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पूर्व राष्ट्रपति के बेटे दमोह से एक लाइन कहकर जीत गए थे लोकसभा का चुनाव, नहीं जानते थे हिंदी - Damoh Lok Sabha Election 1971 - DAMOH LOK SABHA ELECTION 1971

लोकसभा का चुनावी इतिहास भी बड़ा रोचक रहा है. पैराशूट उम्मीदवार के रूप में चुनावी मैदान में उतरे पूर्व राष्ट्रपति के बेटे आसानी से लोकसभा चुनाव में जीत गए, जबकि उन्हें हिंदी बोलना नहीं आती थी. अपनी हर चुनावी सभा में वे सिर्फ एक लाइन ही हिंदी में बोलते थे लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस की लहर में जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया.

DAMOH LOK SABHA ELECTION 1971
भारत के एक ऐसे नेता जो इंदिरा गांधी की जय बोलकर जीत गए चुनाव
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Apr 21, 2024, 7:16 PM IST

भोपाल। लोकसभा के चुनावी इतिहास में कई ऐसे उम्मीदवारों का नाम भी शामिल है, जिनका भले ही संसदीय सीट से कोई पुराना वास्ता न रहा हो लेकिन पैराशूट उम्मीदवार के रूप में वे चुनाव लड़े और जीत भी दर्ज की. ऐसा ही एक रोचक चुनावी किस्सा पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरि का मध्यप्रदेश की दमोह लोकसभा सीट से जुड़ा है. वीवी गिरि मूल रूप से उड़ीसा के थे लेकिन 1971 के चुनाव में उनके बेटे शंकर गिरि को दमोह लोकसभा सीट से चुनाव लड़वाया गया. चुनाव के 20 दिन पहले वे पिता के नाम की एक चिट्ठी लेकर अचानक दमोह पहुंचे और चुनावी मैदान में उतर गए. लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि वह हिंदी बोलना ही नहीं जानते थे. तब चुनावी सभाओं के लिए उन्होंने सिर्फ एक नारा याद किया था.

पिता की चिट्ठी लेकर पहुंचे और उतर गए मैदान में

1971 के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की दमोह कटनी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस ने पैराशूट उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतारा. पैराशूट उम्मीदवार थे तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरि. इस सीट को कांग्रेस की सुरक्षित सीटों में से माना जाता था. इससे पहले इस सीट से 1962 में सहोद्रा बाई और 1967 में मणिभाई पटेल ने कांग्रेस के टिकट पर बड़े मार्जिन से चुनाव जीते थे. 1971 की लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरि को रातों-रात चुनावी मैदान में उतार दिया. स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को इसका पता तब चला जब शंकर गिरि पिता की चिट्ठी लेकर दमोह पहुंच गए. और वह भी चुनाव के ठीक 20 दिन पहले. शंकर गिरि मूल रूप से उड़ीसा के रहने वाले थे और सबसे चौंकाने वाली बात तो यह थी कि वह हिंदी नहीं बोल पाते थे.

हर सभा में सिर्फ बोलते थे इंदिरा गांधी की जय

तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरी दमोह से चुनाव मैदान में उतर तो गए, लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी हिंदी भाषा ना बोल पाना. ऐसे में सभा में वे लोगों से बात ही नहीं कर पाते थे. उनके चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस नेता प्रभु नारायण टंडन को सौंपी गई थी. चुनावी सभा में शंकर गिरी के भाषण ना दे पाने से उनका प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा था. ऐसे में कांग्रेस नेताओं ने शंकर गिरी को सिर्फ एक नारा याद करा दिया और वह था इंदिरा गांधी की जय. वह जिस भी सभा में जाते सिर्फ यही नारा लगाते और बाकी का भाषण कांग्रेस के दूसरे नेता देते थे. दरअसल इस साल पाकिस्तान से बांग्लादेश को आजाद कराने के चलते इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी. उनकी लोकप्रियता का लाभ पैराशूट उम्मीदवार शंकर गिरि को भी मिला.

यहां पढ़ें...

सिंधिया की तरह कांग्रेस से क्यों अलग हुए थे माधवराव, निर्दलीय चुनाव में कैसे मिली बंपर जीत

बेटी के कर्जदार हैं 46 करोड़ संपत्ति के मालिक कांग्रेस प्रत्याशी गुड्‌डू राजा, खुद के पास नहीं है कार

राष्ट्रपति के बेटे को पूर्व वित्त मंत्री के पिता ने दी थी टक्कर

राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरी जब मैदान में उतरे तो उनके खिलाफ जनसंघ के टिकट पर कोई मजबूत उम्मीदवार ने दावेदारी दिखाने में रुचि नहीं दिखाई, तब मोरारजी देसाई ने जनता पार्टी के टिकट पर गांधीवादी विचारक विजय कुमार मलैया को शंकर गिरि के खिलाफ मैदान में उतारा. वह चुनाव हार तो गए लेकिन शंकर गिरि ने चुनाव में जो वादे किए थे उन्हें पूरा करने के लिए लगातार पार्टी पर दबाव बनाते रहे. यह अलग बात रही कि शंकर गिरि चुनाव जीतने के बाद फिर कभी दमोह लौटकर जनता से मिलने नहीं आए. उनके प्रतिनिधि के तौर पर कांग्रेस नेता प्रभु नारायण टंडन क्षेत्र में बने रहे. विजय कुमार मलैया द्वारा लगातार दबाव बनाए जाने के बाद शंकर गिरी ने दमोह में इनकम टैक्स ऑफिस के साथ ही नरसिंहगढ़ में बिरला परिवार द्वारा डायमंड सीमेंट फैक्ट्री की शुरुआत करवाई. विजय कुमार मलैया 1980 में भी लोकसभा चुनाव में उतरे, लेकिन जीत हासिल नहीं हो सकी.

भोपाल। लोकसभा के चुनावी इतिहास में कई ऐसे उम्मीदवारों का नाम भी शामिल है, जिनका भले ही संसदीय सीट से कोई पुराना वास्ता न रहा हो लेकिन पैराशूट उम्मीदवार के रूप में वे चुनाव लड़े और जीत भी दर्ज की. ऐसा ही एक रोचक चुनावी किस्सा पूर्व राष्ट्रपति वीवी गिरि का मध्यप्रदेश की दमोह लोकसभा सीट से जुड़ा है. वीवी गिरि मूल रूप से उड़ीसा के थे लेकिन 1971 के चुनाव में उनके बेटे शंकर गिरि को दमोह लोकसभा सीट से चुनाव लड़वाया गया. चुनाव के 20 दिन पहले वे पिता के नाम की एक चिट्ठी लेकर अचानक दमोह पहुंचे और चुनावी मैदान में उतर गए. लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी कि वह हिंदी बोलना ही नहीं जानते थे. तब चुनावी सभाओं के लिए उन्होंने सिर्फ एक नारा याद किया था.

पिता की चिट्ठी लेकर पहुंचे और उतर गए मैदान में

1971 के लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश की दमोह कटनी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस ने पैराशूट उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतारा. पैराशूट उम्मीदवार थे तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरि. इस सीट को कांग्रेस की सुरक्षित सीटों में से माना जाता था. इससे पहले इस सीट से 1962 में सहोद्रा बाई और 1967 में मणिभाई पटेल ने कांग्रेस के टिकट पर बड़े मार्जिन से चुनाव जीते थे. 1971 की लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरि को रातों-रात चुनावी मैदान में उतार दिया. स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं को इसका पता तब चला जब शंकर गिरि पिता की चिट्ठी लेकर दमोह पहुंच गए. और वह भी चुनाव के ठीक 20 दिन पहले. शंकर गिरि मूल रूप से उड़ीसा के रहने वाले थे और सबसे चौंकाने वाली बात तो यह थी कि वह हिंदी नहीं बोल पाते थे.

हर सभा में सिर्फ बोलते थे इंदिरा गांधी की जय

तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि के बेटे शंकर गिरी दमोह से चुनाव मैदान में उतर तो गए, लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी हिंदी भाषा ना बोल पाना. ऐसे में सभा में वे लोगों से बात ही नहीं कर पाते थे. उनके चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी तत्कालीन कांग्रेस नेता प्रभु नारायण टंडन को सौंपी गई थी. चुनावी सभा में शंकर गिरी के भाषण ना दे पाने से उनका प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा था. ऐसे में कांग्रेस नेताओं ने शंकर गिरी को सिर्फ एक नारा याद करा दिया और वह था इंदिरा गांधी की जय. वह जिस भी सभा में जाते सिर्फ यही नारा लगाते और बाकी का भाषण कांग्रेस के दूसरे नेता देते थे. दरअसल इस साल पाकिस्तान से बांग्लादेश को आजाद कराने के चलते इंदिरा गांधी की लोकप्रियता चरम पर थी. उनकी लोकप्रियता का लाभ पैराशूट उम्मीदवार शंकर गिरि को भी मिला.

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