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कोरबा में नाव पर सवार कोरवा, लोकतंत्र के प्रति रहते हैं जिम्मेदार, लेकिन अब तक विकास नहीं पहुंचा इनके द्वार - Korba Phadhi Korwa voting by boat - KORBA PHADHI KORWA VOTING BY BOAT

कोरबा में नाव पर सवार हो जान जोखिम में डाल पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग वोट डालने पहुंचे हैं. ये वोटर हर साल वोट डालते हैं, पर नेताओं के पास इतना वक्त नहीं कि वो इनकी सुध ले सकें. हर साल ये लोग विकास की आस लगाए रहते हैं लेकिन अब तक इनके पास विकास नहीं पहुंच पाया है.

Korba Phadhi Korwa voting by boat
कोरबा में नाव के सहारे पहाड़ी कोरवा (ETV Bharat chhattisgarh)
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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : May 7, 2024, 6:36 PM IST

Updated : May 7, 2024, 8:43 PM IST

बिना सड़क और पुल के नाव पर सवार कोरवा (ETV BHARAT CHHATTISGARH)

कोरबा: कोरबा जिले के खोखराआमा गांव में रहने वाले विशेष पिछड़ी जनजाति के कोरवा आदिवासी लोकतंत्र के महापर्व में अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं. यहां के वोटरों में काफी उत्साह रहता है. इस गांव का मतदान प्रतिशत हर बार 85 प्रतिशत के पार ही रहता है. ये पहाड़ी कोरवा अपने गांव में विकास की आस में हर बार वोट तो डालते हैं लेकिन चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि इस गांव का रास्ता ही भूल जाते हैं.

नाव के भरोसे यहां के ग्रामीण: इस गांव के ग्रामीणों का कहना है कि आखिर हमसे क्या गलती हो गई है? क्या मूल निवासी होना, बीहड़ वनांचल में बसना हमारी भूल है? यदि नहीं तो विकास आखिर शहर तक ही सीमित क्यों रहता है? वह गांव का रास्ता क्यों भूल जाता है? दरअसल, छत्तीसगढ़ में मंगलवार को तीसरे चरण का मतदान हुआ. इस दौरान ईटीवी भारत के टीम कोरबा लोकसभा क्षेत्र के ग्राम पंचायत सतरेंगा के आश्रित गांव खोखराआमा पहुंची. इस गांव में पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के परिवार रहते हैं. इन ग्रामीणों को मतदान करने सतरेंगा तक आना पड़ता है, लेकिन इस फासले के बीच में एक बड़ा डूबान का क्षेत्र है. बड़ी मात्रा में यह इलाका पानी से घिरा है, जिसने लगभग चार दशक के विकास का रास्ता रोक रखा है. बांगो बांध के निर्माण के बाद से ही यहां पानी भर गया था, जो हसदेव नदी से जुड़ा हुआ है. इसी नदी को पार करने के लिए ग्रामीण नाव का सहारा लेते हैं.

नाव लाने के लिए भी करनी पड़ती है जद्दोजहद : मतदान के दिन ग्रामीणों की नाव नदी के इस पार थी, जबकि दूसरी तरफ जो नाव गांव के मुहाने पर मौजूद था. उसमें पानी भर चुका था, कुछ लोग इसी नाव से पानी खाली कर रहे थे. इतने में ही गांव का युवा चैतराम नदी में ही कूद गया और तैरकर डुबान को पार किया, जिसके बाद वह नाव वापस लेकर गया और तब जाकर कोरवा आदिवासी नदी को पार कर सके और वोट डालने मतदान केंद्र पहुंचे. इतनी परेशानियों के बावजूद ये पहाड़ी कोरवा अपने मताधिकार का प्रयोग करना नहीं भूलते. हालांकि जनप्रतिनिधि इस गांव का रास्ता भूल जाते हैं.

कभी नहीं गिरता यहां का वोटिंग प्रतिशत: खास बात यह है कि इस गांव का वोटिंग परसेंटेज कभी भी गिरता नहीं है. खोखरामा, कुकरीचोली और आसपास के डूबान क्षेत्र में मौजूद आधा दर्जन गांव के आदिवासी सालों से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, लेकिन सरकार ने इन्हें भुला दिया है. विकास उनके गांव का रास्ता जैसे भूल ही गया हो. इस गांव के ही चैतराम ने ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान कहा कि, "मुझे व्यवस्था पर बहुत गुस्सा भी आता है. कई बार लोगों को मना भी किया कि वोट डालने क्यों जाते हो? लेकिन हर बार हम उम्मीद के साथ वोट डालने जाते हैं. मेरी मांग नरेंद्र मोदी से है, अगर वह मांग पूरा नहीं कर पाए तो राहुल गांधी हमारी मांग को पूरा करें. कोई भी नेता पूरा करें लेकिन हमारे गांव में रोड बनना चाहिए.

विकास से अछूता गांव: राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह क्षेत्र काफी महत्वपूर्ण है. गांव खोखराआमा रामपुर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है. जो कि एक आदिवासी बहुल सीट है. इसी क्षेत्र से स्व. प्यारेलाल कंवर जैसे कद्दावर नेता निर्वाचित हुए थे, जिन्होंने अविभाजित मध्य प्रदेश में डिप्टी सीएम का महत्वपूर्ण पद संभाला था. रामपुर क्षेत्र से ही प्रदेश के वरिष्ठ आदिवासी लीडर ननकी राम कंवर भी भाजपा से चुनाव जीतते रहे हैं. जो छत्तीसगढ़ में गृहमंत्री रहे हैं,
हालांकि पिछला चुनाव वह हार गए थे. अब यहां से कांग्रेस के विधायक फूल सिंह राठिया हैं.

भगवान भरोसे जिंदगी: कोरबा जिले के सतरेंगा पंचायत के गांव खोखराआमा और कुकरी चोली सहित आधा दर्जन गांव के ग्रामीण राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र हैं. यानी कि पहाड़ी कोरवा हैं. ये लोग विशेष पिछड़ी जनजाति के हैं और वास्तव में धरतीपुत्र हैं. ये जंगलों में निवास करते हैं. उनकी कई पीढ़ियां इसी तरह जंगल में रही है. अब भी उनके हालात ऐसे हैं कि वोट डालने के लिए भी इन्हें हिलोर मारती नदी पर डगमगाती नाव के जरिए सफर करना पड़ता है. नाव का इंतजाम भी ग्रामीणों ने अपने संसाधन से ही किया है. प्रशासन के पास इतनी भी फुर्सत नहीं है कि इनकी सुध ले और कम से कम नदी पर एक पुल का इंतजाम कर सकें.

विकास से अछूते हैं पहाड़ी कोरवा: पहाड़ी कोरवा राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहते हैं कि वे लोग विशेष पिछड़ी जनजाति से जरूर आते हैं, लेकिन उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती है. साल दर साल यूं ही बीत गए. इनकी कई पीढ़ियां इसी तरह से नाव के जरिए वोट डालने आ रही है. इस साल भी इन लोगों ने इसी उम्मीद के साथ वोट डाला कि जो जीत कर आएंगे वो कम से कम विकास से जोड़ने वाले एक पुल की सौगात देंगे और एक अच्छी सड़क मिलेगी. ये लोग हर चुनाव में वोट देते हैं, लेकिन अब तक तो यहां के हालात नहीं बदले हैं.

खोखराआमा कुकरीचोली जैसे गांव के लोग नाव पर सवार होकर ही वोट डालने आते हैं. पुल और सड़क का आवेदन हमने कई बार कलेक्टर को जाकर दिया. लेकिन गांव का विकास नहीं हुआ. जब हवा चलती है तब नाव भी हिलोर मारता है. हमें डर भी लगता है, लेकिन इसी तरह से हम लोग यहां आते हैं और वोट डालते हैं.-सुख सिंह, पहाड़ी कोरवा

मां को बेटे के पढ़ाई की चिंता: नाव पर बैठ कर वोट डालने पहुंची आदिवासी महिला बंदेहीन बाई ने बताया कि, "हम इसी तरह से सिर्फ वोट डालने ही नहीं बल्कि दुकान से राशन लेने और हर छोटी जरूरत के लिए नाव पर सवार होकर आते हैं. किसी की तबीयत खराब हो जाए तो नाव के उस पार गाड़ी को बुलाते हैं और फिर उसे अस्पताल तक लेकर के जाते हैं. मेरा बच्चा अभी 2 साल का है. मुझे डर है कि इसकी पढ़ाई कैसे होगी? गांव में पांचवी तक का स्कूल है. आंगनबाड़ी भी नहीं है. बच्चे पांचवी तक पढ़ते हैं और उसके बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं. नाव पर चढ़ने से डर भी लगता है. नाव अगर डगमगाई तो इसमें हम गिर कर मर भी सकते हैं. सरकार से हमारी मांग है कि हमें एक अच्छा नाव ही दे दें, जिसके सहारे हम इस डूबान क्षेत्र को पार कर सकें. वैसे तो हमारी जरूरत एक छोटे पुल या फिर अच्छी सड़क है, लेकिन यह मांग पूरी नहीं हो रही है. इस बार भी हम उम्मीद के साथ वोट डालने जा रहे हैं.

हर बार वोटिंग प्रतिशत रहता है बढ़िया: सतरेंगा के रामायण सिंह प्रधान पाठक हैं. उन्होंने ईटीवी भारत को बताया कि, "गांव के जितने भी वोटर हैं, वह हर बार वोट डालने आते हैं. वह नाव पर सवार होकर ही वोट डालने आते हैं. इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है. एक दूसरी सड़क भी उसी गांव की ओर जाती है, लेकिन उसके लिए 20 से 25 किलोमीटर घूमना पड़ता है. उस सड़क पर पैदल चलना भी मुश्किल है. रास्ता इतना पथरीला है कि मैं स्कूटी से गया था. रास्ते में गिर भी गया था, किसी तरह पर्ची उस गांव तक पहुंचाई, लेकिन वोट डालने के मामले में यह आदिवासी सदैव आगे रहते हैं. 85 से 90 के बीच वोटिंग परसेंटेज के साथ इस गांव में वोटिंग होती है. ग्रामीण हर बार इस उम्मीद के साथ वोट करते हैं कि उनके गांव में विकास होगा."

भाषणों तक ही सीमित है खोखले वादे: राजनेताओं की सियासत भी गांव खोखराआमा और कुकरीचोली जैसे गांव आते-आते समाप्त हो जाती है. इन बीहड़ वनांचल में विशेष पिछड़ी जनजाति के लोग रहते हैं. तमगा तो इन्हें विशेष राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दिया गया है, लेकिन सुविधा फूटी कौड़ी की नहीं है. राजनेता दावे करते हैं कि हम आपका दिन बदल देंगे. प्रशासन कहता है कि शत प्रतिशत मतदान का प्रयास है. लेकिन इन्हें व्यवस्था कोई नहीं देता. राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र पानी पर हिलोर मारती नाव पर जान जोखिम में डालकर नदी को पार करते हैं. नाव भी उन्होंने खुद बनाई है और इसमें भी छेद है.

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बिना सड़क और पुल के नाव पर सवार कोरवा (ETV BHARAT CHHATTISGARH)

कोरबा: कोरबा जिले के खोखराआमा गांव में रहने वाले विशेष पिछड़ी जनजाति के कोरवा आदिवासी लोकतंत्र के महापर्व में अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं. यहां के वोटरों में काफी उत्साह रहता है. इस गांव का मतदान प्रतिशत हर बार 85 प्रतिशत के पार ही रहता है. ये पहाड़ी कोरवा अपने गांव में विकास की आस में हर बार वोट तो डालते हैं लेकिन चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि इस गांव का रास्ता ही भूल जाते हैं.

नाव के भरोसे यहां के ग्रामीण: इस गांव के ग्रामीणों का कहना है कि आखिर हमसे क्या गलती हो गई है? क्या मूल निवासी होना, बीहड़ वनांचल में बसना हमारी भूल है? यदि नहीं तो विकास आखिर शहर तक ही सीमित क्यों रहता है? वह गांव का रास्ता क्यों भूल जाता है? दरअसल, छत्तीसगढ़ में मंगलवार को तीसरे चरण का मतदान हुआ. इस दौरान ईटीवी भारत के टीम कोरबा लोकसभा क्षेत्र के ग्राम पंचायत सतरेंगा के आश्रित गांव खोखराआमा पहुंची. इस गांव में पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के परिवार रहते हैं. इन ग्रामीणों को मतदान करने सतरेंगा तक आना पड़ता है, लेकिन इस फासले के बीच में एक बड़ा डूबान का क्षेत्र है. बड़ी मात्रा में यह इलाका पानी से घिरा है, जिसने लगभग चार दशक के विकास का रास्ता रोक रखा है. बांगो बांध के निर्माण के बाद से ही यहां पानी भर गया था, जो हसदेव नदी से जुड़ा हुआ है. इसी नदी को पार करने के लिए ग्रामीण नाव का सहारा लेते हैं.

नाव लाने के लिए भी करनी पड़ती है जद्दोजहद : मतदान के दिन ग्रामीणों की नाव नदी के इस पार थी, जबकि दूसरी तरफ जो नाव गांव के मुहाने पर मौजूद था. उसमें पानी भर चुका था, कुछ लोग इसी नाव से पानी खाली कर रहे थे. इतने में ही गांव का युवा चैतराम नदी में ही कूद गया और तैरकर डुबान को पार किया, जिसके बाद वह नाव वापस लेकर गया और तब जाकर कोरवा आदिवासी नदी को पार कर सके और वोट डालने मतदान केंद्र पहुंचे. इतनी परेशानियों के बावजूद ये पहाड़ी कोरवा अपने मताधिकार का प्रयोग करना नहीं भूलते. हालांकि जनप्रतिनिधि इस गांव का रास्ता भूल जाते हैं.

कभी नहीं गिरता यहां का वोटिंग प्रतिशत: खास बात यह है कि इस गांव का वोटिंग परसेंटेज कभी भी गिरता नहीं है. खोखरामा, कुकरीचोली और आसपास के डूबान क्षेत्र में मौजूद आधा दर्जन गांव के आदिवासी सालों से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, लेकिन सरकार ने इन्हें भुला दिया है. विकास उनके गांव का रास्ता जैसे भूल ही गया हो. इस गांव के ही चैतराम ने ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान कहा कि, "मुझे व्यवस्था पर बहुत गुस्सा भी आता है. कई बार लोगों को मना भी किया कि वोट डालने क्यों जाते हो? लेकिन हर बार हम उम्मीद के साथ वोट डालने जाते हैं. मेरी मांग नरेंद्र मोदी से है, अगर वह मांग पूरा नहीं कर पाए तो राहुल गांधी हमारी मांग को पूरा करें. कोई भी नेता पूरा करें लेकिन हमारे गांव में रोड बनना चाहिए.

विकास से अछूता गांव: राजनीतिक दृष्टिकोण से भी यह क्षेत्र काफी महत्वपूर्ण है. गांव खोखराआमा रामपुर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है. जो कि एक आदिवासी बहुल सीट है. इसी क्षेत्र से स्व. प्यारेलाल कंवर जैसे कद्दावर नेता निर्वाचित हुए थे, जिन्होंने अविभाजित मध्य प्रदेश में डिप्टी सीएम का महत्वपूर्ण पद संभाला था. रामपुर क्षेत्र से ही प्रदेश के वरिष्ठ आदिवासी लीडर ननकी राम कंवर भी भाजपा से चुनाव जीतते रहे हैं. जो छत्तीसगढ़ में गृहमंत्री रहे हैं,
हालांकि पिछला चुनाव वह हार गए थे. अब यहां से कांग्रेस के विधायक फूल सिंह राठिया हैं.

भगवान भरोसे जिंदगी: कोरबा जिले के सतरेंगा पंचायत के गांव खोखराआमा और कुकरी चोली सहित आधा दर्जन गांव के ग्रामीण राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र हैं. यानी कि पहाड़ी कोरवा हैं. ये लोग विशेष पिछड़ी जनजाति के हैं और वास्तव में धरतीपुत्र हैं. ये जंगलों में निवास करते हैं. उनकी कई पीढ़ियां इसी तरह जंगल में रही है. अब भी उनके हालात ऐसे हैं कि वोट डालने के लिए भी इन्हें हिलोर मारती नदी पर डगमगाती नाव के जरिए सफर करना पड़ता है. नाव का इंतजाम भी ग्रामीणों ने अपने संसाधन से ही किया है. प्रशासन के पास इतनी भी फुर्सत नहीं है कि इनकी सुध ले और कम से कम नदी पर एक पुल का इंतजाम कर सकें.

विकास से अछूते हैं पहाड़ी कोरवा: पहाड़ी कोरवा राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहते हैं कि वे लोग विशेष पिछड़ी जनजाति से जरूर आते हैं, लेकिन उन्हें कोई सुविधा नहीं मिलती है. साल दर साल यूं ही बीत गए. इनकी कई पीढ़ियां इसी तरह से नाव के जरिए वोट डालने आ रही है. इस साल भी इन लोगों ने इसी उम्मीद के साथ वोट डाला कि जो जीत कर आएंगे वो कम से कम विकास से जोड़ने वाले एक पुल की सौगात देंगे और एक अच्छी सड़क मिलेगी. ये लोग हर चुनाव में वोट देते हैं, लेकिन अब तक तो यहां के हालात नहीं बदले हैं.

खोखराआमा कुकरीचोली जैसे गांव के लोग नाव पर सवार होकर ही वोट डालने आते हैं. पुल और सड़क का आवेदन हमने कई बार कलेक्टर को जाकर दिया. लेकिन गांव का विकास नहीं हुआ. जब हवा चलती है तब नाव भी हिलोर मारता है. हमें डर भी लगता है, लेकिन इसी तरह से हम लोग यहां आते हैं और वोट डालते हैं.-सुख सिंह, पहाड़ी कोरवा

मां को बेटे के पढ़ाई की चिंता: नाव पर बैठ कर वोट डालने पहुंची आदिवासी महिला बंदेहीन बाई ने बताया कि, "हम इसी तरह से सिर्फ वोट डालने ही नहीं बल्कि दुकान से राशन लेने और हर छोटी जरूरत के लिए नाव पर सवार होकर आते हैं. किसी की तबीयत खराब हो जाए तो नाव के उस पार गाड़ी को बुलाते हैं और फिर उसे अस्पताल तक लेकर के जाते हैं. मेरा बच्चा अभी 2 साल का है. मुझे डर है कि इसकी पढ़ाई कैसे होगी? गांव में पांचवी तक का स्कूल है. आंगनबाड़ी भी नहीं है. बच्चे पांचवी तक पढ़ते हैं और उसके बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं. नाव पर चढ़ने से डर भी लगता है. नाव अगर डगमगाई तो इसमें हम गिर कर मर भी सकते हैं. सरकार से हमारी मांग है कि हमें एक अच्छा नाव ही दे दें, जिसके सहारे हम इस डूबान क्षेत्र को पार कर सकें. वैसे तो हमारी जरूरत एक छोटे पुल या फिर अच्छी सड़क है, लेकिन यह मांग पूरी नहीं हो रही है. इस बार भी हम उम्मीद के साथ वोट डालने जा रहे हैं.

हर बार वोटिंग प्रतिशत रहता है बढ़िया: सतरेंगा के रामायण सिंह प्रधान पाठक हैं. उन्होंने ईटीवी भारत को बताया कि, "गांव के जितने भी वोटर हैं, वह हर बार वोट डालने आते हैं. वह नाव पर सवार होकर ही वोट डालने आते हैं. इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है. एक दूसरी सड़क भी उसी गांव की ओर जाती है, लेकिन उसके लिए 20 से 25 किलोमीटर घूमना पड़ता है. उस सड़क पर पैदल चलना भी मुश्किल है. रास्ता इतना पथरीला है कि मैं स्कूटी से गया था. रास्ते में गिर भी गया था, किसी तरह पर्ची उस गांव तक पहुंचाई, लेकिन वोट डालने के मामले में यह आदिवासी सदैव आगे रहते हैं. 85 से 90 के बीच वोटिंग परसेंटेज के साथ इस गांव में वोटिंग होती है. ग्रामीण हर बार इस उम्मीद के साथ वोट करते हैं कि उनके गांव में विकास होगा."

भाषणों तक ही सीमित है खोखले वादे: राजनेताओं की सियासत भी गांव खोखराआमा और कुकरीचोली जैसे गांव आते-आते समाप्त हो जाती है. इन बीहड़ वनांचल में विशेष पिछड़ी जनजाति के लोग रहते हैं. तमगा तो इन्हें विशेष राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दिया गया है, लेकिन सुविधा फूटी कौड़ी की नहीं है. राजनेता दावे करते हैं कि हम आपका दिन बदल देंगे. प्रशासन कहता है कि शत प्रतिशत मतदान का प्रयास है. लेकिन इन्हें व्यवस्था कोई नहीं देता. राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र पानी पर हिलोर मारती नाव पर जान जोखिम में डालकर नदी को पार करते हैं. नाव भी उन्होंने खुद बनाई है और इसमें भी छेद है.

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Last Updated : May 7, 2024, 8:43 PM IST
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