बैतूल। बैतूल जिले में सिर्फ एक दिन नहीं एक माह तक होली मनाई जाती है. बैतूल जिले में महाशिवरात्रि से आदिवासियों की शिमगा होली की शुरुआत होती है. जो कि एक माह तक अलग-अलग गांवों में सामूहिक रूप से मनाई जाती है. जिले के आदिवासी इसे शिमगा होली कहते है, जो कि अच्छी फसल होने के बाद आदिवासी गोंड, परधान, गोंड गायकी समाज के लोग शिमगा यानि होली का त्योहार शिवरात्रि (शम्भू नरका) मनाने के बाद शुरु करते हैं.
महाशिवरात्रि से होती है होली की शुरुआत
जिले के आदिवासी अपने-अपने कुटुंब व परिवार के साथ आदिवासियों के आराध्य शंभु की पूजा (गोंगो) करने शम्भू देवस्थान (पेनठाना) जाते हैं. जिसमें प्रायः पचमढ़ी, छोटा महादेव भोपाली, सालबर्डी, मढ़देव असाडी, डुलाहरा बिघवा एवं अन्य शम्भू देवस्थान जाते हैं. आदिवासी समाज के सगाजन माह महीने की पूर्णिमा के रोज से शिवरात्रि तक शम्भू के लिए जागरण करते हैं उसके बाद पूरे परिवार कुटुंब के साथ शम्भू पेनठाना जाते हैं. फिर भगत बाबा के साथ सभी लोग स्नान करते हैं.
शम्भू पेनठाना में पहले शंभु की पूजा करते हैं और रात्रि विश्राम में शम्भू जागरण व उनकी उपासना करते हैं. उसके दूसरे दिन पूरे परिवार के लोग सामूहिक भोजन करने के बाद विष की होली यानि शिमगा जलाते हैं एवं होली के दाएं से बाएं पांच परिक्रमा करते हुए शम्भू गवरा सेवा सेवा कहते है. होली की राख व गुलाल लगाकर एक दूसरे से सेवा सेवा कहकर गले मिलकर होली पर्व मनाते हैं.
खंडेराय मेले का आयोजन
उसके बाद आदिवासी समाज की महिलाए गोंडी गीत गाते हुए पुरुषों से फगवा मांगती हैं. आदिवासी समाज के लोग हर गांव में फागुन चांद दिखने के बाद से 15 दिन तक लकड़ी कंडा जमा करते हैं और उसकी होली बनाई जाती हैं. उसके बाद फागुन महीने के पूर्णिमा (पूंनो) में सभी गांवों में होली जलाई जाती हैं जिसे आदिवासी समाज मे शिमगा कहते हैं. उसके बाद जिस गांव में खंडेराय खम्ब होते हैं वहां पर खंडेराय मेला लगता हैं जिसे आमतौर पर मेघनाद मेला कहते हैं.
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एक माह तक चलती है होली
आदिवासी समाज में होली याने शिमगा पर्व अन्य समाजों की अपेक्षा अलग तरीके से अपनी पारंपरिक संस्कृति व रीति रिवाज प्रथा के अनुसार मनाया जाता है. जो कि भगत भुमका के मार्गदर्शन में सारे पूजा पाठ की प्रक्रिया शुरू की जाती हैं. आदिवासियों की शिमगा एक माह तक चलती है.