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Delhi: दिल्ली एम्स ने लकवा मरीज के ब्लड क्लॉट का ग्रासरूट तकनीक से किया सफल इलाज

-दिल्ली एम्स में लकवा मरीज का सफल इलाज -ग्रासरूट तकनीक से नसों के अंदर डाला गया डिवाइस -ब्लड क्लॉट बाहर निकलने से मरीज हुआ स्वस्थ्य

दिल्ली एम्स में ब्लड क्लॉट का ग्रासरूट तकनीक से किया सफल इलाज
दिल्ली एम्स में ब्लड क्लॉट का ग्रासरूट तकनीक से किया सफल इलाज (ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Delhi Team

Published : Oct 29, 2024, 12:52 PM IST

नई दिल्ली: दिल्ली एम्स में ग्रासरूट तकनीक से एक मरीज के ब्लड क्लॉट का इलाज करने में डॉक्टरों को सफलता मिली है. इस तकनीक से 25 अगस्त को डॉक्टरों ने पहले मरीज का सफलतापूर्वक इलाज करने के बाद मरीज को छुट्टी दे दी. एम्स का दावा है कि ग्रासरूट तकनीक से देश में यह पहले मरीज का इलाज किया गया है. मरीज अब पूरी तरह ठीक है. डॉक्टर ने कहा कि यह तकनीक लकवाग्रस्त मरीज का इलाज करने में सक्षम है.

देश के 16 केंद्रों में चलेगा तकनीक का ट्रायल: दिल्ली एम्स में इस तकनीक का आगे भी ट्रायल चलेगा. एम्स के अलावा देशभर में 16 केंद्रों को इस तकनीक का क्लीनिकल ट्रायल चलाने की अनुमति मिली है. दिल्ली एम्स के न्यूरोसाइंस सेंटर में न्यूरो इमेजिंग और इंटरवेंशियल न्यूरोरेडियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर शैलेश गायकवाड ने बताया कि एम्स सहित पूरे देश में इस तकनीक पर अभी शोध चल रहा है. अगर इस तकनीक में इस्तेमाल की जा रही अत्याधुनिक ग्रेविटी डिवाइस का परीक्षण सफल रहता है तो आगे उनके व्यावसायिक इस्तेमाल की अनुमति रेगुलेटरी अथॉरिटी के द्वारा दी जाएगी.

पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कम उम्र में आ रहे स्ट्रोक : डॉक्टर गायकवाड़ ने बताया कि भारत के लोगों की आर्टरी का साइज़ अलग है. साथ ही मस्तिष्क में बनने वाले क्लॉट का कारण भी अलग है. डॉक्टर ने बताया कि भारत के लोगों में क्लॉट का असर अन्य देशों की तुलना में 10 साल पहले आ जाता है. उन्होंने बताया कि पश्चिमी देशों के लोगों में 60 से 70 साल की उम्र में स्ट्रोक आता है. जबकि भारत में 50 से 55 साल की उम्र में ही लोगों में इस तरह की समस्या देखने को मिल रही है. उन्होंने कहा कि जब शोध पूरा होगा तो उससे निकलने वाले निष्कर्ष से पता चलेगा कि आखिर इस स्ट्रोक के आने का कारण क्या है.

ट्रायल में प्रशिक्षित किए जाएंगे स्वास्थ्यकर्मी : डॉ शैलेश गायकवाड़ ने बताया कि देश भर में 16 केंद्रों में होने वाले ग्रासरूट तकनीक के इस्तेमाल के ट्रायल से अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा. इससे आगे जब इस तकनीक को व्यापक स्तर पर चलन में लाया जाएगा तो प्रशिक्षित कर्मियों की कमी नहीं खलेगी. ट्रायल के दौरान ही बड़ी संख्या में इस तकनीक से इलाज करने वाले कर्मियों को प्रशिक्षित कर दिया जाएगा. उन्होंने बताया कि 142 करोड़ की आबादी वाले भारत में हर साल 17 लाख लोगों को स्ट्रोक आता है. इनमें से सिर्फ साढ़े तीन हजार से साढे चार मरीजों का ही इलाज मिल पाता है.

समय पर इलाज न होने से हो सकती है स्थाई अपंगता : ग्रासरूट तकनीक के शोध में शामिल एम्स की डॉक्टर दीप्ति विभा ने बताया कि अगर दिमाग की नस से क्लॉट को सही समय पर नहीं निकाला जाता है तो इससे स्थाई अपंगता हो सकती है. ग्रासरूट तकनीक से इलाज उसी मरीज में सफल होता है जिसकी बड़ी नसों में ज्यादा क्लोटिंग हो गई हो. छोटे क्लॉट में यह तकनीक काम नहीं आती है. इस तकनीक में एक डिवाइस को नसों में डाल करके उससे क्लॉट को निकाला जाता है. इससे नसों में ब्लड का सरकुलेशन फिर से शुरू हो जाता है. इससे बहुत सारी नसों को खराब होने से बचा लिया जाता है और मरीज ठीक हो जाता है.

ये भी पढ़ें : महिला डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए AIIMS की पहल, 100 महिला स्टाफ को दी गई ट्रेनिंग

ये भी पढ़ें : AIIMS के ट्रॉमा सेंटर में 5 मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर का उद्घाटन, मरीजों को मिलेंगी ये सुविधाएं

नई दिल्ली: दिल्ली एम्स में ग्रासरूट तकनीक से एक मरीज के ब्लड क्लॉट का इलाज करने में डॉक्टरों को सफलता मिली है. इस तकनीक से 25 अगस्त को डॉक्टरों ने पहले मरीज का सफलतापूर्वक इलाज करने के बाद मरीज को छुट्टी दे दी. एम्स का दावा है कि ग्रासरूट तकनीक से देश में यह पहले मरीज का इलाज किया गया है. मरीज अब पूरी तरह ठीक है. डॉक्टर ने कहा कि यह तकनीक लकवाग्रस्त मरीज का इलाज करने में सक्षम है.

देश के 16 केंद्रों में चलेगा तकनीक का ट्रायल: दिल्ली एम्स में इस तकनीक का आगे भी ट्रायल चलेगा. एम्स के अलावा देशभर में 16 केंद्रों को इस तकनीक का क्लीनिकल ट्रायल चलाने की अनुमति मिली है. दिल्ली एम्स के न्यूरोसाइंस सेंटर में न्यूरो इमेजिंग और इंटरवेंशियल न्यूरोरेडियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर शैलेश गायकवाड ने बताया कि एम्स सहित पूरे देश में इस तकनीक पर अभी शोध चल रहा है. अगर इस तकनीक में इस्तेमाल की जा रही अत्याधुनिक ग्रेविटी डिवाइस का परीक्षण सफल रहता है तो आगे उनके व्यावसायिक इस्तेमाल की अनुमति रेगुलेटरी अथॉरिटी के द्वारा दी जाएगी.

पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कम उम्र में आ रहे स्ट्रोक : डॉक्टर गायकवाड़ ने बताया कि भारत के लोगों की आर्टरी का साइज़ अलग है. साथ ही मस्तिष्क में बनने वाले क्लॉट का कारण भी अलग है. डॉक्टर ने बताया कि भारत के लोगों में क्लॉट का असर अन्य देशों की तुलना में 10 साल पहले आ जाता है. उन्होंने बताया कि पश्चिमी देशों के लोगों में 60 से 70 साल की उम्र में स्ट्रोक आता है. जबकि भारत में 50 से 55 साल की उम्र में ही लोगों में इस तरह की समस्या देखने को मिल रही है. उन्होंने कहा कि जब शोध पूरा होगा तो उससे निकलने वाले निष्कर्ष से पता चलेगा कि आखिर इस स्ट्रोक के आने का कारण क्या है.

ट्रायल में प्रशिक्षित किए जाएंगे स्वास्थ्यकर्मी : डॉ शैलेश गायकवाड़ ने बताया कि देश भर में 16 केंद्रों में होने वाले ग्रासरूट तकनीक के इस्तेमाल के ट्रायल से अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा. इससे आगे जब इस तकनीक को व्यापक स्तर पर चलन में लाया जाएगा तो प्रशिक्षित कर्मियों की कमी नहीं खलेगी. ट्रायल के दौरान ही बड़ी संख्या में इस तकनीक से इलाज करने वाले कर्मियों को प्रशिक्षित कर दिया जाएगा. उन्होंने बताया कि 142 करोड़ की आबादी वाले भारत में हर साल 17 लाख लोगों को स्ट्रोक आता है. इनमें से सिर्फ साढ़े तीन हजार से साढे चार मरीजों का ही इलाज मिल पाता है.

समय पर इलाज न होने से हो सकती है स्थाई अपंगता : ग्रासरूट तकनीक के शोध में शामिल एम्स की डॉक्टर दीप्ति विभा ने बताया कि अगर दिमाग की नस से क्लॉट को सही समय पर नहीं निकाला जाता है तो इससे स्थाई अपंगता हो सकती है. ग्रासरूट तकनीक से इलाज उसी मरीज में सफल होता है जिसकी बड़ी नसों में ज्यादा क्लोटिंग हो गई हो. छोटे क्लॉट में यह तकनीक काम नहीं आती है. इस तकनीक में एक डिवाइस को नसों में डाल करके उससे क्लॉट को निकाला जाता है. इससे नसों में ब्लड का सरकुलेशन फिर से शुरू हो जाता है. इससे बहुत सारी नसों को खराब होने से बचा लिया जाता है और मरीज ठीक हो जाता है.

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