देहरादून: दून की बासमती कभी देश दुनिया में जानी जाती थी. लेकिन आज न केवल इसकी पहचान बल्कि इसका उत्पादन भी संकट में आ गया है. हालात ये है कि पिछले 4 साल में ही 250 हेक्टेयर से ज्यादा की खेती कम हो गई है. शायद यही कारण है कि अब बायोडायवर्सिटी बोर्ड ने इस पर अध्ययन करते हुए इसके बचाव के लिए भविष्य का एक्शन प्लान तैयार किया है.
दून की बासमती की खुशबू देशभर में कभी खूब डिमांड में थी. देहरादून से इस बासमती का निर्यात दूसरे राज्यों में तो किया ही जाता था, लेकिन कुछ दूसरे देशों में भी लोगों द्वारा इसकी मांग की जाती थी. लेकिन अब हालात बदल गए हैं, क्योंकि देहरादून की यह बासमती बाजार से धीरे-धीरे गायब होती जा रही है. इसकी वजह एक तरफ बासमती के उत्पादन में तेजी से आती कमी है साथ ही वक्त के साथ देहरादून की बासमती को लेकर मार्केटिंग का न होना भी बड़ी वजह है. इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए बायोडायवर्सिटी बोर्ड ने देहरादून की बासमती को लेकर जो आंकड़े इकट्ठे किये वो चौकाने वाले हैं.
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इतना ही नहीं इन आंकड़ों ने अब बासमती की इस पहचान को लेकर नई चिंता भी खड़ी कर दी है. हालांकि अब नई एक्शन प्लान के साथ बासमती को बचाने की मुहिम शुरू करने की कोशिशें भी की जाने लगी हैं. देहरादून की बासमती को लेकर जो आंकड़े सामने आए हैं उसके अनुसार देहरादून में बासमती की खेती से जुड़ी एक तिहाई से ज्यादा भूमि कम हो गई है. आंकड़ों के अनुसार देहरादून में ऐसी करीब 253 हेक्टेयर भूमि कम हो गई है. जिसका प्रयोग बासमती की खेती के लिए किया जाता था.
आंकड़ों के अनुसार साल 2018 में दून में करीब 680 बासमती की खेती करने वाले किसान मौजूद थे. जिनकी संख्या अब भी करीब 590 के करीब बनी हुई है. लेकिन साल 2018 में जहां करीब 411 हेक्टेयर क्षेत्र में बासमती की खेती होती थी, वहीं साल 2022 आते-आते बासमती की खेती 158 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गई. यानी 4 साल के अंतराल में ही बासमती की खेती में बेहद ज्यादा गिरावट रिकॉर्ड की गई है.
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मामले को लेकर बायोडायवर्सिटी बोर्ड अब वन विभाग के अधिकारियों के साथ मिलकर बासमती को बचाने के लिए नई एक्शन प्लान पर काम करने की तैयारी कर रहा है. इसके तहत एक तरफ जहां पर्वतीय क्षेत्र में कैसे बासमती का उत्पादन किया जा सकता है, उसके तरीकों को ढूंढा जा रहा है. वही इसको बढ़ावा देने के लिए जरूरी बातों पर भी चिंतन किया जा रहा है. हालांकि बासमती चावल के उत्पादन के लिए पानी की आवश्यकता होती है और पहाड़ों पर 92 फीसदी खेत असिंचित है. लिहाजा यहां खेती होना काफी मुश्किल है.
उधर दूसरी तरफ बासमती के लिए बेहतर बीज की व्यवस्था, इसकी बेहतर मार्केटिंग करने, साथ ही लोगों को जागरूक करते हुए खेती की जमीनों को न बेचे जाने के प्रयास जैसे उपायों पर भी काम करने का फैसला लिया गया है. हालांकि राज्य बनने के बाद जिस तरह से देहरादून में जमीनों के दाम आसमान छूने लगे हैं. उसके बाद तेजी से किसानों ने खेती छोड़ते हुए इन जमीनों को बेचा है या फिर इसका कर्मशलाइजेशन वर्क में उपयोग किया है. लिहाजा बासमती से कम लाभ की संभावना के बीच अब इसे बचाना बेहद मुश्किल हो गया है.