शिमला: प्रदेश सरकार ने छोटे पहाड़ी राज्य हिमाचल को साल 2030 तक जहर वाली खेती से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है. इस दिशा में सात साल पहले बढ़ाया गया कदम प्रदेश को अब प्राकृतिक खेती में एक बड़े परिवर्तन की राह पर ले जा रहा है. प्रदेश में साल 2018 में सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की तकनीक को अपनाया गया था जिसके अच्छे परिणामों को देखते हुए बड़ी संख्या में किसान इस तकनीक से जुड़ रहे हैं.
प्राकृतिक खेती को सफलता की ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए भारतीय देशी नस्ल की गाय का अधिक महत्व है जिसके लिए प्रदेश सरकार भी किसानों को देशी गाय और काऊ शेड के फर्श को पक्का करने, गोमूत्र को एकत्रित करने के लिए ड्रम और साइकिल हल को लेकर एक बड़ी योजना लाई है. प्राकृतिक खेती से जुड़े किसान इन सभी योजनाओं को लेकर संबंधित कृषि केंद्र में सादे कागज पर आवेदन कर सब्सिडी की सुविधा का लाभ उठा सकते हैं.
देशी गाय खरीदने पर 25 हजार रुपये की सब्सिडी
किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार देशी गाय खरीदने के लिए 25 हजार रुपये की सब्सिडी दे रही है. कृषि विभाग में नेचुरल फार्मिंग के डिप्टी डायरेक्टर मोहिंदर सिंह भवानी ने कहा "प्राकृतिक खेती में देशी गाय का महत्व है. इस नस्ल की गाय के एक ग्राम गोबर में तीन करोड़ जीवाणु पाए जाते हैं जो कि नेचुरल फार्मिंग के लिए बहुत उपयोगी हैं इसलिए देशी गाय को प्राथमिकता दी जाती है."
देशी गाय के ट्रांसपोर्टेशन के लिए भी सरकार दे रही मदद
मोहिंदर सिंह भवानी ने बताया "अगर किसान देशी गाय को हिमाचल प्रदेश के पड़ोसी राज्यों से मंगवाते हैं तो प्रदेश सरकार उनके ट्रांसपोर्टेशन के लिए अलग से 5 हजार रुपये की राशि दे रही है. इसके अलावा पशु मंडी से देशी गाय खरीदने के लिए मार्केट फीस के लिए अलग से 2 हजार रुपये का प्रावधान सरकार ने किया है."
गौशाला का फर्श पक्का करने पर भी मिलेगी आर्थिक सहायता
वहीं, गोमूत्र को एकत्रित करने के लिए गौशाला में पक्का फर्श डालने के लिए भी सरकार 8 हजार रुपये की सहायता दे रही है. इसी तरह से संसाधन बनाने के लिए भी सरकार तीन ड्रम खरीदने पर 2250 रुपये की सब्सिडी दे रही है. प्राकृतिक खेती में साइकिल हल के लिए 1500 रुपये की सब्सिडी दी जा रही है. सरकार प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए टप और फव्वारे खरीदने पर भी सहायता दे रही है.
देशी गाय का महत्व
प्राकृतिक खेती में भारतीय नस्ल की गाय का अधिक महत्व है. देशी गाय की नस्ल के 1 ग्राम गोबर में 3 से 5 करोड़ जीवाणु पाए जाते हैं. वहीं, जर्सी व हास्टन फिजियन नस्ल की गाय के 1 ग्राम गोबर में 70 से 80 लाख जीवाणु होते हैं, जो गाय दूध नहीं देती है, उसके गोबर में जीवाणु और भी बढ़ जाते हैं. एक देशी गाय से 30 एकड़ क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जा सकती है. वहीं, जैविक पद्धति में 30 गायों से 1 एकड़ में ही खेती की जा सकती है. प्राकृतिक खेती में जीवामृत व घन जीवामृत महत्वपूर्ण जैविक उर्वरक हैं जिसका उपयोग मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और सूक्ष्म जीवों को सक्रिय करने के लिए किया जाता है.
इसके लिए गोबर, गोमूत्र, गुड़, मीठे फल, दाल का बेसन और पेड़ के नीचे की एक मुट्ठी भर मिट्टी की आवश्यकता रहती है. ये जैविक उर्वरक गर्मियों में 3 से 4 दिन और सर्दियों के मौसम में 5 से 6 दिन में तैयार होते हैं. इसके अतिरिक्त इस खेती में गोबर, गोमूत्र व तम्बाकू, लहसुन, मिर्ची व अन्य पौधों के पत्तों, खट्टी लस्सी से कीटनाशक व रोगनाशक दवाएं बनाकर छिड़काव किया जा सकता है. प्राकृतिक खेती अपनाने से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ेगी. जल की खपत 70 फीसदी कम होगी. भारत में साहिवाल, गीर, रेड सिंधी, देओनी, थारपारकर, राठी, नागौरी, ओंगोल व हिमाचल लोकल आदि भारतीय नस्ल की गाय हैं.
35 हजार हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती
हिमाचल में साल 2018 में सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की तकनीक शुरू हुई. उस दौरान पहले ही साल में 628 हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती की तकनीक से फसल तैयार की गई. इसके बाद धीरे-धीरे किसान प्राकृतिक खेती से जुड़ते गए जिसकी वजह से आज प्रदेश में 35,004 हेक्टेयर क्षेत्र में प्राकृतिक खेती की जा रही है.
सरकार के प्रयास से अब तक 2 लाख 73 हजार 161 किसानों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग दी जा चुकी है. इसमें से अब 1 लाख 97 हजार 363 किसान प्राकृतिक खेती कर रहे हैं. वहीं, प्रदेश में जब प्राकृतिक खेती शुरू हुई थी तब 1160 पंचायतों में किसानों ने इस तकनीक को अपनाया था. आज प्रदेश की 3584 पंचायतों में किसान प्राकृतिक खेती की तकनीक को स्वीकार कर जहर वाली रासायनिक खेती को बाय-बाय कह चुके हैं.