लखनऊ: 25 वर्ष पहले साल 1999 में हमारी सेना के शूरवीरों ने वह कमाल कर दिखाया, जिस पर आज भी हर भारतीय गर्व करता है. रणबांकुरों ने दुश्मन सेना को नाकों चने चबा दिए थे और उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया था. हम बात कर रहे हैं साल 1999 के भारत-पाकिस्तान कारगिल युद्ध की. दोनों देशों के बीच हुए इस युद्ध में हमारी सेना के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय दिया. उनके पराक्रम के आगे पाकिस्तानी सेना मिट्टी में मिल गई. उन्होंने हमारे वीर जवानों के आगे घुटने टेक दिए. भारतीय सेना ने देश को कारगिल में विजय दिलाई. 26 जुलाई को पूरा देश सेना के अमर सपूतों की याद में कारगिल विजय दिवस मनाता है. वीर सपूतों की याद में ही लखनऊ में कारगिल शहीद स्मृति वाटिका का भी निर्माण कराया गया है. यहां पर शूरवीरों की शौर्य गाथाएं अंकित की गई हैं. दूरदराज से हर रोज यहां पर लोग सेना के जवानों की वीरता के किस्से पढ़ने आते हैं. हर वर्ष 26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के उपलक्ष में उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से कार्यक्रम का आयोजन होता है. प्रदेश के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ ही वीर जवानों के परिजनों को भी आमंत्रित किया जाता है. इस मौके पर उनका सम्मान भी होता है.
बीमार पत्नी को छोड़ युद्ध लड़ने चले गए थे लांसनायक केवलानंद : 15 कुमाऊं रेजिमेंट में तैनात शहीद लांसनायक केवलानंद द्विवेदी की पत्नी कमला काफी बीमार थीं. वह 26 मार्च 1999 को उन्हें देखने के लिए छुट्टी लेकर घर आए थे. इसी समय उन्हें सूचना मिली कि युद्ध छिड़ गया है और वह 30 मई को वापस करगिल रवाना हो गए. आखिरी बार उन्होंने 30 जून को अपनी पत्नी को फोन किया और कहा-कल मैं दुश्मनों को नेस्तनाबूद करके आऊंगा, तब बात करूंगा. ईश्वर से प्रार्थना करना कि हमें विजयश्री प्राप्त हो. छह जून को केवलानंद द्विवेदी की टुकड़ी और दुश्मनों के बीच जमकर जंग हुई. ऊंचाई पर बैठे दुश्मनों की गोलियों का सामना करते हुए केवलानंद द्विवेदी आगे बढ़ रहे थे, तभी एक गोली उनके सीने में आकर धंस गई और वह गिर गए. आखिरी समय तक दुश्मनों पर गोलियां बरसाते रहे. काफी देर तक लोहा लेने के बाद उन्होंने अपने देश के रक्षा में प्राणों का बलिदान दे दिया.
आदित्य ने पस्त कर दिए थे दुश्मन के हौसले : कैप्टन आदित्य मिश्र लखनऊ के कैथड्रेल चिल्ड्रन एकेडमी के बाद आगे की पढ़ाई के लिए पिता के साथ जम्मू-कश्मीर चले गए. आठ जून 1996 को सेना की सिग्नल कोर में सेकंड लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन लिया. सितंबर 1998 में कैप्टन आदित्य की तैनाती लद्दाख में हुई, जहां से वह 19 जून 1999 को बटालिक सेक्टर पहुंचे. यहां दुश्मनों के कब्जे से 17 हजार फीट ऊंची पॉइंट 5203 पोस्ट को छुड़ाने के लिए उनकी लद्दाख स्काउट टीम ने दुश्मनों पर हमला बोल दिया. भारतीय सेना ने उस पोस्ट पर विजय पताका फहराई और कैप्टन आदित्य अपनी टुकड़ी के साथ नीचे आ गए. संचार लाइन बिछाने जब वे दोबारा पोस्ट पर गए तो घात लगाए दुश्मनों ने उन पर हमला बोल दिया. इस हमले में कैप्टन आदित्य घायल हो गए, लेकिन उन्होंने संचार बिछाते-बिछाते दुश्मन की सेना पर हमला बोलकर अपने प्राण त्याग दिए.
कैप्टन मनोज पांडेय ने दुश्मनों के छुड़ाए छक्के : मूलरूप से उत्तर प्रदेश के सीतापुर निवासी, लेकिन शिक्षा दीक्षा लखनऊ में प्राप्त करने वाले परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय को 6 जून 1997 को 11 गोरखा राइफल में कमीशन प्राप्त हुआ था. उनकी पहली तैनाती जम्मू-कश्मीर के नौशेरा सेक्टर में हुई थी. इसके बाद वह सियाचिन की चौकी पर देश की रक्षा के लिए पहुंचे. चार मई 1999 को उनकी पलटन को पुणे की जगह कारगिल कूच करने के आदेश दिया गया. कैप्टन मनोज पांडेय को दो और तीन जुलाई को खालूबार पोस्ट आजाद कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई. वहां पहुंचकर कैप्टन मनोज पांडेय कई बंकरों को तबाह करने के लिए कूच कर गए. वह आगे बढ़ रहे थे, तभी दुश्मनों का गोला उनके सामने आकर गिरा. वह बुरी तरह घायल हो गए, फिर भी उनका हौसला नहीं डिगा. उन्होंने सभी बंकरों को आजाद कराकर देश का झंडा बुलंद करते हुए वीरगति प्राप्त की.
रायफल मैन सुनील ने पाई शहादत : रायफल मैन सुनील जंग महत बचपन से ही फौज में जाने के इच्छुक थे. 16 वर्ष की अवस्था में साल 1995 में सेवा में भर्ती हुए थे. बचपन से ही अति साहसी, निडर और परिश्रमी थे. फौज की ट्रेनिंग पूरी ईमानदारी के साथ पूरी की. सुनील ने ट्रेनिंग के दौरान कई मेडल हासिल किए और बेस्ट रिक्रूट का मेडल भी उन्हें मिला. सुनील की पहली नियुक्ति हिमाचल प्रदेश के पालमपुर इलाके में हुई. 1 साल बाद 1997 में उनकी यूनिट को सियाचिन ग्लेशियर पर जाने का आदेश मिला. सुनील जब छुट्टियां मनाने घर आते थे तो अपने परिवार में मां से कहते थे कि मां मुझे वहां बहुत मजा आता है. जैसे हर दिन दिवाली हो. वह यह भी कहते थे कि मां मैं भी अपने दादाजी मेजर नकुल जंग और पिताजी की तरह देश की सेवा बड़ी वीरता के साथ करूंगा. साल 1999 में सुनील और उसके रेजीमेंट को जम्मू कश्मीर के कारगिल सेक्टर में पहुंचने का आदेश मिला. सुनील व उसके साथियों ने कारगिल में अपने दुश्मनों से बड़ी वीरता के साथ डटकर मुकाबला किया और हार नहीं मानी. उन्होंने एक-एक करके 25 बम फोड़े. इसी बीच दुश्मन की एक गोली सुनील के चेहरे पर लग गई और सिर फोड़ते हुए निकल गई. देश की रक्षा करते हुए उन्होंने अपना बलिदान दे दिया.
स्मृति वाटिका पर हर वर्ष परिजनों का होता है सम्मान : कैसरबाग स्थित कारगिल शहीद स्मृति वाटिका पर हर वर्ष कारगिल के शूरवीरों की याद में कार्यक्रम आयोजित किया जाता है. कारगिल विजय दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में सूबे के मुखिया और राज्यपाल कारगिल के शहीदों को नमन करते हैं. इस मौके पर उनके परिजनों को भी सम्मानित करते हैं. बड़ी संख्या में कारगिल विजय दिवस का जश्न मनाने के लिए लोग वहां पहुंचते हैं. नम आंखों से सेना के इन वीर जवानों को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. इस बार भी कारगिल स्मृति वाटिका पर कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी हो रही है.
प्रयागराज: कारगिल युद्ध की गाथा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग : 26 जुलाई का दिन कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है. प्रयागराज के समाजसेवी पतविन्दर सिंह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत केंद्र और प्रदेश सरकार को पत्र भेजकर कारगिल युद्ध को पाठ्यक्रम में शामिल कर अध्याय बनाए जाने की मांग की है. उनका कहना है कि करीब 25 साल पहले हुई भारत-पाकिस्तान के बीच इस जंग की दास्तां आज के युवाओं को बताने की जरूरत है. कहना है कि पाठ्यक्रम में मुगलों के इतिहास से लेकर अंग्रेजों का इतिहास शामिल है. उसी तरह कारगिल युद्ध की विजय गाथा को अध्याय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए.
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