लखनऊ : लाखों क्रांतिकारियों के बलिदान के कारण देश को आजादी मिली. देश के कोने-कोने से आजाद भारत के लिए बगावत की चिंगारी भड़की. लोगों ने अपनी जान की परवाह तक नहीं की. स्वाधीनता संग्राम के दौरान लखनऊ जंग का अहम हिस्सा रहा. अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति तैयार करने के लिए यहां तमाम सम्मेलन हुए. लखनऊ के कई स्थान इसके साक्षी हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी सम्मेलन में हिस्सा लेने लखनऊ पहुंचे तो चारबाग रेलवे स्टेशन पर पंडित जवाहरलाल नेहरू से उनकी मुलाकात हुई. इसका गवाह चारबाग रेलवे स्टेशन बना.
आज भी उन यादों को यहां पर संजोया गया है. इसके बाद अमीनाबाद का अमीनुद्दौला झंडेवाला पार्क इस बात का गवाह है. यहां पर कई बार अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए रणनीति तैयार हुई. क्रांतिकारियों के संघर्ष से हमारा देश आजाद हुआ. उसके बाद साल 1950 में 26 जनवरी को देश गणतंत्र हुआ.
लखनऊ के अमीनुद्दौला झंडे वाला पार्क आजादी का स्वर्णिम इतिहास समेटे है. पार्क में 18 अप्रैल 1930 को स्वतंत्रता आंदोलन के समय आजादी के दीवानों ने अंग्रेजी हुकूमत के नमक कानून तोड़ दिया था. अगस्त 1935 को क्रांतिकारी गुलाब सिंह लोधी भी उस जुलूस में शामिल हुए. वे पार्क में झंडा फहराना चाहते थे, लेकिन झंडारोहण से नाराज अंग्रेजी सैनिकों ने चारों तरफ से पार्क को घेर लिया था. गुलाब सिंह लोधी की बड़ी सी प्रतिमा इस झंडेवाला पार्क में लगी हुई है.
लखनऊ के द्विवेदी परिवार का अहम योगदान : पंडित शिवकुमार द्विवेदी 1942 की क्रांति में भारी इनाम सहित फरार घोषित हुए. वह अंत तक पकड़े नहीं जा सके. सावित्री द्विवेदी आजादी के दौरान लगातार जेल में ही रहे. पंडित कृष्ण कुमार द्विवेदी 1930 के नमक सत्याग्रह से लेकर 1942 की क्रांति तक के सभी आंदोलनों में लगातार जेल में ही रहे. पंडित विष्णु कुमार द्विवेदी 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में नजरबंद रहने के बाद ही 1942 की क्रांति में फरार घोषित हुए. पंडित श्याम कुमार द्विवेदी संपत्ति जब्ती के बावजूद निरंतर स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय योगदान देते रहे और फरार भाइयों को छुपाते रहे. पंडित रामसखा द्विवेदी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सरकारी नौकरी छोड़कर अपना सब कुछ आजादी के लिए लुटा दिया.
पार्क में आजादी के दीवाने बनाते थे रणनीति : 1928 में इसी पार्क में तिरंगा लहराया गया था. मोतीलाल नेहरू और गोविंद वल्लभ भाई पटेल इस सभा में उपस्थित थे. चार जनवरी 1931 को यहां पर बारदोली दिवस मनाया गया, 12 जनवरी 1931 को चंद्र भानु गुप्त, परमेश्वरी दयाल और कैलाशपति वर्मा की गिरफ्तारी हुई. उन्हें कारावास के साथ ही आर्थिक दंड भी दिया गया.
26 जनवरी 1931 को लाख बाधाओं के बावजूद यहां स्वतंत्रता दिवस मनाया गया. जनवरी 1934 में महात्मा गांधी ने यहां राष्ट्रीय झंडारोहण एवं विशाल जनसभा को संबोधित किया. 28 दिसंबर 1935 को महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की स्वर्ण जयंती का आयोजन और तिरंगा ध्वजारोहण हुआ. 26 जनवरी 1936 को स्वतंत्रता दिवस समारोह में झंडा अभिवादन हुआ.
साल 1936 में यहां से जुलूस उठा और नारे लगाए गए. सन 57 जिंदाबाद, तात्या टोपे जिंदाबाद, मौलवी अहमदुल्लाह शाह जिंदाबाद. साल 1938 में खादी और ग्रामोद्योग प्रदर्शनी का नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उद्घाटन किया और आचार्य नरेंद्र देव का यहां पर संबोधन हुआ. 26 जनवरी 1940 को स्वतंत्रता दिवस समारोह और प्रभात फेरियों का आयोजन किया गया.
14 नवंबर 1941 में जवाहर दिवस पर शिवराजवती नेहरू ने महिला विद्यालय में हड़ताल कराकर पार्क में सामूहिक झंडारोहण किया. ब्रिटिश पुलिस की तरफ से गिरफ्तारी हुई. 12 सितंबर 1942 को मोहनलाल सक्सेना यहीं पर नजरबंद हुए. 21 सितंबर 1942 को धारा 129 तोड़ने पर क्रांतिकारी आशा लता की गिरफ्तारी हुई. 9 अगस्त 1943 को भारत छोड़ो दिवस का आयोजन किया गया. 1945 में पंडित शिवनारायण द्विवेदी गुप्त स्वतंत्रता अभियान के बाद यहीं प्रकट हुए. 15 अगस्त 1947 को झंडा वाला पार्क में नागरिकों ने उत्साह पूर्वक स्वतंत्रता दिवस मनाया.
चारबाग स्टेशन बना गांधी-नेहरू की मुलाकात का गवाह : शायद कम ही लोग यह जानते होंगे कि गांधी-नेहरू की छोटी सी ही सही, पर पहली मुलाकात लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के सामने हुई थी. मौका था कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन का. साल था 1916. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी लखनऊ में कई बार आए थे. जवाहरलाल नेहरू से उनकी मुलाकात रेलवे स्टेशन पर पहली बार हुई. 26 दिसंबर 1916 को लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन था.
इसमें जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद से अपने पिता पंडित मोतीलाल नेहरू के साथ यहां पर पहुंचे थे. यहीं पर पहली बार गांधी से नेहरू का परिचय हुआ था. इसके बाद चाचा नेहरू राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से इस कदर प्रभावित हुए कि उनके बताए रास्ते पर ही चलने लगे. इतिहास के जानकार बताते हैं कि 'महात्मा गांधी जिस अधिवेशन में शामिल होने के लिए आए थे दरअसल, वह अधिवेशन लखनऊ के बजाय फैजाबाद में आयोजित हुआ था, लेकिन फैजाबाद छोटी जगह थी, नाम प्रसिद्ध नहीं था, इस वजह से इसे लखनऊ अधिवेशन नाम दिया गया था.
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