हैदराबाद : भारत की वर्तमान आबादी कितनी है? 2011 के बाद से आबादी कितनी बढ़ी है? इन सारे सवालों का जवाब 2021 की जनगणना में छिपा है. 2024-25 तक जनगणना से संबंधित डेटा उपलब्ध होगा. इसमें तमाम तरह के आंकड़े मिलेंगे. धर्म, व्यवसाय, जेंडर, कच्चे मकान-पक्के मकान, मोबाइल यूजर्स, सेक्स रेश्यो, भाषा, बोली, गरीब-अमीर जैसी सभी जानकारियां मिलेंगी. क्या भारत में रहने वाली पिछड़ा वर्ग की जातियों के बारे में पता चलेगा? यह अभी बहस का विषय है.
सरकार जाति आधारित जनगणना ( Caste census in India) कराने के मूड में नहीं है. जबकि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले जाति आधारित जनगणना कराने की पैरवी कर रहे हैं. नीतीश कुमार ने तेजस्वी के बोलने से पहले यह मुद्दा नरेंद्र मोदी के सामने रख दिया, क्योंकि बिहार में जाति आधारित राजनीति खूब चमकती है.
पहले तो राजी थी नरेंद्र मोदी की सरकार : 2018 में, मोदी सरकार ने घोषणा की थी कि वह जनगणना में जाति को एक कैटिगरी (category) के रूप में शामिल करेगी. बाद में वह बिना कोई कारण बताए अपनी बात से मुकर गई. 20 जुलाई 2021 को केंद्र सरकार ने संसद को बताया कि उसने जाति जनगणना नहीं कराने का फैसला किया है. अगली जनगणना में केवल दलितों और आदिवासियों की ही अलग से गिनती की जाएगी. इसमें अन्य पिछड़ा वर्ग या अन्य जाति समूह को अलग नहीं किया जाएगा. पहले की जनगणना में भी ऐसा ही होता रहा है.
जाति आधारित जनगणना की मांग क्यों हो रही है ? : भारत के सभी बड़े राज्यों में जाति आधारित राजनीति होती रही है. 1951 में भी तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के पास जाति आधार पर जनगणना कराने का प्रस्ताव आया था. सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव को इस तर्क के साथ खारिज कर दिया था कि ऐसी जनगणना से देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है.
हिंदी पट्टी खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति किसी भी चुनाव का सबसे बड़ा फैक्टर होता है. पिछली जनगणना 2011 के दौरान भी मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं ने ऐसी ही जनगणना की मांग की थी. जाति आधारित जनगणना से अति पिछड़ा वर्ग (Other Backward caste) की संख्या क्लियर हो सकती है. अभी तक ओबीसी की संख्या स्पष्ट नहीं है, जबकि इस समूह का वोट बैंक काफी बड़ा और निर्णायक माना जाता है.
क्या है अन्य पिछड़ा वर्ग ( OBC) का मामला
जनगणना के दौरान कभी अति पिछड़ा वर्ग की गिनती नहीं की गई. मगर मंडल कमीशन ने अन्य पिछड़ा वर्ग और इसकी जातियों की संख्या का आकलन किया. 1 जनवरी 1979 को दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बना. इसके अध्यक्ष बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल ने दिसंबर 1980 में एक रिपोर्ट पेश की, रिपोर्ट में कहा गया है कि ओबीसी (हिंदुओं और गैर हिंदुओं) की कुल आबादी का लगभग 52 फीसदी है. तब इस आंकड़े पर भी सवाल खड़े किए गए. 1979 -80 में स्थापित मंडल आयोग की प्रारंभिक सूची में पिछड़ी जातियों और समुदायों की संख्या 3, 743 थी. पिछड़ा वर्ग के राष्ट्रीय आयोग के अनुसार 2006 में अन्य पिछड़ी जातियों की संख्या 5,013 हो गई है. कई राज्यों ने जाति समूहों को आंदोलनों के बाद ओबीसी कैटिगरी में शामिल कर दिया.
सरकार क्यों नहीं चाहती ओबीसी की गिनती
- सरकार सरदार बल्लभ भाई पटेल के उस तर्क से आज भी सहमत है, जिसमें कहा गया कि इससे देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है
- अति पिछड़ा वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदाय राजनीतिक और सामाजिक आरक्षण की मांग कर रहे हैं, ऐसे में सामाजिक संघर्ष की आशंका बढ़ेगी
- सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत, आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय है. ऐसे में कोई भी सरकार कानूनी पचड़े में नहीं पड़ना चाहती.
- अगर आरक्षण की सीमा बढ़ाए बगैर अन्य जातियों को इस कैटिगरी में शामिल किया गया तो इसका असर अनुसूचित जाति और जनजाति पर पड़ेगा.
- जातीय बंटवारे के बाद भारतीय जनता पार्टी का हिंदुत्व का मूल सिद्धांत पर भी असर पड़ेगा. आरएसएस भी जातीय जनगणना का समर्थन नहीं करता है
- 2010 में मनमोहन सिंह की नेतृत्व वाली यूपीए-दो की सरकार में प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के एक समूह का गठन किया गया था. मंत्री समूह की सिफारिश पर 2011 में जातिगत आंकड़े तो जुटाए गए मगर इसे प्रकाशित नहीं किया गया.
दलित (scheduled castes) और आदिवासी (scheduled tribes) की गिनती क्यों की जाती है?
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1935 में गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट लागू किया और भारत के राज्यों को फेडरल व्यवस्था के तहत प्रोविंस बनाया. इस सिस्टम में सामाजिक तौर से पिछड़ी जातियों को भी प्रतिनिधित्व दिया गया. आजादी के बाद संविधान बनाने के दौरान विमर्श में दलित और आदिवासी को राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सामाजिक आरक्षण देने की बात हुई. चूंकि इन नीतिगत फैसलों को लागू करने के लिए पहले कई कानून बनाए गए. फिर पहली जनगणना से ही इन दोनों समुदायों की गिनती शुरू की गई.
केरल और कर्नाटक में सर्वे के नाम पर हुई थी जाति की गिनती : देश में पहली बार जाति आधारित जनगणना 1931 में की गई थी. इसके बाद 2011 में भी ऐसा ही हुआ. लेकिन इस रिपोर्ट में कई कमियां बताई गईं और इसे सार्वजनिक नहीं किया गया. केरल और कर्नाटक में सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के नाम पर जातिगत गिनती की गई.
केरल में 1968 में ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद की कम्युनिस्ट सरकार ने सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आकलन के लिए जाति-गणना कराई थी. इसके परिणाम केरल के 1971 के राजपत्र में प्रकाशित किए गए थे. मगर 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने चुनाव से पहले जो सामाजिक आर्थिक सर्वे (Socio-Economic Survey) नाम से जाति जनगणना कराई थी, उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई.
अब क्या होगा : हर जनगणना से पहले जातिगत जनगणना की मांग उठती रही है. चूंकि केंद्र सरकार इससे इनकार किया है, इसलिए इसकी उम्मीद नहीं है.