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पितृ पक्ष में इन 8 श्राद्ध का बेहद महत्व, दो मुख्य श्राद्ध जरूरी, जानिए इनके बारे में - 8 Shraddha of Pitru Paksha - 8 SHRADDHA OF PITRU PAKSHA

पितृपक्ष के मौके पर श्राद्ध कर्म और तर्पण का विशेष महत्व होता है. वैसे तो पितृ पक्ष की शुरुआत आज से ही हो गई है, लेकिन दोपहर में प्रतिपदा तिथि मिलने और उदय तिथि कल होने के कारण पितृ पक्ष की शुरुआत 19 तारीख से ही मानी जा रही है.

पितृ पक्ष में इन 8 श्राद्ध का बेहद महत्व,.
पितृ पक्ष में इन 8 श्राद्ध का बेहद महत्व,. (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Sep 18, 2024, 12:16 PM IST

वाराणसी: पितृपक्ष के मौके पर श्राद्ध कर्म और तर्पण का विशेष महत्व होता है. वैसे तो पितृ पक्ष की शुरुआत आज से ही हो गई है, लेकिन दोपहर में प्रतिपदा तिथि मिलने और उदय तिथि कल होने के कारण पितृ पक्ष की शुरुआत 19 तारीख से ही मानी जा रही है. हालांकि कई लोग अपने-अपने तरीके से श्राद्ध कर्म की शुरुआत कर चुके हैं. कहीं आज और कहीं कल से इसे शुरू माना जा रहा है. दो अक्टूबर को इसका समापन होगा. पितृपक्ष के मौके पर पितरों के निमित्त जल, तिल, चावल, जौ और कुश के जरिए पिंडदान और तर्पण करने का नियम बताया गया है. श्राद्ध कर्म के दौरान गौ, कुत्ता और कौवे के लिए भी भोजन का अलग से हिस्सा निकाला जाता है.

पितृ पक्ष में इन 8 श्राद्ध का बेहद महत्व,. (Video Credit; ETV Bharat)

पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि हमारे सनातन धर्म में किसी भी व्यक्ति के ऊपर तीन तरह के ऋण होते हैं. जिसमें पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण होता है. श्राद्ध कर्म के जरिए हम अपने पितृ ऋण से निवृत होते हैं और पितरों को जल देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. इसलिए 15 दिन अलग-अलग तरह के श्राद्ध की परंपरा है. इसमें नारायण बलि और त्रिपिंडी का विशेष महत्व है. जानिए कौन से हैं यह श्राद्ध और क्यों किए जाते हैं.

पितृ लोक से धरती पर आते हैं पितर: पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि इस 15 दिन के पखवारे में श्राद्ध कर्म और तर्पण करना अनिवार्य माना जाता है. इन 15 दिनों तक मृत्यु के बाद धरती पर आने वाले पितरों को तृप्त करने के लिए अलग-अलग कई तरह के श्राद्ध किए जाते हैं. जिसमें नित्य श्राद्ध, जिसके अंतर्गत नियमित रूप से पितरों के लिए जल अर्पण करने के साथ ही अन्न के जरिए तृप्ति किया जाता है. माता-पिता एवं गुरुजनों के नियमित पूजन को भी नित्य श्रद्धा की संज्ञा दी जाती है. इसके अतिरिक्त सपिंडी श्राद्ध भी होता है. इसमें सपिंडन का तात्पर्य ही पिंडदान के लिए मौजूद पिंडों को एक दूसरे से मिलाना होता है. इस प्रक्रिया में प्रेत का पिंड पितरों में मिलाकर प्रेत योनि से उसे पितृ योनि में ले जाना होता है. इसे ही संपीडन श्रद्धा की श्रेणी में रखा जाता है.

पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि श्राद्ध कर्म और तर्पण जरूरी इसलिए होता है कि सनातन धर्म में एक मनुष्य की 84 लाख योनियां मानी जाती हैं. जब यह शरीर मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य जीव के रूप में नया जीवन प्राप्त करने की तरफ अग्रसर होता है तब श्राद्ध व तर्पण की सही प्रक्रिया की वजह से आत्मा भटकती नहीं है और वह पितर लोक पहुंच जाती है. जिसके बाद इस प्रक्रिया को पूरा करते हुए वह पुनर्जन्म की तरफ अग्रसर होती है. ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्रद्धा भाव के साथ पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और पितृ दोष का प्रभाव भी नहीं होता है, क्योंकि 15 दिनों तक पूर्वज हमारे साथ हमारे बीच में रहते हैं. इसलिए अंतिम पूरे मनोभाव से उनकी विदाई की जाती है.

पंडित नीरज कुमार पांडे के मुताबिक मुख्य रूप से श्राद्ध और तर्पण की प्रक्रिया पांच तरह की होती हैं. जानिए कौन सी-

नित्य श्राद्ध: यह श्राद्ध कर्म मृत्यु के उपरांत दूसरे दिन से ही शुरू हो जाता है और नियमित 10 दिन तक चलता है.

माहापात्र श्राद्ध: इस श्राद्ध कर्म में दसवें दिन महापात्रा को भोजन करने से लेकर अन्य दान दक्षिणा की प्रक्रिया को पूर्ण किया जाता है. यह अधिकार सिर्फ महापात्र का होता है. इसमें किसी अन्य पंडित पुजारी को नहीं शामिल किया जाता.

एकादशी श्राद्ध: दसवें की प्रक्रिया के बाद 11 वें दिन यह श्राद्ध होता है. जिसके बाद दो दिन तक यानी 13 दिन पूर्ण होने तक ब्राह्मण द्वारा भोजन व पिंडदान की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है और दान भी ब्राह्मण को दिया जाता है.

छमाही श्राद्ध: मृत्यु को उपरांत छठवें महीने में जिस तिथि को मृत्यु हुई हो, उस दिन ब्राह्मण को दान व भोजन के साथ पिंडदान व श्राद्ध कर्म की प्रक्रिया पूरी की जाती है.

वार्षिक श्राद्ध: मृत्यु के 1 वर्ष के उपरांत होता है, जो अनिवार्य माना जाता है. इस वार्षिक श्राद्ध की श्रेणी में रखा गया है. इस श्राद्ध में जिस व्यक्ति की मृत्यु हो, उसकी पसंद के सारे सामान के साथ उसके पसंद का भोजन ब्राह्मणों को करवाया जाता है व पिंडदान व तर्पण पूर्ण होता है.

नारायण बलि: यह श्राद्ध कर्म अति आवश्यक होता है. खास तौर पर उन लोगों के लिए, जिनकी मृत्यु किसी हादसे या प्राकृतिक तरीके से हुई हो. सुसाइड करने की स्थिति में, आग से जलकर मरने में या फिर किसी तरह के हादसे के दौरान मृत्यु होने पर नारायण बलि की प्रक्रिया पूर्ण करना आवश्यक होता है, क्योंकि अप्राकृतिक मृत्यु के बाद आत्मा प्रेत योनि में जाती है और नारायण बलि ना होने की वजह से वह भटकती रहती है. साथ ही आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से काफी परेशान करती है. ऐसी स्थिति में नारायण बलि पूर्ण करने के बाद आत्मा को मुक्ति मिलती है वह प्रेत योनि से निकलकर पितृ लोक को जाती है.

त्रिपिंडी श्राद्ध: त्रिपिंडी श्राद्ध में एक साथ 44 आत्माओं की मुक्ति होती है. नारायण बलि में एक आत्मा की मुक्ति होती है, जबकि त्रिपिंडी श्राद्ध में 44 आत्माओं को एक साथ मुक्ति मिलती है. पुराणों में वर्णित है प्रयाग मुंडे, काशी पिंडे और गया डंडे यानी तीर्थ के रूप में तीन स्थान हैं. जिनमें सबसे पहले प्रयाग फिर काशी में पिंड और गया में श्रद्धा करते हुए पितरों की आत्मा की शांति का कार्य किया जाता है.

सपिंडन: यह प्रक्रिया अति आवश्यक होती है क्योंकि माना जाता है कि मृत्यु के उपरांत 13 दिनों तक कोई भी आत्मा धरती को छोड़कर जाना नहीं जाती और वह भटकती रहती है. ऐसे में उस आत्मा की शांति के लिए सपिंडन प्रक्रिया पूर्ण करना अनिवार्य होता है. इसमे मरने वाले के नाम से पिंड को पितरों के पिंड के साथ मिलाया जाता है. जिससे वह आत्मा प्रेत योनि से निकलकर पितर योनि में चली जाए.

(डिस्क्लेमर- यह खबर धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. ईटीवी भारत इसकी पुष्टि नहीं करता.)

यह भी पढ़ें : काशी के इस कुंड पर भटकती आत्माओं को मिलती है मुक्ति, पितृपक्ष में होता है विशेष पूजन - Pishach Mochan Kund

वाराणसी: पितृपक्ष के मौके पर श्राद्ध कर्म और तर्पण का विशेष महत्व होता है. वैसे तो पितृ पक्ष की शुरुआत आज से ही हो गई है, लेकिन दोपहर में प्रतिपदा तिथि मिलने और उदय तिथि कल होने के कारण पितृ पक्ष की शुरुआत 19 तारीख से ही मानी जा रही है. हालांकि कई लोग अपने-अपने तरीके से श्राद्ध कर्म की शुरुआत कर चुके हैं. कहीं आज और कहीं कल से इसे शुरू माना जा रहा है. दो अक्टूबर को इसका समापन होगा. पितृपक्ष के मौके पर पितरों के निमित्त जल, तिल, चावल, जौ और कुश के जरिए पिंडदान और तर्पण करने का नियम बताया गया है. श्राद्ध कर्म के दौरान गौ, कुत्ता और कौवे के लिए भी भोजन का अलग से हिस्सा निकाला जाता है.

पितृ पक्ष में इन 8 श्राद्ध का बेहद महत्व,. (Video Credit; ETV Bharat)

पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि हमारे सनातन धर्म में किसी भी व्यक्ति के ऊपर तीन तरह के ऋण होते हैं. जिसमें पहला देव ऋण, दूसरा ऋषि ऋण और तीसरा पितृ ऋण होता है. श्राद्ध कर्म के जरिए हम अपने पितृ ऋण से निवृत होते हैं और पितरों को जल देकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. इसलिए 15 दिन अलग-अलग तरह के श्राद्ध की परंपरा है. इसमें नारायण बलि और त्रिपिंडी का विशेष महत्व है. जानिए कौन से हैं यह श्राद्ध और क्यों किए जाते हैं.

पितृ लोक से धरती पर आते हैं पितर: पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि इस 15 दिन के पखवारे में श्राद्ध कर्म और तर्पण करना अनिवार्य माना जाता है. इन 15 दिनों तक मृत्यु के बाद धरती पर आने वाले पितरों को तृप्त करने के लिए अलग-अलग कई तरह के श्राद्ध किए जाते हैं. जिसमें नित्य श्राद्ध, जिसके अंतर्गत नियमित रूप से पितरों के लिए जल अर्पण करने के साथ ही अन्न के जरिए तृप्ति किया जाता है. माता-पिता एवं गुरुजनों के नियमित पूजन को भी नित्य श्रद्धा की संज्ञा दी जाती है. इसके अतिरिक्त सपिंडी श्राद्ध भी होता है. इसमें सपिंडन का तात्पर्य ही पिंडदान के लिए मौजूद पिंडों को एक दूसरे से मिलाना होता है. इस प्रक्रिया में प्रेत का पिंड पितरों में मिलाकर प्रेत योनि से उसे पितृ योनि में ले जाना होता है. इसे ही संपीडन श्रद्धा की श्रेणी में रखा जाता है.

पंडित नीरज पांडेय का कहना है कि श्राद्ध कर्म और तर्पण जरूरी इसलिए होता है कि सनातन धर्म में एक मनुष्य की 84 लाख योनियां मानी जाती हैं. जब यह शरीर मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य जीव के रूप में नया जीवन प्राप्त करने की तरफ अग्रसर होता है तब श्राद्ध व तर्पण की सही प्रक्रिया की वजह से आत्मा भटकती नहीं है और वह पितर लोक पहुंच जाती है. जिसके बाद इस प्रक्रिया को पूरा करते हुए वह पुनर्जन्म की तरफ अग्रसर होती है. ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में श्रद्धा भाव के साथ पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और पितृ दोष का प्रभाव भी नहीं होता है, क्योंकि 15 दिनों तक पूर्वज हमारे साथ हमारे बीच में रहते हैं. इसलिए अंतिम पूरे मनोभाव से उनकी विदाई की जाती है.

पंडित नीरज कुमार पांडे के मुताबिक मुख्य रूप से श्राद्ध और तर्पण की प्रक्रिया पांच तरह की होती हैं. जानिए कौन सी-

नित्य श्राद्ध: यह श्राद्ध कर्म मृत्यु के उपरांत दूसरे दिन से ही शुरू हो जाता है और नियमित 10 दिन तक चलता है.

माहापात्र श्राद्ध: इस श्राद्ध कर्म में दसवें दिन महापात्रा को भोजन करने से लेकर अन्य दान दक्षिणा की प्रक्रिया को पूर्ण किया जाता है. यह अधिकार सिर्फ महापात्र का होता है. इसमें किसी अन्य पंडित पुजारी को नहीं शामिल किया जाता.

एकादशी श्राद्ध: दसवें की प्रक्रिया के बाद 11 वें दिन यह श्राद्ध होता है. जिसके बाद दो दिन तक यानी 13 दिन पूर्ण होने तक ब्राह्मण द्वारा भोजन व पिंडदान की प्रक्रिया पूर्ण की जाती है और दान भी ब्राह्मण को दिया जाता है.

छमाही श्राद्ध: मृत्यु को उपरांत छठवें महीने में जिस तिथि को मृत्यु हुई हो, उस दिन ब्राह्मण को दान व भोजन के साथ पिंडदान व श्राद्ध कर्म की प्रक्रिया पूरी की जाती है.

वार्षिक श्राद्ध: मृत्यु के 1 वर्ष के उपरांत होता है, जो अनिवार्य माना जाता है. इस वार्षिक श्राद्ध की श्रेणी में रखा गया है. इस श्राद्ध में जिस व्यक्ति की मृत्यु हो, उसकी पसंद के सारे सामान के साथ उसके पसंद का भोजन ब्राह्मणों को करवाया जाता है व पिंडदान व तर्पण पूर्ण होता है.

नारायण बलि: यह श्राद्ध कर्म अति आवश्यक होता है. खास तौर पर उन लोगों के लिए, जिनकी मृत्यु किसी हादसे या प्राकृतिक तरीके से हुई हो. सुसाइड करने की स्थिति में, आग से जलकर मरने में या फिर किसी तरह के हादसे के दौरान मृत्यु होने पर नारायण बलि की प्रक्रिया पूर्ण करना आवश्यक होता है, क्योंकि अप्राकृतिक मृत्यु के बाद आत्मा प्रेत योनि में जाती है और नारायण बलि ना होने की वजह से वह भटकती रहती है. साथ ही आर्थिक, मानसिक और शारीरिक रूप से काफी परेशान करती है. ऐसी स्थिति में नारायण बलि पूर्ण करने के बाद आत्मा को मुक्ति मिलती है वह प्रेत योनि से निकलकर पितृ लोक को जाती है.

त्रिपिंडी श्राद्ध: त्रिपिंडी श्राद्ध में एक साथ 44 आत्माओं की मुक्ति होती है. नारायण बलि में एक आत्मा की मुक्ति होती है, जबकि त्रिपिंडी श्राद्ध में 44 आत्माओं को एक साथ मुक्ति मिलती है. पुराणों में वर्णित है प्रयाग मुंडे, काशी पिंडे और गया डंडे यानी तीर्थ के रूप में तीन स्थान हैं. जिनमें सबसे पहले प्रयाग फिर काशी में पिंड और गया में श्रद्धा करते हुए पितरों की आत्मा की शांति का कार्य किया जाता है.

सपिंडन: यह प्रक्रिया अति आवश्यक होती है क्योंकि माना जाता है कि मृत्यु के उपरांत 13 दिनों तक कोई भी आत्मा धरती को छोड़कर जाना नहीं जाती और वह भटकती रहती है. ऐसे में उस आत्मा की शांति के लिए सपिंडन प्रक्रिया पूर्ण करना अनिवार्य होता है. इसमे मरने वाले के नाम से पिंड को पितरों के पिंड के साथ मिलाया जाता है. जिससे वह आत्मा प्रेत योनि से निकलकर पितर योनि में चली जाए.

(डिस्क्लेमर- यह खबर धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. ईटीवी भारत इसकी पुष्टि नहीं करता.)

यह भी पढ़ें : काशी के इस कुंड पर भटकती आत्माओं को मिलती है मुक्ति, पितृपक्ष में होता है विशेष पूजन - Pishach Mochan Kund

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