नूंह: देशभर में दिवाली की तैयारियां जोर-शोर से चल रही है. बाजार सज चुके हैं. गलियां डेकोरेट हो रही है, और मार्केट में चहल-पहल बढ़ रही है. पीएम मोदी की ओर से भी 'वोकल फॉर लोकल' अभियान चलाया गया है, जिसमें स्थानीय चीजों की खरीददारी करने को कहा गया है. नूंह शहर सहित जिले के विभिन्न बाजारों में मिट्टी के दीये बाजार में पहुंच गए हैं, लेकिन खरीददार नहीं मिल रहे. इस दीवाली कुम्हारों को उम्मीद थी कि मिट्टी के दीये और कलशों की बिक्री से उनके कारोबार में उछाल आएगा. इसी उम्मीद के साथ ही कुम्हारों के चाक की रफ्तार तेज हो गई और गांवों में मिट्टी का बर्तन बनाने वाले कुम्हार दिन-रात काम करने लगे, लेकिन बाजारों में बिक रहे चाइनीज सामान और फैंसी आइटमों की वजह से मिट्टी के दीये और अन्य सामान की बिक्री कम हो गई है, जिससे कुम्हारों की चिंता बढ़ गई है.
मिट्टी के दीयों की मांग घटी : दरअसल, बाजार में बिक रहे चाइनीज दीये, झालरों, प्लास्टिक और पीतल की फैंसी सामग्रियों की वजह से मिट्टी के दीयों और कलशों की मांग बाजार में कम हो गई है. सस्ती चमचमाती चीनी लड़ियों की वजह से ही देशी बाजार साल दर साल मंदा होता जा रहा है. हालत यह है कि दीये तो तैयार हैं, लेकिन खरीदार नहीं मिल रहे हैं. दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीयों की मांग काफी घट गई है, जिससे जिले के कुम्हारों के माथे पर चिंता की लकीरें झलकने लगी हैं. इसके चलते मिट्टी के दीये बनाकर परिवार का पालन-पोषण करने वाले कुम्हार काफी परेशान हैं.
कुम्हारों का जीवन मिट्टी के इर्द-गिर्द : मिट्टी के दीये और कलश सहित अन्य सामग्री बनाकर परिवार का पालन-पोषण करने वाले रमेश प्रजापति और बाबू राम प्रजापति ने बताया कि उनका जीवन-यापन का प्रमुख व्यवसाय मिट्टी के बर्तन बनाकर उनकी बिक्री करना है और यही उनकी विरासत है. उन्होंने बताया कि दीपावली के मद्देनजर उन्होंने मिट्टी के दीये बनाये हैं लेकिन चाइनीज सामानों के कारण अब तक अपेक्षा के अनुरूप बिक्री नहीं हो पायी है. उन्होंने उम्मीद जताई कि दीपावली पर अभी 8 - 9 दिन शेष हैं. संभव है इस दौरान बिक्री बढ़ेगी और उनका मुनाफा होगा.
इलेक्ट्रिक दीयों ने ले ली जगह : मिट्टी की सामग्री बनाकर बिक्री करने वाले बुजुर्ग रामपाल ने बताया कि बाजार में एक से एक चाइनीज दीये आ गए हैं, जिसे लोग मिट्टी के दीये कि अपेक्षा ज्यादा खरीदते हैं. साथ ही उन्होंने बताया कि इन दिनों मिट्टी के बर्तन बनाने में लागत काफी बढ़ गई है. जिसके चलते पहले की तुलना में मुनाफा भी काफी कम हो गया है. हालत ये है कि मुश्किल से मिट्टी की तलाश पूरी होने के बाद हाथ की कला से तैयार किए गए मिट्टी के दीये की मेहनत का मेहनताना भी सही से नहीं मिल पाता है.
अब यह व्यवसाय छोड़ने लगी नई पीढ़ी: रमेश प्रजापत ने बताया कि हमारे दादा मिट्टी बनाने का कार्य करते थे. उसी को देखते हुए हम भी मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करते आ रहे हैं. इतनी मेहनत के बाद अब हमें सिर्फ निराशा हाथ लगती है. चाइनीज सामानों ने बिक्री कम कर दी. जिससे हमारा गुजारा होना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि प्रजापत समाज का यही एक मात्र गुजारे का साधन है. प्रजापत समाज के लोगों का कहना है कि सरकार को प्रजापत समाज के लिए कोई योजना बनानी चाहिए ताकि बच्चों का पालन पोषण ठीक ढंग से हो सके. यही कारण है कि प्रजापत समाज की युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों की इस कला को छोड़कर अन्य कार्य करने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं.
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