छतरपुर (मनोज सोनी): बुंदेली विरासत की कला, कल्चर को बचाने और उसे लोगों के सामने लाने के लिए छतरपुर में स्वदेसी मेले का आयोजन किया गया है. इस मेले में बुंदेली कला-संस्कृति, वेशभूषा, रहनसहन, खानपान, कला, नृत्य के साथ स्थानीय लोगों को रोजगार देकर आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है. आपको भी यदि चूल्हे पर बने ठेठ देसी अंदाज में बुंदेली व्यंजनों का आनंद लेना है तो इस मेले में मनचाही बुंदेली डिश मिल जाएगी. शहर के नगरपालिका के सामने मेला ग्राउंड में 10 से 20 जनवरी तक मेले का आयोजन किया गया है.
मेले में अलग से बनाई गई 'बुंदेली बखरी'
बुंदेलखंड के खानपान, रहनसहन, कला, सांस्कृतिक विरासत और लोक नृत्य कलाओं को जीवित रखने के लिए स्वदेसी जागरण मंच ने स्वदेसी मेले का आयोजन किया है. इस मेले में बुंदेली लोक कला के साथ बुंदेली व्यंजनों पर सबसे ज्यादा फोकस किया जा रहा है. यहां तक कि बुंदेली व्यंजनों को बढ़ावा देने के लिए बुंदेली बखरी बनाई गई है. जिसमे बुंदेली कल्चर के हिसाब से चूल्हे पर भोजन बनाया जा रहा है. ये व्यंजन शहर के लोगों को पंसद आ रहे हैं और इसे खाने बड़ी संख्या में लोग पहुंच रहे हैं.
बुंदेली वनोपज से तैयार हो रहे बुंदेली व्यंजन
बुंदेलखंड में महुआ, बेर, बेल जैसे वनोपज और कोदो, समा, बसारा, कुटकी जैसे फसलें उपजाईं जाती हैं. इन्हीं वनोपज से ये व्यंजन तैयार किए जा रहे हैं. जंगल की उपज से तैयार होने वाले यह आइटम पौष्टिक भी हैं और स्वादिष्ट भी हैं. इसमें महुआ के लड्डू, महुआ के रसगुल्ला, मुरका, डुबरी, ठड़ूला, बिजौरे, बेर का बिरचुन, बेर के लड्डु, सोंठ के लड्डू, तिली का मुरका, उड़द दाल की बरी, आंवले का हलवा, बेल मुरब्बा, बुंदेली सत्तू, महुआ कतली,अर्जुन छाल चाय, कचरियां , गुड़ का चीला सहित 51 प्रकार के आइटम तैयार किए जा रहे हैं.
बुंदेली व्यंजनों पर खास फोकस
मेले के संचालक प्रिंस वाजपेयी बताते हैं कि "जो बुंदेली विरासत है, जो यहां के प्रोडक्ट्स है वो बहुत फायदेमंद हैं लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने इन्हें खाना बंद कर दिया. अब लोग चाइनीज और पिज्जा, बर्गर को को पसंद करते हैं लेकिन यह बहुत नुकसानदेह है. बुंदेलखंड में लगभग 30 साल पहले पुरानी पीढ़ी ये आइटम बनाकर खाने में उपयोग करती थीं. इस मेले के माध्यम से बुंदेली व्यंजनों पर खास फोकस किया जा रहा है. "
'शहर के युवाओं को पंसद आ रहे बुंदेली आइटम'
प्रिंस वाजपेयी बताते हैं कि "समय के साथ बुंदेली संस्कृति और खाने के आइटम विलुप्त होने की कगार पर हैं. इसी कारण यहां एक बुंदेली बखरी बनाई गई है. युवाओं को इन व्यंजनों की जानकारी दी जा रही और उन्हें चूल्हे पर बनाकर देसी अंदाज में परोसा जा रहा है. ताकि खत्म हो रही बुंदेली परंपरा को फिर से सहेजा जा सके. युवाओं को बुंदेली व्यंजन पंसद आ रहे हैं."
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- चूल्हे की रोटी, सिलबट्टे की चटनी, होम स्टे पर यहां पालथी मारकर खिलाते हैं बुंदेली व्यंजन
'लंबे समय से चली आ रही है मेलों की परंपरा'
बुंदेली व्यंजनों का स्वाद लेने पहुंचे अनिल द्विवेदी बताते हैं कि "मुरका, महेरा, कढ़ी जैसे कई प्रकार के बुंदेली आइटम हैं जो विलुप्त हो चुके हैं लेकिन इस मेले में इनका स्वाद चखा जा सकता है. बुंदेलखंड सहित कई जगहों पर मेलों के आयोजन की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है. इसके पीछे का उद्देश्य यहां की सांस्कृतिक विरासत को सहेजना है.
मेलों में विभिन्न प्रकार के वस्तुओं का लेन देन होता है. प्राचीन समय में जब संचार के माध्यम नहीं थे तब लोग, रिश्तेदारों से मेलों में एक-दूसरे से मिलते थे, मेलों में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे जो हमारी सांस्कृतिक विरासत को संजोये रखते थे और यही इस मेले में देखने मिल रहा है."