जयपुर. शाही लोक पर्व गणगौर, जो जयपुर की विरासत के साथ जुड़ा है. त्रिपोलिया गेट से जब गणगौर माता की सवारी निकलती है, तो उनके दर्शन करने और कैमरे में कैद करने के लिए देशी-विदेशी पर्यटकों का हुजूम यहां उमड़ पड़ता है. लोक कलाकार राजस्थानी विरासत को पेश करते हुए माता के शाही लवाजमे के साथ चलते हैं. इस गणगौर का जयपुर की विरासत ही नहीं, संस्कृति और सभ्यता के साथ भी अनूठा जुड़ाव है, जो आमेर रियासत काल से अब तक जीवंत है और हर साल चैत्र शुक्ल तृतीया पर साकार भी होता है.
अखंड सुहाग की कामना करते हुए सुहागन महिलाएं ईसर गणगौर की विधि-विधान के साथ पूजा कर रही हैं. सोलह शृंगार कर पारंपरिक परिधान पहन, घरों से निकलकर बाग-बगीचों से हरी दूब, फूल-पत्ती चुनते और यहां से ताजा पानी भरकर कलश सर पर रख माता गणगौर के गीत गाते हुए घर पहुंचती हैं और फिर घर पर विराजमान गणगौर के समक्ष 'गोर गोर गोमती ईसर पूजे पार्वती' गीत गाते हुए अखंड सुहाग की कामना करती हैं. वहीं, युवतियां अच्छे वर की कामना के लिए पूजन करती हैं.
हाथी, घोड़ों के लवाजमे के साथ निकलती है सवारी : होली के अगले दिन धूलंडी से चैत्र शुक्ल तृतीया तक जयपुर के हर मोहल्ले और कॉलोनी में ये नजारा देखने को मिल जाता है. वहीं, गणगौर के दिन शाम को पारंपरिक गणगौर माता की सवारी हाथी-घोड़े-ऊंट के लवाजमे के साथ त्रिपोलिया गेट से निकलती है. इस दौरान राजस्थान की लोक कला और संस्कृति को पेश करते हुए सैकड़ों कलाकार सवारी के साथ चलते हैं. इस सवारी के दौरान बंदूकधारी जत्था भी सुरक्षा के लिहाज से साथ होता है, जिसे देखकर पर्यटक अचंभित हो जाते हैं. इसका कारण यहां की अनूठी परंपरा और इतिहास से जुड़ा हुआ है.
जयपुर के इतिहास को जानने वाली डॉ भावना ने बताया कि राजस्थान के प्रसिद्ध लोक पर्व गणगौर पर पूरे राजस्थान में जितने भी राजे रजवाड़े और जागीरदारों के ठिकाने हुआ करते थे, उन सभी जगह माता गणगौर की पूजा कर सवारी निकाली जाती थी. जयपुर से पहले आमेर रियासत काल से ही गणगौर का ये पर्व मनाया जाता रहा है. लेकिन यहां गणगौर माता ईसर के साथ नहीं, बल्कि अकेले निकलती हैं. बताया जाता है कि यहां के ईसर किशनगढ़ रियासत में चले गए थे और वहां उन्हें लूट कर ले जाया गया था, जबकि कुछ विद्वान पंडितों का मानना है कि यहां गणगौर लक्ष्मी स्वरुप हैं और लक्ष्मी के रूप में ही उन्हें पूजते हुए घर में ही विराजमान कराया जाता है. कभी विदा नहीं किया जाता. डॉ भावना ने बताया कि गणगौर माता की सवारी निकलने से पहले जनाना ड्योढ़ी में जयपुर का पूर्व राज परिवार उनकी पूजा करता है.
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बंदूकधारी करते हैं सुरक्षा : उन्होंने बताया कि राजस्थान में गणगौर लूटने की भी घटनाएं होती थी. कुछ उत्साही राजपूत युवक गणगौर को लूटने और उसे अपनी रियासत में लाना शुभ मानते थे. इसलिए गणगौर की सवारी पर लूट का खतरा रहता था. यही वजह है कि जब सवारी निकलती थी, तो सवाई मान गार्ड के अलावा सैकड़ों बंदूकधारी और घुड़सवार माता की सवारी के साथ चलते थे. चारों तरफ तोप और सेना का पहरा रहता था. आज भले ही समय बदल गया हो, लेकिन अब इसे विरासत का हिस्सा मानते हुए आज भी ऊंटसवार बंदूकधारी सवारी के साथ चलते हैं.
उन्होंने बताया कि इतिहास में साक्ष्य मिलते हैं कि जोबनेर में सिंघपुरी के राम सिंह खंगारोत ने मेड़ता की गणगौर को लूटा था, जबकि सीकर के जय-विजय नाम के राजपूत युवकों ने भी मेड़ता की गणगौर को लूटने का संकल्प लिया था. इसी तरह जालौर के जसराय और शेरगढ़ के हरराज पंवार बूंदी की गणगौर को लूटकर ले गए थे. बहरहाल, इतिहास के पन्नों के आगे आज भी गणगौर का ये शाही पर्व उसी शान-शौकत के साथ मनाया जाता है. समय के साथ अब दर्शक दीर्घा में राजे-रजवाड़े और जागीरदारों की जगह पर्यटन विभाग के अधिकारी, राजनेताओं और विदेशी पर्यटकों ने ले ली है, लेकिन इसका मूल स्वरूप अभी भी बरकरार है.