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बिहार विधानसभा चुनाव में क्या कांग्रेस है तेजस्वी पर निर्भर?

बिहार में कांग्रेस अपनी चुनावी संभावनाओं के लिए पूरी तरह राजद पर निर्भर है. कांग्रेस के पास राजद की दया पर छोड़ दिए जाने के अलावा कोई और विकल्प भी नहीं है, यहां तक ​​कि पार्टी के राष्ट्रीय नेता भी राजद की नीतियों की धुन पर नाचने को मजबूर हैं. बिहार कांग्रेस की कार्यकारी समिति उतनी मजबूत नहीं है जितनी 2015 में थी. जानिए कांग्रेस और राजद गठबंधन के बीच कई मुद्दे.

Bihar Election War Room
बिहार चुनाव वार रूम
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Published : Oct 26, 2020, 10:15 AM IST

Updated : Oct 26, 2020, 12:54 PM IST

पटना : बिहार विधानसभा चुनाव-2020 में कांग्रेस के उम्मीदवारों को अजीबोगरीब स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. नीतियों, विचारों और नेतृत्व के अभाव में, उम्मीदवार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों और वोट बैंक के बीच संतुलन बनाने में असहज दिख रहे हैं.

कांग्रेस के लिए धरातल पर स्थिति नियंत्रण में नहीं हैं. यदि पार्टी के नेता एक समस्या का हल ढूंढते हैं तब दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है. इस विकट स्थिति ने बिहार के अधिकांश कांग्रेस नेताओं को संघर्षरत कर दिया है.

तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के पीछे पार्टी ने अपना पूरा वजन डाल दिया है. या फिर कहें, तो बिहार में अपनी चुनावी संभावनाओं के लिए कांग्रेस पूरी तरह से राजद पर निर्भर है. हालांकि, यह कुछ नया नहीं है जहां तक कांग्रेस और बिहार की राजनीति का संबंध है. 1990 के बाद से स्थिति समान है.

कांग्रेस के पास राजद की दया पर छोड़ दिए जाने के अलावा कोई और विकल्प भी नहीं है, यहां तक ​​कि पार्टी के राष्ट्रीय नेता भी राजद की नीतियों की धुन पर नाचने को मजबूर हैं. ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने अपने विचारों और नीतियों को पीछे छोड़ दिया है.

बिहार विधानसभा चुनाव-2020 के पहले चरण का प्रचार अब समापन की ओर अग्रसर है. इस चरण में, 71 विधानसभा सीटो पर मतदान होना है, जिनमें से कांग्रेस ने 21 सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया है. 2015 में, जब जेडीयू और राजद ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था, तब कांग्रेस ने पहले चरण के मतदान में 13 सीटों पर चुनाव लड़ा था और नौ सीटों पर जीत विजय पताका लहराया था.

बदले परिदृश्य में, कांग्रेस को अधिक सीटें और बड़ी भूमिका मिली है, लेकिन पार्टी ने समय के साथ अपना वोट बैंक खो दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास के तख्तों और भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग ने राज्य में राजनीतिक स्थान और सीटों के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया है. कांग्रेस अपने हिसाब से स्वयं को मजबूत नहीं कर पाई. पार्टी नेतृत्व ने राज्य इकाई पर विधानसभा चुनाव जीतने के लिए जोर लगाया है. केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य विधानसभा चुनाव को उतनी तवज्जों नहीं दी है जितनी की आवश्यकता थी.

वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में कांग्रेस कुल 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. विधानसभा चुनाव-2015 में कांग्रेस को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि जदयू नेता नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के मध्य चल रही थीं. कांग्रेस का चुनाव वॉर रूम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यादव और कुमार की जोड़ी द्वारा तय किया जा रहा था. या यूं कहे की कुमार द्वारा तय किए गए उम्मीदवारों का कांग्रेस विरोध भी नहीं कर पाई थी.

विधानसभा चुनाव-2015 में, कांग्रेस ने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो 1989 के बाद पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. हालांकि, बिहार 2020 में पहले चरण के मतदान में, कांग्रेस अपनी नीतियों और सिद्धांतों के मामले में स्वयं को मजबूती से पेश नहीं कर पाई है. कार्यकर्ताओं ने भी उम्मीदों के अनुरूप तैयारियां नहीं की. पार्टी के उम्मीदवारों को उम्मीद थी कि उनके वरिष्ठ नेता पहले चरण के मतदान में उनके लिए प्रचार करेंगे, लेकिन राहुल गांधी की रैली को छोड़ अन्य किसी बडे नेता ने अभी तक शिरकत नहीं की है.

सोनिया, राहुल, प्रियंका ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया
पहले चरण के मतदान के लिए कांग्रेस के पास बड़ी संख्या में उम्मीदवार थे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व उम्मीदवारों की उम्मीद पर खरा नहीं उतर सका. बिहार में कांग्रेस ने तेजस्वी यादव की नीतियों और चुनाव की तैयारियों के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया है. 2015 के चुनाव में कांग्रेस के हैवीवेट ने बिहार में कई रैलियां कीं थी.

सोनिया गांधी ने भी छह चुनावी जन सभाओं को संबोधित किया था. राहुल गांधी ने भी कई रैलियां कीं और मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने विचार रखे. हालांकि, इस बार, कांग्रेस के सभी शीर्ष नेता सक्रिय रूप से भाग नहीं ले रहे हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल और राहुल गांधी को छोड़कर, चुनाव में प्रचार करने वाले अधिकांश बड़े नेता कम से कम मतदान के पहले चरण में तो नहीं पाए. जैसा कि हम जानते हैं कि आज यानि सोमवार 26 अक्टूबर को शाम पांच बजे पहले चरण के मतदान के लिए चुनाव प्रंचार थम जाएगा.

पढ़ें - बिहार : पहले चरण के चुनाव प्रचार का अंतिम दिन, देखें 71 सीटों का टाइम टेबल

राज्य का नेतृत्व मजबूत नहीं
बिहार कांग्रेस की कार्यकारी समिति भी उतनी मजबूत नहीं है जितनी 2015 में थी. समन्वय समिति और अन्य पार्टी इकाइयों से संबंधित बहुत सारे प्रश्न हैं. कांग्रेस और राजद गठबंधन के बीच कई मुद्दे हैं. 2015 में, अशोक चौधरी कांग्रेस के राज्य इकाई अध्यक्ष थे, जो अब जदयू के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं. अशोक चौधरी ने कांग्रेस को मजबूत बनाया और पार्टी को एक दिशा दी.

हालांकि, वर्तमान राज्य इकाई कांग्रेस अध्यक्ष ने अपना अधिकांश समय राज्य विधान परिषद चुनावों के लिए बर्बाद कर दिया और विधानसभा चुनावों के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला. बिहार चुनाव प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने निश्चित रूप से रणदीप सिंह सुरजेवाला के साथ जिम्मेदारी संभाली है. महागठबंधन की गरिमा बनाए रखने के लिए राजद को कांग्रेस के उम्मीदवारों का भी ख्याल रखना होगा.

राज्य का नेतृत्व भी कई मुद्दों से जूझ रहा है. वास्तव में, कांग्रेस अपने स्वयं के उम्मीदवारों के लिए बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है. मामलों को बदतर बनाने के लिए, स्थिति इस स्तर पर पहुंच गई है कि अनुशासन की कमी के कारण, आयकर ने सदाकत आश्रम में पार्टी कार्यालय पर छापा मारा और वाहनों से अवैध पैसा जब्त किया गया.

कांग्रेस भ्रष्टाचार के बारे में चाहे कुछ भी कहे और भाजपा पर निशाना साधें, जिस तरह से कांग्रेस के नेता कानूनी मुसीबत में फंसे हैं, वह पार्टी के लिए अच्छा शगुन नहीं है. यह देखा जाना बाकी है कि कांग्रेस, जो पहले चरण के मतदान में सबसे अधिक बनाने में विफल रही, दूसरे तीसरे चरण के मतदान के दौरान योजना बनाने और प्रचार करने के मामले में नुकसान उठाती है.

पटना : बिहार विधानसभा चुनाव-2020 में कांग्रेस के उम्मीदवारों को अजीबोगरीब स्थिति का सामना करना पड़ रहा है. नीतियों, विचारों और नेतृत्व के अभाव में, उम्मीदवार अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों और वोट बैंक के बीच संतुलन बनाने में असहज दिख रहे हैं.

कांग्रेस के लिए धरातल पर स्थिति नियंत्रण में नहीं हैं. यदि पार्टी के नेता एक समस्या का हल ढूंढते हैं तब दूसरी समस्या उत्पन्न हो जाती है. इस विकट स्थिति ने बिहार के अधिकांश कांग्रेस नेताओं को संघर्षरत कर दिया है.

तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के पीछे पार्टी ने अपना पूरा वजन डाल दिया है. या फिर कहें, तो बिहार में अपनी चुनावी संभावनाओं के लिए कांग्रेस पूरी तरह से राजद पर निर्भर है. हालांकि, यह कुछ नया नहीं है जहां तक कांग्रेस और बिहार की राजनीति का संबंध है. 1990 के बाद से स्थिति समान है.

कांग्रेस के पास राजद की दया पर छोड़ दिए जाने के अलावा कोई और विकल्प भी नहीं है, यहां तक ​​कि पार्टी के राष्ट्रीय नेता भी राजद की नीतियों की धुन पर नाचने को मजबूर हैं. ग्रैंड ओल्ड पार्टी ने अपने विचारों और नीतियों को पीछे छोड़ दिया है.

बिहार विधानसभा चुनाव-2020 के पहले चरण का प्रचार अब समापन की ओर अग्रसर है. इस चरण में, 71 विधानसभा सीटो पर मतदान होना है, जिनमें से कांग्रेस ने 21 सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा किया है. 2015 में, जब जेडीयू और राजद ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था, तब कांग्रेस ने पहले चरण के मतदान में 13 सीटों पर चुनाव लड़ा था और नौ सीटों पर जीत विजय पताका लहराया था.

बदले परिदृश्य में, कांग्रेस को अधिक सीटें और बड़ी भूमिका मिली है, लेकिन पार्टी ने समय के साथ अपना वोट बैंक खो दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विकास के तख्तों और भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग ने राज्य में राजनीतिक स्थान और सीटों के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमा लिया है. कांग्रेस अपने हिसाब से स्वयं को मजबूत नहीं कर पाई. पार्टी नेतृत्व ने राज्य इकाई पर विधानसभा चुनाव जीतने के लिए जोर लगाया है. केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य विधानसभा चुनाव को उतनी तवज्जों नहीं दी है जितनी की आवश्यकता थी.

वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में कांग्रेस कुल 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. विधानसभा चुनाव-2015 में कांग्रेस को ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि जदयू नेता नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के मध्य चल रही थीं. कांग्रेस का चुनाव वॉर रूम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यादव और कुमार की जोड़ी द्वारा तय किया जा रहा था. या यूं कहे की कुमार द्वारा तय किए गए उम्मीदवारों का कांग्रेस विरोध भी नहीं कर पाई थी.

विधानसभा चुनाव-2015 में, कांग्रेस ने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो 1989 के बाद पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था. हालांकि, बिहार 2020 में पहले चरण के मतदान में, कांग्रेस अपनी नीतियों और सिद्धांतों के मामले में स्वयं को मजबूती से पेश नहीं कर पाई है. कार्यकर्ताओं ने भी उम्मीदों के अनुरूप तैयारियां नहीं की. पार्टी के उम्मीदवारों को उम्मीद थी कि उनके वरिष्ठ नेता पहले चरण के मतदान में उनके लिए प्रचार करेंगे, लेकिन राहुल गांधी की रैली को छोड़ अन्य किसी बडे नेता ने अभी तक शिरकत नहीं की है.

सोनिया, राहुल, प्रियंका ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया
पहले चरण के मतदान के लिए कांग्रेस के पास बड़ी संख्या में उम्मीदवार थे, लेकिन शीर्ष नेतृत्व उम्मीदवारों की उम्मीद पर खरा नहीं उतर सका. बिहार में कांग्रेस ने तेजस्वी यादव की नीतियों और चुनाव की तैयारियों के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया है. 2015 के चुनाव में कांग्रेस के हैवीवेट ने बिहार में कई रैलियां कीं थी.

सोनिया गांधी ने भी छह चुनावी जन सभाओं को संबोधित किया था. राहुल गांधी ने भी कई रैलियां कीं और मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने विचार रखे. हालांकि, इस बार, कांग्रेस के सभी शीर्ष नेता सक्रिय रूप से भाग नहीं ले रहे हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश सिंह बघेल और राहुल गांधी को छोड़कर, चुनाव में प्रचार करने वाले अधिकांश बड़े नेता कम से कम मतदान के पहले चरण में तो नहीं पाए. जैसा कि हम जानते हैं कि आज यानि सोमवार 26 अक्टूबर को शाम पांच बजे पहले चरण के मतदान के लिए चुनाव प्रंचार थम जाएगा.

पढ़ें - बिहार : पहले चरण के चुनाव प्रचार का अंतिम दिन, देखें 71 सीटों का टाइम टेबल

राज्य का नेतृत्व मजबूत नहीं
बिहार कांग्रेस की कार्यकारी समिति भी उतनी मजबूत नहीं है जितनी 2015 में थी. समन्वय समिति और अन्य पार्टी इकाइयों से संबंधित बहुत सारे प्रश्न हैं. कांग्रेस और राजद गठबंधन के बीच कई मुद्दे हैं. 2015 में, अशोक चौधरी कांग्रेस के राज्य इकाई अध्यक्ष थे, जो अब जदयू के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष हैं. अशोक चौधरी ने कांग्रेस को मजबूत बनाया और पार्टी को एक दिशा दी.

हालांकि, वर्तमान राज्य इकाई कांग्रेस अध्यक्ष ने अपना अधिकांश समय राज्य विधान परिषद चुनावों के लिए बर्बाद कर दिया और विधानसभा चुनावों के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला. बिहार चुनाव प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने निश्चित रूप से रणदीप सिंह सुरजेवाला के साथ जिम्मेदारी संभाली है. महागठबंधन की गरिमा बनाए रखने के लिए राजद को कांग्रेस के उम्मीदवारों का भी ख्याल रखना होगा.

राज्य का नेतृत्व भी कई मुद्दों से जूझ रहा है. वास्तव में, कांग्रेस अपने स्वयं के उम्मीदवारों के लिए बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं है. मामलों को बदतर बनाने के लिए, स्थिति इस स्तर पर पहुंच गई है कि अनुशासन की कमी के कारण, आयकर ने सदाकत आश्रम में पार्टी कार्यालय पर छापा मारा और वाहनों से अवैध पैसा जब्त किया गया.

कांग्रेस भ्रष्टाचार के बारे में चाहे कुछ भी कहे और भाजपा पर निशाना साधें, जिस तरह से कांग्रेस के नेता कानूनी मुसीबत में फंसे हैं, वह पार्टी के लिए अच्छा शगुन नहीं है. यह देखा जाना बाकी है कि कांग्रेस, जो पहले चरण के मतदान में सबसे अधिक बनाने में विफल रही, दूसरे तीसरे चरण के मतदान के दौरान योजना बनाने और प्रचार करने के मामले में नुकसान उठाती है.

Last Updated : Oct 26, 2020, 12:54 PM IST
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