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नगाड़े के घटते बिक्री से कारोबारी निराश, रोजी रोटी के लिए कर रहे मजदूरी - Holi 2024

पुराने समय मे आम तौर पर होली के एक सप्ताह पहले नगाड़ा बजाना शुरू हो जाते थे. लेकिन अब यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. बदलते वक्त के साथ रंगोत्सव में नगाड़े की थाप की जगह अब डीजे और आधुनिक वाद्य यंत्रों ने ले ली है. जिसके चलते बाजार में नगाड़ा खरीदी नहीं हो रही है. इसका सीधा असर नगाड़ा बनाने वाले कारीगरों की आय पर पड़ रहा है. ईटीवी भारत ने ऐसे ही कारीगरों से मुलाकात कर उनकी समस्याओं को जनता तक पहुंचाने का प्रयास किया है.

NAGADA dealer
नगाड़ा कारोबारी
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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : Mar 24, 2024, 9:35 AM IST

Updated : Mar 24, 2024, 12:00 PM IST

बिक्री कम होने से नगाड़ा कारोबारी निराश

कोरबा: रंगों के त्योहार होली में फाग गीत का भी अलग महत्व होता है. होली की मस्ती और नाच-गाने नगाड़े के बिना फीका लगता है. लेकिन बदलते वक्त के साथ अब आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच नगाड़े के थाप कम ही सुनाई देती है. ग्रामीण अंचलों को छोड़ दें तो शहरों में होली के दिन एक-दो जगहों पर ही लोग नगाड़ा बजाते नजर आते हैं. नगाड़े की खरीदारी भी कम हो गई है, जिसके चलते इन कारीगरों की होली फीकी पड़ गई है. इसका सीधा असर नगाड़ा बनाने वाले कारीगरों पर भी पड़ा है.

नगाड़ा बनाने वाले कारीगर मायूस: रंगों के त्योहार होली के दौरान खरीदी कम होने से नगाड़ा बनाने वाले कारीगर मायूस हैं. उनका मानना है कि आधुनिक डीजे जैसे वाद्य यंत्रों ने अब नगाड़ों का स्थान ले लिया है. इसे बनाने वाले कारीगरों की पहले अच्छी खासी कमाई हो जाती थी, लेकिन अब कारीगरों ने नगाड़ा बनाना ही छोड़ दिया है. बिक्री भी काफी कम है, तो दूसरी ओर नगाड़ा बनाने के सामानों की भी किल्लत है.

800 से ₹1000 में मिलता है नगाड़ा: वर्तमान समय में हजार रुपए से लेकर ₹1200 तक के दाम में एक जोड़ी नगाड़ा आसानी से मिल जाता है. पहले इसकी कीमत ₹100 से ₹120 भी हुआ करती थी. नगाड़ा बनाने वाले कारीगर कहते हैं कि दाम बढ़ने के साथ ही इसका उपयोग भी काम हो गया है. लेकिन खरीदारी कम होने की बड़ी वजह आधुनिक वाद्य यंत्र हैं. अब डीजे और अनेक वाद्य यंत्रों में फिल्मी गानों में होली मनाने का ट्रेंड चल पड़ा है.

विलुप्ति के कगार पर नगाड़ा बजाने की परंपरा : नगाड़ा बनाने वाले कारीगर कृष्ण सारथी कहते हैं, "एक समय था, जब हम होली में नगाड़े बेचकर अच्छा खासा व्यापार कर लेते थे. इससे पूरा घर चल जाता था. लेकिन अब रोजी-रोटी चलाना मुश्किल हो गया है. बमुश्किल ही आजीविका चल पाती है. नगाड़ा बजाने वाले लोग भी अब कम हो गए हैं. यह परंपरा अब एक तरह से विलुप्त होने के कगार पर है. इसलिए अब तो नगाड़े से घर का खर्चा चलाना काफी मुश्किल है."

"पहले स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले युवा हों या फिर अन्य लोग, सभी नगाड़े को ही प्राथमिकता देते थे. लोग जहां चार जोड़ी नगाड़े बजाते थे, वहां अब एक डीजे लगाकर लोग काम चला लेते हैं. इसी डीजे की धुन पर नाच गाना करते हैं. जबकि पहले के फाग गीत में नगाड़े बजाकर होली मनाने का अपना अलग महत्व होता है." - कृष्ण सारथी, कारीगर

कमाई नहीं होने से नगाड़ा बनाना छोड़ा : सीतामढ़ी की रहने वाली जूर बाई ने बताया, "पहले हमारे घर का खर्च नगाड़ा, ढोल, मांदर यही सब बेचकर हो जाता था. लेकिन अब सामान भी नहीं मिल रहा है. मोची हमें चमड़ा नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी चमड़ा उपलब्ध नहीं हो पाता. नगाड़ा, ढोल मांदर इन सब का प्रचलन कम हो जाने से अब इनकी भी डिमांड नहीं रहती."

"पहले होली के समय हमारा घर नगाड़ों से भरा रहता था. लोग घर आते और नगाड़ा खरीदकर ले जाते थे. लेकिन अब नगाड़ों के खरीदार नहीं है, जिसके कारण हमने नगाड़ा बनाने का काम बंद कर दिया है. अब हम रोजी मजदूरी करके घर चलते हैं." - जूर बाई, नगाड़ा कारीगर

दरअसल, समय के साथ लोगों के बीच त्योहारों को मनाने के तरीके बदल गए हैं. अब पहले की तरह फाग गीतों और नगाड़ों के धुन में झूनते लोग शहरों में कम ही दिखाई देते हैं. पहले होली के हफ्ते भर पहले ही गलियों मोहल्लों में नगाड़ों की घुन सुनाई देने लगता था. लेकिन डीजे और साउन्ड बॉक्स या आधुनिक वाद्य यंत्रों में फिल्मी फिल्मी गानों को बजाकर होली मनाने का ट्रेंड चल पड़ा है. जिसके चलते नगाड़ा कारीगर अब इस काम को छोड़कर मजदूरी कर अपनी गुजर बसर करने को मजबूर हैं.

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बिक्री कम होने से नगाड़ा कारोबारी निराश

कोरबा: रंगों के त्योहार होली में फाग गीत का भी अलग महत्व होता है. होली की मस्ती और नाच-गाने नगाड़े के बिना फीका लगता है. लेकिन बदलते वक्त के साथ अब आधुनिक वाद्य यंत्रों के बीच नगाड़े के थाप कम ही सुनाई देती है. ग्रामीण अंचलों को छोड़ दें तो शहरों में होली के दिन एक-दो जगहों पर ही लोग नगाड़ा बजाते नजर आते हैं. नगाड़े की खरीदारी भी कम हो गई है, जिसके चलते इन कारीगरों की होली फीकी पड़ गई है. इसका सीधा असर नगाड़ा बनाने वाले कारीगरों पर भी पड़ा है.

नगाड़ा बनाने वाले कारीगर मायूस: रंगों के त्योहार होली के दौरान खरीदी कम होने से नगाड़ा बनाने वाले कारीगर मायूस हैं. उनका मानना है कि आधुनिक डीजे जैसे वाद्य यंत्रों ने अब नगाड़ों का स्थान ले लिया है. इसे बनाने वाले कारीगरों की पहले अच्छी खासी कमाई हो जाती थी, लेकिन अब कारीगरों ने नगाड़ा बनाना ही छोड़ दिया है. बिक्री भी काफी कम है, तो दूसरी ओर नगाड़ा बनाने के सामानों की भी किल्लत है.

800 से ₹1000 में मिलता है नगाड़ा: वर्तमान समय में हजार रुपए से लेकर ₹1200 तक के दाम में एक जोड़ी नगाड़ा आसानी से मिल जाता है. पहले इसकी कीमत ₹100 से ₹120 भी हुआ करती थी. नगाड़ा बनाने वाले कारीगर कहते हैं कि दाम बढ़ने के साथ ही इसका उपयोग भी काम हो गया है. लेकिन खरीदारी कम होने की बड़ी वजह आधुनिक वाद्य यंत्र हैं. अब डीजे और अनेक वाद्य यंत्रों में फिल्मी गानों में होली मनाने का ट्रेंड चल पड़ा है.

विलुप्ति के कगार पर नगाड़ा बजाने की परंपरा : नगाड़ा बनाने वाले कारीगर कृष्ण सारथी कहते हैं, "एक समय था, जब हम होली में नगाड़े बेचकर अच्छा खासा व्यापार कर लेते थे. इससे पूरा घर चल जाता था. लेकिन अब रोजी-रोटी चलाना मुश्किल हो गया है. बमुश्किल ही आजीविका चल पाती है. नगाड़ा बजाने वाले लोग भी अब कम हो गए हैं. यह परंपरा अब एक तरह से विलुप्त होने के कगार पर है. इसलिए अब तो नगाड़े से घर का खर्चा चलाना काफी मुश्किल है."

"पहले स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले युवा हों या फिर अन्य लोग, सभी नगाड़े को ही प्राथमिकता देते थे. लोग जहां चार जोड़ी नगाड़े बजाते थे, वहां अब एक डीजे लगाकर लोग काम चला लेते हैं. इसी डीजे की धुन पर नाच गाना करते हैं. जबकि पहले के फाग गीत में नगाड़े बजाकर होली मनाने का अपना अलग महत्व होता है." - कृष्ण सारथी, कारीगर

कमाई नहीं होने से नगाड़ा बनाना छोड़ा : सीतामढ़ी की रहने वाली जूर बाई ने बताया, "पहले हमारे घर का खर्च नगाड़ा, ढोल, मांदर यही सब बेचकर हो जाता था. लेकिन अब सामान भी नहीं मिल रहा है. मोची हमें चमड़ा नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी चमड़ा उपलब्ध नहीं हो पाता. नगाड़ा, ढोल मांदर इन सब का प्रचलन कम हो जाने से अब इनकी भी डिमांड नहीं रहती."

"पहले होली के समय हमारा घर नगाड़ों से भरा रहता था. लोग घर आते और नगाड़ा खरीदकर ले जाते थे. लेकिन अब नगाड़ों के खरीदार नहीं है, जिसके कारण हमने नगाड़ा बनाने का काम बंद कर दिया है. अब हम रोजी मजदूरी करके घर चलते हैं." - जूर बाई, नगाड़ा कारीगर

दरअसल, समय के साथ लोगों के बीच त्योहारों को मनाने के तरीके बदल गए हैं. अब पहले की तरह फाग गीतों और नगाड़ों के धुन में झूनते लोग शहरों में कम ही दिखाई देते हैं. पहले होली के हफ्ते भर पहले ही गलियों मोहल्लों में नगाड़ों की घुन सुनाई देने लगता था. लेकिन डीजे और साउन्ड बॉक्स या आधुनिक वाद्य यंत्रों में फिल्मी फिल्मी गानों को बजाकर होली मनाने का ट्रेंड चल पड़ा है. जिसके चलते नगाड़ा कारीगर अब इस काम को छोड़कर मजदूरी कर अपनी गुजर बसर करने को मजबूर हैं.

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Last Updated : Mar 24, 2024, 12:00 PM IST
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