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दिन भर गूंगे बन करते हैं काम, रात में जानवरों की तरह लेते हैं भोजन-पानी, आदिवासियों की अनोखी परंपरा

शहडोल में कई आदिवासी जनजातियों में दिवाली के अगले दिन मौती व्रत की परंपरा है. इस दिन वो दिन भर शांत रहते हैं.

SHAHDOL MAUNI VRAT FESTIVAL
शहडोल के आदिवासी मनाते हैं मौनी व्रत (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Oct 30, 2024, 9:44 PM IST

शहडोल: मध्य प्रदेश का शहडोल संभाग आदिवासी बाहुल्य संभाग है. यहां पर बैगा, कोल, गोंड जैसी कई जनजातियां निवास करती हैं. इनकी कई ऐसी परंपराएं हैं जो बहुत अलग हैं. उन्हीं में से एक परंपरा है मौनी व्रत. इसका निर्वहन दीपावली के अगले दिन किया जाता है. इस दिन शाम तक कोई किसी से बात नहीं करता, सभी मौन रहते हैं.

मौनी व्रत में क्या होता है?

मुन्ना बैगा ने इस परंपरा के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि, अगर कोई मौनी व्रत रखना चाहता है तो उसको सुबह 5 बजे उठकर तालाब में स्नान करना होता है. इसके बाद वह अपना एक जोड़ीदार तय करता है. दोनों मौन व्रत रहने का प्रण करते हैं. मौनी व्रत की पूजा के लिए गांव में एक पंडाल तैयार किया जाता है. गांव की महिलाएं पूजा की थाली सजाकर उस पंडाल में जाती हैं. फिर जो जोड़ीदार मौनी व्रत का प्रण किए रहता है वह नारियल लेकर पंडाल में जाता है. इसके बाद एक बछिया की पूजा जाती है, जिसे गौ लक्ष्मी पूजन कहते हैं. मौनी व्रत जोड़ीदार को हाथ में नारियल लेकर बछिया के पैरों के बीच से 7 बार निकलना होता है. फिर जंगल की तरफ चले जाते हैं.

आदिवासी जनजातियों में दिवाली के अगले दिन मौती व्रत की परंपरा है (ETV Bharat)

पूरे दिन जंगल में चराते हैं मवेशी

जो लोग मौनी व्रत करते हैं, वो पूरे गांव के मवेशियों को दिनभर जंगल में चराते हैं. इस दौरान वो किसी से बात नहीं करते, यहां तक की मवेशियों को कंट्रोल करने के लिए भी कोई आवाज नहीं निकालते. शाम को जानवरों को लेकर घर आते हैं. फिर इसके बाद सुबह वाली पूरी प्रक्रिया दोहराई जाती है. फिर से मौनी व्रत का प्रण लेने वाले बछिए के पैरों के बीच से निकलते हैं. इसके बाद मौनी व्रत वाले जोड़ीदारों को घर भेज दिया जाता है. वहीं, बाकी लोग पूजा संपन्न होने के बाद गौ लक्ष्मी की जयकारे लगाते हैं. इसके बाद सभी लोग अपने घर को चले जाते हैं. हालांकि मुन्ना बैगा ने बताया कि, धीरे-धीरे अब लोग ठीक से इसका पालन नहीं करते. मौनी व्रत का प्रण लिए कई लोग तो पूजा के बाद जंगल सीधे जंगल चले जाते हैं. वो मवेशियों को चराने नहीं ले जाते.

व्रत तोड़ने की भी अनोखी परंपरा

मुन्ना बैगा बताते हैं कि यह प्रक्रिया यहीं खत्म नहीं होती. घर पहुंचने के बाद एक बार फिर से घर में गौ लक्ष्मी की पूजा की जाती है. महिलाएं भोजन तैयार करती हैं. उस भोजन को गौ माता से जूठा कराया जाता है. इसके बाद उस खाने को मौनी व्रत धारक जोड़ीदार को खिलाया जाता है. इसके लिए एक जोड़ीदार दूसरे के घर जाता है. खाना खिलाने की परंपरा अजीब है. गौ माता द्वारा जूठे किए गए खाने को जमीन पर बैठकर बिना हाथ लगाए खाना होता है. यानि जानवरों की तरह झुककर सीधे मुंह से दोनों जोड़ीदार खाते हैं. साथ ही पानी को भी बिना हाथ लगाए जमीन पर रखी कटोरी में पीना होता है. यह प्रक्रिया दोनों जोड़ीदारों के पूरी होने के बाद मौन व्रत कंप्लीट होता है.

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एक बार शुरू करने पर कम से कम 7 साल रहना पड़ता है

इस मौनी व्रत की एक खास बात और है कि, अगर किसी ने एक बार इसको शुरू कर दिया तो फिर कम से कम लगातार 7 साल करना पड़ता है. अगर कोई ज्यादा करना चाहे तो फिर 09, 11 या 14 साल तक मौनी व्रत कर सकता है. इसमें जो जोड़ीदार बनते हैं वो दोनों पुरुष ही रहते हैं लेकिन व्रत धारण करने के बाद दोनों में से किसी एक को महिला का किरदार निभाना पड़ता है. वह महिलाओं के कपड़े पहना है, उनके जैसा श्रृंगार करता है. हालांकि समय के साथ इसमें भी बदलाव हो रहा है. अब कम ही जोड़ीदार महिला का किरदार निभाते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि, आधुनिकता के इस दौर में धीरे-धीरे यह परंपरा विलुप्ति की कगार पर है. नई पीढ़ी के युवा अब इसमें कम रुचि दिखा रहे हैं.

शहडोल: मध्य प्रदेश का शहडोल संभाग आदिवासी बाहुल्य संभाग है. यहां पर बैगा, कोल, गोंड जैसी कई जनजातियां निवास करती हैं. इनकी कई ऐसी परंपराएं हैं जो बहुत अलग हैं. उन्हीं में से एक परंपरा है मौनी व्रत. इसका निर्वहन दीपावली के अगले दिन किया जाता है. इस दिन शाम तक कोई किसी से बात नहीं करता, सभी मौन रहते हैं.

मौनी व्रत में क्या होता है?

मुन्ना बैगा ने इस परंपरा के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि, अगर कोई मौनी व्रत रखना चाहता है तो उसको सुबह 5 बजे उठकर तालाब में स्नान करना होता है. इसके बाद वह अपना एक जोड़ीदार तय करता है. दोनों मौन व्रत रहने का प्रण करते हैं. मौनी व्रत की पूजा के लिए गांव में एक पंडाल तैयार किया जाता है. गांव की महिलाएं पूजा की थाली सजाकर उस पंडाल में जाती हैं. फिर जो जोड़ीदार मौनी व्रत का प्रण किए रहता है वह नारियल लेकर पंडाल में जाता है. इसके बाद एक बछिया की पूजा जाती है, जिसे गौ लक्ष्मी पूजन कहते हैं. मौनी व्रत जोड़ीदार को हाथ में नारियल लेकर बछिया के पैरों के बीच से 7 बार निकलना होता है. फिर जंगल की तरफ चले जाते हैं.

आदिवासी जनजातियों में दिवाली के अगले दिन मौती व्रत की परंपरा है (ETV Bharat)

पूरे दिन जंगल में चराते हैं मवेशी

जो लोग मौनी व्रत करते हैं, वो पूरे गांव के मवेशियों को दिनभर जंगल में चराते हैं. इस दौरान वो किसी से बात नहीं करते, यहां तक की मवेशियों को कंट्रोल करने के लिए भी कोई आवाज नहीं निकालते. शाम को जानवरों को लेकर घर आते हैं. फिर इसके बाद सुबह वाली पूरी प्रक्रिया दोहराई जाती है. फिर से मौनी व्रत का प्रण लेने वाले बछिए के पैरों के बीच से निकलते हैं. इसके बाद मौनी व्रत वाले जोड़ीदारों को घर भेज दिया जाता है. वहीं, बाकी लोग पूजा संपन्न होने के बाद गौ लक्ष्मी की जयकारे लगाते हैं. इसके बाद सभी लोग अपने घर को चले जाते हैं. हालांकि मुन्ना बैगा ने बताया कि, धीरे-धीरे अब लोग ठीक से इसका पालन नहीं करते. मौनी व्रत का प्रण लिए कई लोग तो पूजा के बाद जंगल सीधे जंगल चले जाते हैं. वो मवेशियों को चराने नहीं ले जाते.

व्रत तोड़ने की भी अनोखी परंपरा

मुन्ना बैगा बताते हैं कि यह प्रक्रिया यहीं खत्म नहीं होती. घर पहुंचने के बाद एक बार फिर से घर में गौ लक्ष्मी की पूजा की जाती है. महिलाएं भोजन तैयार करती हैं. उस भोजन को गौ माता से जूठा कराया जाता है. इसके बाद उस खाने को मौनी व्रत धारक जोड़ीदार को खिलाया जाता है. इसके लिए एक जोड़ीदार दूसरे के घर जाता है. खाना खिलाने की परंपरा अजीब है. गौ माता द्वारा जूठे किए गए खाने को जमीन पर बैठकर बिना हाथ लगाए खाना होता है. यानि जानवरों की तरह झुककर सीधे मुंह से दोनों जोड़ीदार खाते हैं. साथ ही पानी को भी बिना हाथ लगाए जमीन पर रखी कटोरी में पीना होता है. यह प्रक्रिया दोनों जोड़ीदारों के पूरी होने के बाद मौन व्रत कंप्लीट होता है.

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इस मौनी व्रत की एक खास बात और है कि, अगर किसी ने एक बार इसको शुरू कर दिया तो फिर कम से कम लगातार 7 साल करना पड़ता है. अगर कोई ज्यादा करना चाहे तो फिर 09, 11 या 14 साल तक मौनी व्रत कर सकता है. इसमें जो जोड़ीदार बनते हैं वो दोनों पुरुष ही रहते हैं लेकिन व्रत धारण करने के बाद दोनों में से किसी एक को महिला का किरदार निभाना पड़ता है. वह महिलाओं के कपड़े पहना है, उनके जैसा श्रृंगार करता है. हालांकि समय के साथ इसमें भी बदलाव हो रहा है. अब कम ही जोड़ीदार महिला का किरदार निभाते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि, आधुनिकता के इस दौर में धीरे-धीरे यह परंपरा विलुप्ति की कगार पर है. नई पीढ़ी के युवा अब इसमें कम रुचि दिखा रहे हैं.

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