लखनऊ : अगर किसी दुर्घटना में कोई अंग गवां चुके हैं या किसी करीबी दिव्यांग है और उन्हें कृत्रिम अंग की जरूरत है तो किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं. यहां पर कम कीमत पर कृत्रिम अंग उपलब्ध कराए जाते हैं. अभी यहां रोजाना 5 से 6 केस ट्रामा सेंटर से रेफर होकर आते हैं.
गोरखपुर के रहने वाले राम कृष्ण (71) का वर्ष 2018 में सड़क दुर्घटना में पैर कट गया था. उन्होंने बताया कि वह प्रयागराज गंगा स्नान करने के लिए गए थे. इसी दौरान सड़क हादसे में उनका एक पर बुरी तरह से कुचल गया था. आसपास के लोगों ने किसी तरह अस्पताल में भर्ती कराया. इस दौरान डॉक्टरों ने उनका आधा पैर काट दिया था. 2019 में केजीएमयू के फिजीकल मेडसिन एंड रिहैबिलिटेशन विभाग में संपर्क किया. यहां से बनाया गया लिंब काफी अच्छा था और काफी लंबे समय तक चला. 2023 में राजस्थान में आर्टिफिशियल लिंब बनवाया, लेकिन वह ज्यादा सुविधाजनक नहीं है. ऐसे में अब केजीएमयू से लिंब बनवाने की चाहत है. राजस्थान में आर्टिफिशियल लिंब पर लगभग 4000 रुपये खर्च हुए थे. जबकि केजीएमयू में इसकी कीमत महज 2000 रुपये ही है.
सरोजनीनगर के रहने वाली संध्या वर्मा ने बताया कि मुझे बचपन (छह साल की उम्र) से पोलियो की शिकायत थी. इसके बाद कान के इलाज के दौरान एनेस्थीसिया के रीएक्शन से वीकनेस की समस्या बढ़ गई. वर्ष 2015 से केजीएमयू से इलाज चल रहा है. यहां से मिले कैलिपर्स से मुझे बहुत राहत है. मैं अब स्कूल जाती हूं और घर के काम भी करती हूं.
वरिष्ठ प्रोस्थेटिस्ट एवं प्रभारी पीओ यूनिट शगुन सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश के अलावा यहां दूसरे राज्यों से भी मरीज आते हैं. यहां पर बहुत ही कम दाम में कृत्रिम अंग बनाए जाते हैं. नेपाल बॉर्डर, बिहार और नेपाल के बहुत सारे लोग लिंब के लिए आते हैं. शगुन सिंह बताती हैं कि दुर्घटना के दौरान अंग भंग होने पर ऑपरेशन के दौरान अंग काटने की स्थिति में सर्जन को काफी सतर्कता बरतनी चाहिए. जिससे आरामदायक आर्टिफिशियल लिंब तैयार करने में सहायता मिले. कई मामलों में देखा जाता है कि व्यक्ति का हाथ व पैैर बचाने के चक्कर में डॉक्टर सिर्फ उतना ही काटते हैं जितना घाव होता है या जितना दुर्घटना के दौरान कट जाता है. सर्जन को एक निर्धारित सीमा पर ही व्यक्ति का ऑपरेशन करना चाहिए.
केजीएमयू के फिजिकल मेडिसिन एंड रिहैबिलिटेशन विभाग के विभाग अध्यक्ष डॉ. अनिल कुमार गुप्ता ने बताया कि ट्रॉमा की वजह से अंग भंग के तीन से चार मरीज रोजाना यहां पहुंचते हैं. कुछ ऐसे मरीज भी होते हैं जो पुराने होते हैं और जिन्हें अपना कृत्रिम अंग बदलवाना होता है. दूसरे वह होते हैं जिनकी सर्जरी हो गई चोट का घाव भरा नहीं है. ऐसे मरीजों के लिए भी स्टंप बनाया जाता है. ऐसे मरीजों को भर्ती कर कर एक्सरसाइज कर के उन्हें ठीक किया जाता है. इसके बाद उनका आर्टिफिशियल अंग बनाया जाता है.
डॉ. अनिल कुमार गुप्ता के मुताबिक साल में लगभग 150 से 200 आर्टिफिशियल लिंब बनाए जाते हैं. लगभग इतने ही पुराने मामले होते हैं. जिसमें मरीज अपना लिंब बदलवाने या नया करवाने आता है. इसके अलावा 5 से 6 हजार आर्टिफिशियल लिंब ऐसे मरीजों के लिए बनते हैं जो किसी अन्य बीमारी से पीड़ित होते हैं. जिसमें सेब्रल पाल्सी, पोलियो और ट्रामा के केस शामिल हैं.