अररियाः आंचलिक कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की जयंती पर आज सोमवार 4 मार्च को जिला मुख्यालय में कार्यक्रम का आयोजन किया गया. सबसे पहले रेणु कुंज स्थित उनकी प्रतिमा पर पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी. उसके बाद हाई स्कूल के मैदान में मुख्य राजकीय कार्यक्रम आयोजित किया गया. अतिथियों ने उनके तैलीय चित्र पर पुष्प अर्पित कर कार्यक्रम की शुरुआत की.
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रेणु को दी श्रद्धांजलिः कार्यक्रम की शुरुआत में जिले के लोक गायक अमर आनंद और प्रिया ने गीत प्रस्तुत कर लोगों का स्वागत किया. कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्वलित कर की गई. जिसमें डीएम इनायत खान, एसपी अमित रंजन, जिप अध्यक्ष आफताब अजीम पप्पू के साथ कई साहित्यकार व अधिकारी मौजूद थे. कार्यक्रम में फणीश्वर नाथ रेणु के जीवनी पर साहित्यकारों ने चर्चा की. उन्हें साहित्यकार ही नहीं बेहतर राजनीतिज्ञ भी बताया. जिले के लगभग 14 साहित्यकारों ने इस परिचर्चा में भाग लिया. मौके पर काफी संख्या में लोग मौजूद थे.
"आज रेणु जी की लेखनी को अपने जीवन में उतरने की जरूरत है. इससे लोगों को समझ आएगा कि किस तरह से संघर्ष कर लोग ऊंचे मुकाम पर पहुंचते हैं."- डीएम इनायत खान, जिलाधिकारी

फणीश्वरनाथ रेणु का जीवन परिचयः बिहार के अररिया जिले स्थित फॉरबिसगंज अनुमंडल के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म हुआ था. उस समय फॉरबिसगंज, पूर्णिया जिले का हिस्सा हुआ करता था. रेणु जी की प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में हुई. आगे की पढ़ाई करने के लिए नेपाल के विराटनगर आदर्श विद्यालय में दाखिला लिया और वहीं से मैट्रिक की परीक्षा पास की. इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पास की. 1942 में गांधी जी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े.
साहित्य व सियासत साथ साथ चलता रहाः भारत-छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के बाद रेणु ने सियासत को समझा. 1950 में उन्होंने नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन में भी हिस्सा लिया. जिसके परिणामस्वरुप नेपाल में जनतंत्र की स्थापना हुई. रेणु के जीवन में साहित्य व सियासत दोनों साथ साथ चलता रहा. रेणु ने आजीवन शोषण और दमन के विरुद्ध संघर्ष किया. वर्ष 1936 के आसपास फणीश्वरनाथ रेणु ने कहानी लेखन की शुरुआत की. उस समय कुछ कहानियां प्रकाशित भी हुई थी. किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियां थी.
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रेणु की 63 कहानी उपलब्धः 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक कहानी का लेखन किया. बटबाबा साप्ताहिक विश्वमित्र के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई. रेणु की दूसरी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ 11 दिसम्बर 1944 को ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ में छ्पी. 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ लिखी. उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है.
रेणु की कहानी पर फिल्म बनीः इनकी कहानी मारेगये गुलफाम पर बनी फिल्म तीसरी कसम काफी चली. इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान मुख्य भूमिका में थे. 'तीसरी कसम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था. इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे. रेणु को जितनी ख्याति हिंदी साहित्य में 1954 अपने उपन्यास मैला आंचल से मिली, उसकी मिसाल मिलना दुर्लभ है. इस उपन्यास के प्रकाशन ने उन्हें रातों-रात हिंदी के एक बड़े आंचलिक कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया.
पद्मश्री तक का त्याग कर दिया थाः रेणु जी ने लेखनी में आंचलिकता को प्राथमिकता दी. रेणु के रचनाकर्म की खास बातें उनकी लेखन-शैली की वर्णनात्मक थी. इसीलिए इनके कथानकों के पात्र और पृष्ठभूमि दोनों सिनेमा देखने जैसा एहसास कराते थे. आंचलिकता को प्राथमिकता देकर लिखने की इनकी शैली ने इनको बहुत ऊंची मुकाम देने काम माध्यम साबित हुआ. रेणु ने जयप्रकाश नारायण आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की. सत्ता द्वारा दमन के विरोध में पद्मश्री तक का त्याग कर दिया था.
उनकी लेखनी आज भी उनके होने का एहसास करातीः मैला आंचल के लिए वर्ष 1970 में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वराह गिरि वेंकट गिरि द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. हिंदी साहित्य में आंचलिकता के इस अनूठे चितेरे ने 11 अप्रैल, 1977 को पटना में अपनी अद्भुत लेखनी का सभी को मुरीद बनाकर खुद अनंत यात्रा पर निकल गए. मगर उनकी लेखनी आज भी उनके रहने का एहसास कराती है.
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