गया: आज भी बिहार के गया में गुरुकुल की परंपरा है. बाराचट्टी के कोहवारी जंगल में एक दंपती इस गुरुकुल को संचालित कर रहा है. इस गुरुकुल में बच्चों को न सिर्फ अक्षर का ज्ञान दिया जाता है, बल्कि उन्हें प्रकृति, पशु-पक्षी, कृषि और जीव-जंतु समेत अन्य जानकारियों से अवगत कराया जाता है. यही वजह है कि बच्चे कम उम्र में ही अक्षर ज्ञान के साथ-साथ खेती और अन्य चीजों के बारे में जानकारी हासिल कर लेते हैं. बड़ी बात यह है कि कम उम्र के बच्चे इस जंगल में होने वाली खेती में भी अपना हाथ बंटाते हैं. इस तरह यहां बच्चे कम उम्र में ही काफी कुछ सीख ले रहे हैं.
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पति-पत्नी मिलकर जंगल में चलाते हैं गुरुकुल: कोहवारी जंगल में सहोदय ट्रस्ट का संचालन अनिल कुमार और उनकी पत्नी रेखा देवी करते हैं. यह ट्रस्ट पिछले कई वर्षों से गुरुकुल की तर्ज पर शिक्षा का संचालन कर रहा है. यहां आवासीय तर्ज पर बच्चे-बच्चियों रहकर शिक्षित हो रहे हैं. आमतौर पर देखा जाता है, कि जंगल में रहने वाले बच्चे शिक्षा की रोशनी से दूर रह जाते हैं लेकिन सहोदय ट्रस्ट को चलाने वाले यह पति-पत्नी बाकी से अलग हैं.
स्कूल फीस मात्र 1 किलो चावल: इस दंपती ने शिक्षा का उजाला फैलाने की ठान ली है. यही वजह है कि अब जंगल में रहने वाले बच्चे अक्षर की शिक्षा के साथ-साथ अन्य शिक्षा का भी ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं. बच्चों का आत्मविश्वास देखते समझा जा सकता है कि उनमें किसी प्रकार की झिझक भी नहीं है. बच्चों में संस्कार भी काफी है. किसी के प्रवेश होते ही बच्चे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और उनका स्वागत करते हैं. यहां की फीस जानकर भी आश्चर्य होगा. बच्चे आवासीय तौर पर यहां रखकर पढ़ते हैं, लेकिन उनकी फीस महीने का मात्र 1 किलो चावल होती है.
पढ़ाई के साथ-साथ पेंटिंग और बागबानी भी: यहां के छात्र और छात्राएं बताते हैं कि यहां हम लोग पढ़ाई तो करते ही हैं. साथ ही साथ हम लोगों को खिलौने बनाने और पेंटिंग और बागवानी संबंधी अन्य जानकारियां भी दी जाती है. हम लोगों को खेती के बारे में भी काफी जानकारियां हैं. पशुओं के बारे में भी जानते हैं. यहां हमें अच्छी शिक्षा दी जा रही है.
पहले कुटिया फिर गोलघर की तरह भवन: कोहवारी जंगल में पहुंचना टेढ़ी खीर है, क्योंकि आज भी यहां रास्ता नहीं है. पगडंडियों और पतली कच्ची सड़कों ही सहारा है. जंगल की गोद में यह स्थान बसा है. यहां पिछड़े समाज और गरीबों की आबादी है. जहां बच्चे पहले निरक्षर रह जाया करते थे, अब वह साक्षर हो रहे हैं. वहीं विनोबा भावे की भूदान की जमीन पर ही खेती से अर्जित रुपयों से यहां गोलघर की तर्ज पर भवन बनाया गया है. इस भवन में बच्चे पढ़ते भी हैं और खेलते भी हैं. भूदान की जमीन पर बच्चों को खेती, बागवानी, पशुपालन समेत अन्य जानकारियां दी जाती है.
नौकरी छोड़कर शुरू किया शिक्षा देना: वहीं, सहोदय ट्रस्ट से जुड़े अनिल कुमार बताते हैं कि वर्ष 2016-17 में उन्हें शहर छोड़ना पड़ा. वह दिल्ली में काम करते थे लेकिन उनका मन जंगल और ग्रामीण इलाकों के ज्यादा करीब होता था. इसके बीच में अचानक किसी दिन बाराचट्टी के कोहवारी जंगल वाले इलाके में आए और यहां विनोबा भावे की भूदान की जमीन को लोगों की सहमति से गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए उपयोग करना शुरू किया.
"आज तीन दर्जन के करीब बच्चे शिक्षा अर्जित कर रहे हैं. जो यहां आकर न केवल पढ़ रहे हैं, बल्कि बाग-बागवानी, कृषि और पशुपालन समेत अन्य जानकारियां प्राप्त कर रहे हैं और मेधावी बन रहे हैं. अभी मेरी पत्नी रेखा कुमारी इस विद्यालय की संचालन कर्ता हैं. हमदोनों मिलकर इस विद्यालय को चला रहे हैं. स्थानीय लोगों का भी सहयोग मिलता है"- अनिल कुमार, संचालक, सर्वोदय ट्रस्ट
समग्र जीवन पर आधारित है हमारी शिक्षा: वहीं, सहोदय ट्रस्ट की संचालिका रेखा कुमारी बताती है कि हम समग्र जीवन पर आधारित शिक्षा बच्चों को देते हैं. बच्चों को किताबों के लाभ के साथ-साथ अन्य शिक्षा जैसे कि बांस और मिट्टी से खिलौने बनाने के बारे में सिखाया जाता है. उन्हें बागवानी कृषि से जुड़ी जानकारी दी जाती है और वह भी हाथ बंटाते हैं. उनकी मदद से खेती कर अनाज उपजाया जाता है.
"मैं अपने पति के साथ मिलकर इस गुरुकुल को चला रही हूं. हमलोग चाहते हैं कि बच्चों को समग्र शिक्षा दी जाए. इसी कोशिश के तहत बच्चों को किताबों के लाभ के साथ-साथ अन्य शिक्षा जैसे कि बांस और मिट्टी से खिलौने बनाने के बारे में सिखाया जाता है. उनकी मदद से खेती कर अनाज उपजाया जाता है और उसी से हम इन बच्चों का आवासीय तौर पर शिक्षा भी देने में सक्षम हो पाते हैं"- रेखा कुमारी, संचालिका, सहोदय ट्रस्ट