प्रयागराज : संगम नगरी में धर्म और अध्यात्म के सबसे बड़े महाकुम्भ मेले का आयोजन सदियों से होता चला आ रहा है. इसका आयोजन गंगा, यमुना, सरस्वती के पावन त्रिवेणी तट पर होता है. इसकी शुरुआत कब, कैसे और क्यों हुई. महाकुंभ 2025 से पहले ईटीवी भारत की इस खास रिपोर्ट में जानिए सबकुछ...
महानिर्वाणी अखाड़े के सचिव महंत यमुना पुरी महाराज ने बताया कि संगम नगरी प्रयागराज में हर 12 साल में लगने वाले महाकुम्भ मेले की शुरुआत सदियों पहले हुई थी. शुरुआत में इस धार्मिक आयोजन में ऋषि मुनि व तपस्वी गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन की इस पवित्र धरती पर आकर जप, तप, यज्ञ अनुष्ठान करके ऊर्जा शक्ति और ज्ञान के साथ ही मोक्ष की प्राप्ति करते थे. धीरे-धीरे यहां पर और लोग जुटने लगे और अब तो करोड़ों की संख्या में लोग इस महाआयोजन में शामिल होते हैं.
महाकुंभ की कथा दुर्वासा श्रा और समुंद्र मंथन से जुड़ीः यमुना पुरी ने बताया कि महाकुम्भ के आयोजन की कथा ऋषि दुर्वासा के श्राप और समुद्र मंथन से जुड़ी हुई है. सदियों पहले महर्षि दुर्वासा ने देवताओं के राजा इंद्र को एक माला भेंट की थी. उस माला को इंद्र को देने के साथ कहा था कि इसे ग्रहण करने के बाद और बेहतर तरीके से सृष्टि का पालन पोषण करने में कामयाब हो सकोगे. लेकिन अपने अहंकारी स्वभाव के कारण इंद्र ने माला को अपने हाथी के ऊपर फेंक दिया. हाथी ने माला को तोड़कर फिर से दुर्वासा ऋषि के ऊपर फेंक दिया. जिससे क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि ने देवताओं को श्राप दे दिया. इसके बाद जैसे ही ऋषि के श्राप का असर शुरू हुआ तो सारे देवता श्रीहीन, तेजहीन, बलहीन, बुद्धि हीन होने लगे. इसके साथ ही पृथ्वी पर भी लोग श्रीहीन होने लगे. श्राप के कारण लोगों के अंदर से ममता, करुणा, वात्सल्य, प्रेम जैसे जितने भी सद्गुण थे वो खत्म होने लगे. इसके साथ ही सृष्टि को सुंदर बनाने वाली जितनी भी चीजें थीं, उन सबका भी अंत होने लगा.
श्रीहीन होने के बाद किया गया समुद्र मंथन : महंत यमुना पुरी ने बताया कि दुर्वासा ऋषि के श्राप के बाद देवताओं ने पुनः ब्रह्म विष्णु की आराधना की. प्रसन्न होने पर ब्रह्मा जी ने कहा कि श्री समेत सभी रत्न समुद्र से ही प्राप्त होंगे. इसके बाद समुद्र मंथन करने का फैसला देवताओं ने लिया. समुद्र को मथंन के लिए देवताओं को राक्षसों के साथ रत्न बांटने का समझौता करना पड़ा. जिसके बाद समुद्र मंथन की शरुआत की गई. समुद्र से सबसे पहले विष निकला, जिसे लेने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तो सभी देवताओं के निवेदन पर भगवान शिव ने सृष्टि को बचाने के लिये उस विष को पीने का फैसला कर लिया. समुद्र से निकले विष को धारण करने के कारण भगवान शिव का नाम नीलकंठ भी पड़ गया.
जहां अमृत गिरा, वहां लगता है कुंभ मेला : महंत यमुना पुरी ने बताया कि समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत कलश निकला तो उसको लेने के लिए देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध छिड़ गया. इसी दौरान इंद्र का बेटा जयंत अमृत कलश को लेकर भागा, जिनको पकड़ने के लिए उनके पीछे असुर भी दौड़ पड़े. इसी दौरान छीनाझपटी में 12 स्थानों पर कलश से छलककर अमृत की बूंदे गिरीं. जिसमें पृथ्वी पर 4 स्थानों पर अमृत गिरा. जिसमें प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन है. जिन स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी थीं, उन्हीं स्थानों पर कुंम्भ मेले का आयोजन सदियों से होता चला आ रहा है.
विशेष संयोग होने पर लगता है कुम्भ मेला : महंत यमुना पुरी ने बताया कि कुंम्भ मेला प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में लगता है. 12 साल के अंतर पर इन्हीं चारों स्थानों पर अलग-अलग समय मुहूर्त में कुंम्भ मेला का आयोजन होता है. 12 साल के अंतर पर ज्योतिषीय गणना और ग्रह नक्षत्रों के अद्भुत संयोग से कुंम्भ मेला का आयोजन होता है. ज्योतिषीय गणना के आधार पर संगम नगरी में कुंम्भ मेला का आयोजन हर 12 साल के अंतर पर होता है.
इंसानों के 12 वर्ष के बराबर देवताओं का एक दिनः ग्रह नक्षत्रम ज्योतिष संस्थान के ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय ने बताया कि देवताओं और दानवों के बीच अमृत को लेकर 12 वर्ष तक संघर्ष हुआ था. मनुष्यों का 12 वर्ष देवताओं के एक दिन के बराबर होता है. इसके साथ ही अमृत निकलने के समय जो ग्रह नक्षत्रों का जो योग था, उसी तरह का 12 वर्षों के बाद बनता है. इस कारण 12 साल के अंतर पर कुंम्भ मेला लगता है. संगम की धरती पर जब कुंम्भ मेला लगता है तो माघ महीने में मकर राशि में सूर्य होते हैं और देव गुरु बृहस्पति वृष राशि में आते हैं. देवगुरु बृहस्पति हर 12 साल में वृष राशि में प्रवेश करते हैं. इसी कारण प्रयागराज में 12 साल में कुंभ मेला लगता है. जबकि देवगुरु बृहस्पति के वृश्चिक राशि में आने पर अर्धकुम्भ मेला का आयोजन होता है.
सिर्फ प्रयागराज और हरिद्वार में लगता है अर्धकुंभः ज्योतिषाचार्य आशुतोष वार्ष्णेय के मुताबिक, समुद्र मंथन से निकले अमृत की रक्षा की जिम्मेदारी देवगुरु बृहस्पति, चंद्रमा, सूर्य को सौंपा गया था. जिसमें चंद्रमा की जिम्मेदारी थी कि वो अमृत को छलकने व गिरने से रोकें, जबकि देवगुरु बृहस्पति का दायित्व था कि वह अमृत को दानवों के पीने से बचाएं. वहीं शनिदेव की जिम्मेदारी थी कि वो यह देखें कि अमृत को देवराज इंद्र या जयंत अकेले न पी लें. इसके साथ ही सूर्य की जिम्मेदारी कुंम्भ कलश को टूटने फूटने से बचाने की थी. यही कारण है कि इन ग्रह नक्षत्रों के एक साथ उसी तरह से एकत्रित होने पर ही कुंभ मेला का आयोजन होता है. उन्होंने बताया कि अर्धकुंभ का आयोजन करने की परंपरा सिर्फ प्रयागराज और हरिद्वार में ही है. अर्धकुंभ का आयोजन नासिक व उज्जैन में नहीं होता है.
सभी तीर्थों का राजा प्रयागराज : महंत यमुना पुरी ने बताया कि गंगा, यमुना, सरस्वती के पावन त्रिवेणी तट पर माघ मास में सभी तीर्थों का देवताओं का वास होता है. गंगा-यमुना के अंदर सैकड़ों पवित्र नदियां समाहित हैं. गंगा-यमुना के साथ माता सरस्वती प्रयागराज में मिलती हैं. इसलिए यह धरती पवित्र और पुण्य कही जाती है. उन्होंने कहा कि माघ में दुनिया की सबसे पुण्यकारी भूमि प्रयागराज की होती है. माघ में जब कुंभ का आयोजन होता है तो आध्यात्मिक ऊर्जा के साथ-साथ अद्भुत शक्तियों का वास होता है. जिस तरह से बर्फ के छोटे टुकड़े का 10 फीसदी हिस्सा पानी के ऊपर दिखता है और 90 फीसदी हिस्सा पानी के अंदर डूबा रहता है. उसी तरह से धर्म अध्यात्म की अद्भुत शक्तियों का दस फीसदी ही लोग जान पाते हैं. जबकि इससे ज्यादा जानने के लिए उसमें डूबना पड़ता है. इसके बाद ही सनातन धर्म संस्कृति के असली ज्ञान की तरफ हम बढ़ पाते हैं.
कुंम्भ के 5 मुख्य स्नान पर्व : महंत यमुना पुरी ने बताया कि 13 जनवरी से शुरू होने वाले महाकुम्भ मेले में पांच स्नान पर्व होंगे. जिसमें तीन बड़े मुख्य स्नान पर्व शाही स्नान के हैं. जबकि पौष पूर्णिमा और माघी पूर्णिमा के स्नान पर्व पर भी एक करोड़ से अधिक की भीड़ जुटेगी. मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और बसंत पंचमी पर करोड़ों की भीड़ संगम तट पर उमड़ेगी. इस बार 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा का पहला स्नान पर्व है. जबकि 14 जनवरी को मकर संक्रांति पहला शाही स्नान है. 29 जनवरी को दूसरा और सबसे बड़ा मौनी अमावस्या का स्नान पर्व होगा. 3 फरवरी को बसंत पंचमी आखिरी शाही स्नान का पर्व होगा. जबकि 12 फरवरी को माघी पूर्णिमा के स्नान पर्व के साथ महाकुंभ के कल्पवास का समापन हो जाएगा. महाकुम्भ का आयोजन 26 फरवरी को महाशविरात्रि तक चलता रहेगा. पौष पूर्णिमा के स्नान पर्व तक सारे साधु संत अखाड़े और कल्पवासी मेला क्षेत्र से वापस चले जाते हैं. महाकुम्भ में दौरान मेला क्षेत्र में एकादशी, अचला सप्तमी, अष्टमी जैसे दिनों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है, वहीं महंत यमुना पुरी ने बताया कि बसंत पंचमी के स्नान के बाद अखाड़ों के संत महंत प्रयागराज से निकलते हैं और वाराणसी जाकर वहां पर विश्वनाथ का दर्शन करके वापसी करते हैं, वहीं कुछ लोग होली के बाद वाराणसी से अपने-अपने स्थान पर वापस चले जाते हैं.
महाकुम्भ के प्रमुख स्नान पर्व |
- 13 जनवरी पौष पूर्णिमा, एक माह का कल्पवास शुरू |
- 14 जनवरी मकर संक्रांति पहला शाही स्नान (अमृत स्नान, राजसी स्नान) |
- 29 जनवरी मौनी अमावस्या, दूसरा शाही स्नान (अमृत स्नान, राजसी स्नान) |
- 03 फरवरी बसंत पंचमी, तीसरा शाही स्नान (अमृत स्नान, राजसी स्नान) |
- 12 फरवरी माघी पूर्णिमा, कल्पवास समाप्त |
- 26 फरवरी महाशविरात्री |
व्रत, जप-तप करने वालों को मिलती है मोक्षः महंत यमुना पुरी ने बताया कि महाकुम्भ में प्रमुख स्नान पर्वों पर नियम संयम से इस धरती पर रहकर व्रत जप तप करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. इसके साथ ही जो स्नानार्थी कल्पवासी सच्चे मन और मां गंगा में आस्था लेकर यहां आते हैं उनके घर में सुख शांति का वास होने के साथ ही उन्हें मोक्ष तक की प्राप्ति होती है. प्रयागराज में आने वाले श्रद्धालु एक धार्मिक यात्रा पर आस्था विस्वास के साथ यहां आते हैं, लेकिन कोई भी पर्यटन स्थल या पिकनिक समझकर यहां पर न आएं. यहां पर इस तरह की सोच लेकर आएंगे तो उन्हें यहां पर किसी ऊर्जा का लाभ नहीं मिलेगा. यहां पर माघ महीने में कुंभ के दौरान देश विदेश के जितने भी संत महात्मा शंकराचार्य आते हैं उन सबके वाणी से निकलने वाले शब्दों से ज्ञान की प्राप्ति करके भी लोग पुण्य अर्जित कर सकते हैं.
महंत यमुना पुरी महाराज ने बताया कि माघ महीने में देशभर के जितने भी तीर्थ हैं वह सभी प्रयागराज में वास करते हैं, इसलिए प्रयाग में उस समय रहने पर सारे तीर्थ का फल प्राप्त होता है. सारे तीर्थ के साथ ही सभी देवता भी यही पर वास करते हैं. ऐसे में माघ महीने में तीर्थराज प्रयाग में रहकर लोग भी स्नान ध्यान तप करते हैं, उन्हें सारे तीर्थ और देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है.
महाकुम्भ मेले के शाही स्नान पर्वों जैसे मुख्य स्नान पर्वों पर देश के बड़े राजनेता मेले में नहीं आते हैं, क्योंकि मेला प्रशासन भीड़ की वजह से उन्हें पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था और उनका प्रोटोकॉल पूरा नहीं हो पाता है. हालांकि पिछले महाकुम्भ 2019 के शुरू होने से पहले और समाप्ति के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रयागराज आये थे. इसी तरह से कुंम्भ 2025 के शुरू होने से पहले दिसम्बर माह में पीएम मोदी के आने की संभावना है और वो यहां आकर कुंम्भ की औपचारिक शुरुआत कर सकते हैं. इसी तरह से मुख्य स्नान पर्व बीतने के बाद भी पीएम मोदी कुंम्भ का समापन की घोषणा करने आ सकते हैं. इससे पहले देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद कुंम्भ मेले में आ चुके हैं.
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