारी किए गए वह बहुत कम था.

उदाहरण के लिए राजस्थान में पहली तिमाही के लिए खाना पकाने की लागत 173 करोड़ रुपये आने का अनुमान था. जबकि केंद्र सरकार की ओर से मात्र 90 करोड़ रुपये जारी किए गए. इसी तरह आंध्र प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में जरूरत से 60 प्रतिशत से कम पैसा जारी किया गया. यहां तक कि गर्मी के महीनों के लिए अतिरिक्त पैसा भी जारी नहीं किया गया. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की ओर से उत्तराखंड में स्वीकृत खाद्य सुरक्षा भत्ता (12.54 करोड़ रुपये) का केवल 43 फीसद ( 5.39 करोड़ रुपये) जारी किया गया. कर्नाटक और तमिलनाडु में यह अनुपात क्रमशः 73 फीसद और 79 फीसद था. वास्तव में 29 अक्टूबर 2020 तक केवल 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को गर्मी की छुट्टियों के दौरान मध्याह्न भोजन देने के लिए केंद्र से पैसा मिला था.

केंद्र सरकार से राज्यों को जो धन मिलना था उसे दूसरी तिमाही के अंत में या तीसरी तिमाही की शुरुआत में यानी देरी से मिला था. किसी भी सरकारी योजना को लागू करने के लिए पैसा उपलब्ध कराना सबसे महत्वपूर्ण है. मध्याह्न भोजन के मामले से यही साबित हुआ है क्योंकि कोविड-19 जैसी महामारी के समय जब इसकी सख्त जरूरत है, इस वजह से यह सेवा मुहैया कराने की रफ्तार बहुत धीमी हो गई है.

पैसे की उपलब्धता तो एक तरफ है, इस योजना के तहत सभी छात्रों को शामिल करना सुनिशिचित हो इसमें भी फर्क है. योजना के स्वरूप के अनुसार, राज्य पिछले वर्ष के रुझानों के आधार पर उन बच्चों की संख्या का आंकलन केंद्र सरकार को भेजते हैं जो इस वर्ष मध्याह्न भोजन का लाभ उठाएंगे. केन्द्र सरकार इन अनुमानों की समीक्षा करके अनुमोदन करती है. फिर भी कई राज्यों में खाद्य सुरक्षा भत्ता दिए जाने वाले बच्चों की संख्या राज्यों की ओर से जो आकलन भेजे गए थे उससे कम थी. यही स्थिति गर्मी के महीनों के दौरान दिए जाने वाले भत्ते के लिए भी है. शुरू में जितने बच्चों की स्वीकृति दी गई और वास्तव में जितना खाद्य सुरक्षा भत्ता दिया गया उसमें बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और हरियाणा में सबसे अधिक अंतर था.

पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में कठिनाई

आजीविका के नुकसान और आमदनी कम हो जाने के कारण परिवारों को पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में कठिनाई हो रही है. यह देखते हुए महामारी के कारण मध्याह्न भोजन की आवश्यकता बढ़ गई है. इस अवधि के दौरान मध्याह्न भोजन का लाभ उठाने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा होने की संभावना है. वित्तीय वर्ष की शुरुआत में राज्यों की ओर से किए गए आकलनों से संख्या अधिक है. इसका अर्थ यह है कि इस योजना के तरह बच्चों के कवरेज में अंतर शायद अधिक है.

जिस तरह से इस योजना के तहत सभी बच्चों को शामिल करने का आकलन किया गया है वह कितना सटीक है या कितनी संख्या है इसे लेकर सवाल नया नहीं है. उदाहरण के लिए वर्ष 2018 -2019 में मध्याह्न भोजन योजना की वेबसाइट पर उपलब्ध नामांकन संख्या औसतन संयुक्त जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) में जितने की रिपोर्ट थी उसकी तुलना में अधिक थी. यूडीआईएसई ही आधिकारिक स्कूल डाटाबेस है जिसका उपयोग शिक्षा मंत्रालय बजट तैयार करने के लिए करता है. केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से योजना तैयार करने के लिए जिन दो डाटा बैंको का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें बिहार के लिए संख्या में 18 लाख और पश्चिम बंगाल के लिए 14 लाख का अंतर था.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि महामारी की वजह से केंद्र और राज्यों पर समान रूप से राजकोषीय बोझ बढ़ा है, जिसका अर्थ है कि पैसे को नियंत्रित किया जा रहा है. लेकिन इससे हमारी योजना, बजट और पैसे के प्रवाह तंत्र की मजबूती के लिए संकट की स्थिति होने जा रही है. ऐसा करने में नाकाम रहने का परिणाम वही होगा जिसकी सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही चेतावनी दे दी है. वह है कुपोषण का संकट.

(लेखक अवनी कपूर और शरद पांडे )

हैदराबाद : कोविड-19 महामारी कारण स्कूलों के एकाएक बंद हो जाने से न केवल बच्चों के सीखने पर बल्कि पोषण की व्यवस्था भी प्रभावित हुई है. मिड डे मील योजना ( जिसे एमडीएम के रूप में भी जाना जाता है ) स्कूलों में बच्चों को भोजन देने का यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है. इसका मकसद सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ाना और पढ़ने वाले 11.59 करोड़ बच्चों को पौष्टिक भोजन मिले यह सुनिश्चित करना है. राज्य परिवारों को सीधे अनाज या खाद्य सुरक्षा भत्ता (एफएसए) देने के लिए तालमेल बैठाने की जल्दी में थे, पर हाल के अध्ययनों से पता चला है कि योजना के माध्यम से वास्तव में पोषण का प्रावधान जरूरत से बहुत कम था.

समस्या का एक कारण तो योजना का खाका तैयार करने और केंद्र और राज्य सरकारों से पैसा आने की व्यवस्था में पेंचीदगी है. महामारी से पहले भी ये चुनौतियां थीं लेकिन अब यह और बढ़ गईं हैं. यदि इनका जल्द समाधान नहीं किया जाता तो, हम लोगों को आफत में भी आफत का सामना करना पड़ सकता है. उनके कारण यह है.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस साल मार्च की शुरुआत में स्कूल बंद होने की वजह से मध्याह्न भोजन की आपूर्ति नहीं होने की संभावना को स्वीकार किया था. इसके बाद राज्यों को निर्देश दिया था कि यह सुनिश्चित किया जाए बच्चों सहित कमजोर वर्ग के लोगों को भोजन की कमी नहीं हो. इसके तुरंत बाद शिक्षा मंत्रालय ने राज्यों को एक निर्देश जारी करते हुए कहा कि, बच्चों के घरों में ‘गर्म पका हुआ मध्यान्ह भोजन’ या ‘खाद्य सुरक्षा भत्ता’ दिया जाए.

इस आदेश का पालन करते हुए बिहार जैसे राज्यों ने खाना पकाने की लागत के बराबर सीधे गरीबों के खाते में नकद डालने की घोषणा कर दी. राजस्थान और तेलंगाना जैसे राज्यों ने खाद्यान्न देने या खाद्यान्न, दाल, तेल आदि के बराबर खाद्य सुरक्षा भत्ता देने की घोषणा की. यहां तक कि केरल की तरह राज्यों में दूध, अंडे आदि जैसे पौष्टिक आहार भी दिए जाते थे. जब महामारी नहीं थी उस समय मध्याह्न भोजन गर्मी के महीनों में भी दिए जाने को लेकर अलग से पैसे की स्वीकृति भी मांगी गई थी; विशेष रूप से जब स्कूल गर्मी की छुट्टियों के कारण बंद होते हैं.

मध्याह्न भोजन प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या में कमी

इन सारे उपायों के बावजूद हाल के अध्ययनों से पता चला है कि, वादा के मुताबिक बच्चों को लाभ नहीं मिल रहा है. ऑक्सफैम के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि पांच राज्यों ( ओडिशा , बिहार , झारखंड , छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश ) के 1,158 अभिभावकों ने पाया कि मई-जून में करीब एक तिहाई (35 फीसद ) बच्चों को मध्याह्न भोजन नहीं मिल रहा था. उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 92 फीसद था. अन्य अध्ययनों में मध्याह्न भोजन प्राप्त करने वाले बच्चों की संख्या और भी कम पाई गई है. आखिर ऐसा क्यों है? इसके संभावित कारणों को समझने के लिए इस योजना को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है उन्हें देखना और समझना होगा. बजट, पैसा कैसे आ रहा है और जो योजना का लाभ प्राप्त कर रहे हैं उन सब के आंकड़े का विश्लेषण करना उपयोगी होगा.

मध्याह्न भोजन केंद्र सरकार की ओर से प्रायोजित एक योजना है. इस योजना के तहत खाना पकाने की लागत, रसोइये-सह-सहायकों के लिए मानदेय और बुनियादी ढांचा (खाना बनाने के लिए चूल्हा आदि) आदि विभिन्न गतिविधियों के लिए केंद्र सरकार 60 फीसद धन देता है, जो योजना के कामकाज के लिए जरूरी है. केंद्र सरकार खाद्यान्नों की पूरी लागत भी वहन करती है.

जरूरत से कम पैसे का बजट

वित्तीय वर्ष 2020-21 की शुरुआत में केंद्र सरकार ने 11 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए थे, जिसे बाद में बढ़ाकर 12 हजार 600 करोड़ रुपये कर दिए थे. 1,600 करोड़ रुपये अतिरिक्त इसलिए दिए गए ताकि गर्मी के महीनों में मध्याह्न भोजन दिया जा सकें .

केंद्र से राज्यों को जो पैसा जारी किया गया वह एक तो, जरूरत से कम था और दूसरे देने में देरी भी हो गई थी. हमने केंद्र की ओर से वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून 2020) के लिए खाना पकाने की लागत (प्रति यूनिट खाना पकाने की लागत के साथ दिनों की संख्या को गुणा करके अनुमानित निकाला गया) के तौर पर जितना पैसा जारी किया गया और वास्तव में जितनी जरूरत है, उसकी तुलना की. इससे संकेत मिलता है कि जितने पैसे की जरूरत है उसकी तुलना में वास्तव में जो पैसे जारी किए गए वह बहुत कम था.

उदाहरण के लिए राजस्थान में पहली तिमाही के लिए खाना पकाने की लागत 173 करोड़ रुपये आने का अनुमान था. जबकि केंद्र सरकार की ओर से मात्र 90 करोड़ रुपये जारी किए गए. इसी तरह आंध्र प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में जरूरत से 60 प्रतिशत से कम पैसा जारी किया गया. यहां तक कि गर्मी के महीनों के लिए अतिरिक्त पैसा भी जारी नहीं किया गया. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार की ओर से उत्तराखंड में स्वीकृत खाद्य सुरक्षा भत्ता (12.54 करोड़ रुपये) का केवल 43 फीसद ( 5.39 करोड़ रुपये) जारी किया गया. कर्नाटक और तमिलनाडु में यह अनुपात क्रमशः 73 फीसद और 79 फीसद था. वास्तव में 29 अक्टूबर 2020 तक केवल 20 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को गर्मी की छुट्टियों के दौरान मध्याह्न भोजन देने के लिए केंद्र से पैसा मिला था.

केंद्र सरकार से राज्यों को जो धन मिलना था उसे दूसरी तिमाही के अंत में या तीसरी तिमाही की शुरुआत में यानी देरी से मिला था. किसी भी सरकारी योजना को लागू करने के लिए पैसा उपलब्ध कराना सबसे महत्वपूर्ण है. मध्याह्न भोजन के मामले से यही साबित हुआ है क्योंकि कोविड-19 जैसी महामारी के समय जब इसकी सख्त जरूरत है, इस वजह से यह सेवा मुहैया कराने की रफ्तार बहुत धीमी हो गई है.

पैसे की उपलब्धता तो एक तरफ है, इस योजना के तहत सभी छात्रों को शामिल करना सुनिशिचित हो इसमें भी फर्क है. योजना के स्वरूप के अनुसार, राज्य पिछले वर्ष के रुझानों के आधार पर उन बच्चों की संख्या का आंकलन केंद्र सरकार को भेजते हैं जो इस वर्ष मध्याह्न भोजन का लाभ उठाएंगे. केन्द्र सरकार इन अनुमानों की समीक्षा करके अनुमोदन करती है. फिर भी कई राज्यों में खाद्य सुरक्षा भत्ता दिए जाने वाले बच्चों की संख्या राज्यों की ओर से जो आकलन भेजे गए थे उससे कम थी. यही स्थिति गर्मी के महीनों के दौरान दिए जाने वाले भत्ते के लिए भी है. शुरू में जितने बच्चों की स्वीकृति दी गई और वास्तव में जितना खाद्य सुरक्षा भत्ता दिया गया उसमें बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और हरियाणा में सबसे अधिक अंतर था.

पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में कठिनाई

आजीविका के नुकसान और आमदनी कम हो जाने के कारण परिवारों को पर्याप्त पोषण प्राप्त करने में कठिनाई हो रही है. यह देखते हुए महामारी के कारण मध्याह्न भोजन की आवश्यकता बढ़ गई है. इस अवधि के दौरान मध्याह्न भोजन का लाभ उठाने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा होने की संभावना है. वित्तीय वर्ष की शुरुआत में राज्यों की ओर से किए गए आकलनों से संख्या अधिक है. इसका अर्थ यह है कि इस योजना के तरह बच्चों के कवरेज में अंतर शायद अधिक है.

जिस तरह से इस योजना के तहत सभी बच्चों को शामिल करने का आकलन किया गया है वह कितना सटीक है या कितनी संख्या है इसे लेकर सवाल नया नहीं है. उदाहरण के लिए वर्ष 2018 -2019 में मध्याह्न भोजन योजना की वेबसाइट पर उपलब्ध नामांकन संख्या औसतन संयुक्त जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) में जितने की रिपोर्ट थी उसकी तुलना में अधिक थी. यूडीआईएसई ही आधिकारिक स्कूल डाटाबेस है जिसका उपयोग शिक्षा मंत्रालय बजट तैयार करने के लिए करता है. केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से योजना तैयार करने के लिए जिन दो डाटा बैंको का इस्तेमाल किया जाता है, उनमें बिहार के लिए संख्या में 18 लाख और पश्चिम बंगाल के लिए 14 लाख का अंतर था.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि महामारी की वजह से केंद्र और राज्यों पर समान रूप से राजकोषीय बोझ बढ़ा है, जिसका अर्थ है कि पैसे को नियंत्रित किया जा रहा है. लेकिन इससे हमारी योजना, बजट और पैसे के प्रवाह तंत्र की मजबूती के लिए संकट की स्थिति होने जा रही है. ऐसा करने में नाकाम रहने का परिणाम वही होगा जिसकी सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही चेतावनी दे दी है. वह है कुपोषण का संकट.

(लेखक अवनी कपूर और शरद पांडे )

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