जयपुर: राजस्थान हाईकोर्ट ने सीआरपीएफ कर्मचारी की सेवा समाप्ति से जुड़े मामले में कहा है कि जांच अधिकारी वकील की भूमिका निभाता है, तो इससे पूरी विभागीय जांच दूषित होती है. इसके साथ ही अदालत ने याचिकाकर्ता के सेवा समाप्ति से जुड़े 16 मार्च, 2002 के आदेश को निरस्त कर मामले में पुन: 6 माह में निर्णय लेने को कहा है. जस्टिस अनूप ढंड ने यह आदेश महेन्द्र सिंह की याचिका पर दिए.
अदालत ने कहा कि मामले में जांच अधिकारी ने वकील के तौर पर काम किया और गवाहों से कई सवाल पूछे व उसी आधार पर जांच की गई. ऐसे में याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप साबित हुए और उसे सेवा से हटाया गया. जबकि सुप्रीम कोर्ट तय कर चुका है कि जांच अधिकारी निष्पक्ष रहेगा और वकील की भूमिका नहीं निभाएगा. याचिका में कहा गया कि वह सीआरपीएफ में कार्यरत था.
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याचिका में कहा गया कि उसके खिलाफ जांच अधिकारी नियुक्त कर जांच आरंभ की गई. इस दौरान जांच अधिकारी ने गवाहों से कई सवाल पूछकर अपनी जांच रिपोर्ट दी. जिसके चलते उसे 16 मार्च, 2002 को सेवा से हटा दिया गया. जबकि सुप्रीम कोर्ट पूर्व में तय कर चुका है कि विभागीय जांच अधिकारी को निष्पक्ष होना जरूरी है. इसलिए इस आदेश को रद्द किया जाए. जिस पर सुनवाई करते हुए अदालत ने 22 साल पुराने आदेश को रद्द करते हुए 6 माह में नए सिरे से निर्णय करने को कहा है.
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कोर्ट की टिप्पणियों को हटाने से इनकार: राजस्थान हाईकोर्ट ने आपराधिक प्रकरण में जांच अधिकारी एएसआई के खिलाफ निचली अदालत की ओर से की गई टिप्पणियों को हटाने से इनकार कर दिया है. अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने मामले में टिप्पणियां करने से पहले निर्धारित मापदंडों को पूरा किया है. जस्टिस समीर जैन ने यह आदेश इस संबंध में एएसआई की ओर से दायर याचिका को खारिज करते हुए दिए. अदालत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की ओर से किसी पर टिप्पणी करने को लेकर तीन पैरामीटर तय किए हैं. इसके तहत संबंधित को बचाव का अवसर मिलना, संबंधित के आचरण से संबंधित साक्ष्य मौजूद होना और आचरण पर टिप्पणी करने की जरूरत होने को लेकर निचली अदालत को देखना होता है. मामले में निचली अदालत ने इन तीनों पैरामीटर को पूरा किया है.
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देना पड़ा संदेह का लाभ: वहीं अदालत ने माना की जांच अधिकारी की ओर से की गई लापरवाहीपूर्ण जांच ने सीधे तौर पर ट्रायल कोर्ट के समक्ष मामले को प्रभावित किया और अदालत को संदेह के लाभ के आधार पर आरोपी को बरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा. मामले के अनुसार आपराधिक अतिचार के मामले में दर्ज एफआईआर में याचिकाकर्ता एएसआई को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया था. मामले में आरोप पत्र पेश होने के बाद निचली अदालत में ट्रायल चली. वहीं बाद में अदालत ने आरोपी को संदेह का लाभ देते हुए जांच अधिकारी के खिलाफ टिप्पणियां की. इन टिप्पणियों को हटाने के लिए एएसआई की ओर से हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई। जिसे अदालत ने खारिज कर दिया.